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Thursday, February 27, 2020

नवगीत वैमनस्य संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
वैमनस्य 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~ 16/15 
अंतरा ~~ 16/15 

वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर।
रूप भले है देख सिपाही, 
अन्तस् बैठा उसके चोर।

रौंद रहे हैं पैर करों को, 
दृश्य बनाकर सेवा भाव।
इसकी टोपी उसके सिर पर, 
लोग उछालें करके चाव।
तैर रही सागर में नौका, 
देख नदी में डूबे नाव।
अन्य (गैर) बने हैं औषध सबके, 
अपने देते रिसते घाव।

पाखण्ड करें षड्यंत्र रचें, 
चहुँ दिश देखो उनका शोर।
वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर। 

2
हाथ बढ़े जब हाथ कटे तब, 
लोग निराली चलते चाल।
अपनेपन में भूखों मरते, 
देख कहाँ है रोटी दाल।
ये विपरीत बयार दिशा से,
बहती है नित बहता काल।
मीन फँसी भी ले बह जाये, 
मछुआरों का फैला जाल।

फिर प्रतिशोध कहाँ पर किससे, 
किसकी बाजू में ये जोर।
वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर। 

3
सेठ दबाये पाँव जहाँ पर,
ऐसे ठाठ करे मजदूरी। 
बाल श्रमिक ने फोड़े पर्वत, 
कौन कहे उनकी मजबूरी।
पेट कराये नर क्या करले, 
चंदा की है कितनी दूरी।
एक समाज नही शोषक का,
झूठी गाथा शोषण पूरी।

रक्त नयन से कौन बहा दे, 
कौन सके आत्मा झकझोर।
वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर। 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

5 comments:

  1. अति उत्तम कविता

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  2. बहुत ही सुंदर नवगीत....व्यंग का प्रयोग बहुत ही शानदार लगा।सटीक बिम्ब कथन को प्रभावी तरीके से व्यक्त कर रहे है। बहुत ही लाजवाब सृजन....नमन आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏 बधाई आदरणीय अनुपम सृजन की 💐💐💐

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  3. आ0 समाज को आइना दिखाती रचना

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  4. बहुत सुंदर बहुत बढ़िया बहुत बधाई आपको सुन्दर रचना

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  5. सटीक बिंबों के प्रयोग के साथ कटाक्ष करती बेहतरीन रचना👌👌👌👌👌👏👏👏👏👏👏👏

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