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Thursday, April 22, 2021

नवगीत : बादल बनाते घर : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
बादल बनाते घर
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 11/14

2212 22
2122 1222

आहत हुआ अम्बर
और व्याकुल हुई धरणी
छाया सुनामी सा
झोल मारे धरा मरणी।।

आँधी चली बैरण
फोड़ती घाव नूतन से
लहरें रुदन करती
सिंधु का क्रोध भू तन से
बादल बनाते घर 
वज्र सी मार कर करणी।।

छाई खुशी बिखरे
कष्ट तांडव करे सिर पर
दिखते दिवस तारे
मृत्यु सौ नित रहे हैं मर
सूरज ग्रहण अवसर
कालिमा चर रही चरणी।।

यह शेर सी गर्जन
पाश अजगर निगलता सा
अटका शिखा में है
प्राण मुख में निकलता सा
भूकम्प के झटके
काँपती क्षिति लगे डरणी।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, April 20, 2021

नवगीत ; प्रथम स्पर्श : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
प्रथम स्पर्श
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~16/14

प्रथम स्पर्श की मधुर तरंगे
कितनी तुमको याद प्रिये।।
स्वर्ण जयंती उत्सव करता
टोटे में आल्हाद प्रिये।।

अग्नि समक्ष रचा वो मण्डप
तेरी शोभा पर वारी
कदली के तरु चार दिशा की
करते हँसके रखवारी
चुनरी की छाया तारों की
ढोलों के थे नाद प्रिये।।

शहनाई धुन अम्बर घोले
कानों में आनंद हँसा 
वैदिक मंत्रों के उच्चारण ने
कर में कर को दिया फँसा
संगम यह सुर ताल सधा सा
श्रेष्ठ राग का स्वाद प्रिये।।

यज्ञ कुण्ड की पावन बेदी 
पाणि ग्रहण संस्कार कहा
प्रथम स्पर्श उन सात वचन में
फेरों का भी साथ रहा
गठबंधन हर्षाया कितना
करके मधु संवाद प्रिये।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, April 19, 2021

दोहे : निराकार साकार दो ईश्वर के हैं रूप ..... संजय कौशिक 'विज्ञात'


निराकार साकार दो 
 ईश्वर के हैं रूप .....
संजय कौशिक 'विज्ञात'


1
निराकार साकार दो, ईश्वर के हैं रूप।
मेघ अनंत यही बने, यही धरा पर कूप।।
2
निराकार साकार है, ईश्वर तू करतार।
सबके मन की जानता, करता बेड़ा पार।।
3
निराकार रखते कहाँ, अहंकार का बीज।
तम रूपी तमकार से, होती इनको खीज।।
4
पूजा करना तुम सदा, निराकार का मंत्र।
सबसे उत्तम रूप ये, उत्तम है ये तंत्र।।
5
पूर्णाहुति दे यज्ञ की, निराकार का कुण्ड।
सिंह समान बढ़ो सदा, तज कर मृग के झुण्ड।।
6
मुख मण्डल का तेज ये, देता नित नव कांति।
निराकार आनंद सा, देता सच्ची शांति।।
7
भाल मध्य में ध्यान कर, चमके लौकिक शक्ति।
निराकार के रूप में, ये है उत्तम भक्ति।।
8
भावों के भगवान हैं,भावों के गुणगान।
निराकार जो पूजते, पाते सच्चा ज्ञान।।
9
केंद्र बिंदु है शक्ति का, भाल मध्य में जान।
निराकार साकार का, पार ब्रह्म भगवान।।
10
वेदों की हैं जो ऋचा, गीता के जो श्लोक।
निराकार चौदह भुवन, शाश्वत तीनों लोक।।

11
भेद अठारह खोलते, कहें चार छह ज्ञान।
निराकार साकार की, कर उत्तम पहचान।।
12
वेदों की हैं जो ऋचा, गीता के जो श्लोक।
निराकार चौदह भुवन, शाश्वत तीनों लोक।।
13
सब अणुओं से सूक्ष्म है, विस्तृत ये ब्रह्माण्ड।
निराकार साकार का, पूजनीय हर काण्ड।।
14
परमात्मा अच्युत यही, ये ही चलायमान।
निराकार को याद रख, नित करना गुणगान।।
15
सर्वविधा विद्या यही, चलती सारी सृष्टि।
निराकार छाया तले, सौम्य मिले नित दृष्टि।।
16
निराकार मंगल करो, धरो कृपा का हाथ।
काटो नित अज्ञानता, निराकार हे नाथ।।
17
नदियों में है जल यही, और सूर्य का तेज।
निराकार साकार बन, बैठे मंदिर सेज।।
18
मन मंदिर में चित्र जो, सजा रहे हैं आप।
निराकार साकार का, काटेगा वो पाप।।
19
चंचलता को त्याग कर, हिय अच्युत कर आज।
निराकार फिर सब करें, सफल सिद्ध हर काज।।
20
कण्टक जीवन मार्ग से, हट जायें बन फूल।
निराकार की शक्ति को, मानव तू मत भूल।।
21
निराकार दिखते नहीं, और नहीं है भूल।
जैसे ये दिखती नहीं, अम्बर उड़ती धूल।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, April 18, 2021

नवगीत : धरणी लगे कुंदन : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
धरणी लगे कुंदन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~11/14 

ये बालियाँ स्वर्णिम
तपे धरणी लगे कुंदन
कटती उपज बिखरी
उठे फिर तृप्त सी गंधन।।

ले हर्ष बैसाखी
बजाता ढोल से मधुरिम
यह पर्व आनंदित
रचाता चित्र से कृत्रिम
लू से तना अनुपम
घटा सा एक अवगुंठन

परिपक्व से गेहूँ
दराती हाथ में घूमे
ये शीश मंडासी
उतरते फाँट से झूमे
यूँ लामणी पुलकित 
कृषक का नित करे वंदन।।

यूँ भाग्य खेतों का
हँसे निर्माण होता सा
खिलता परिश्रम नित
दिखे कल्याण होता सा
दे भूख को उत्तर
सफलता ने जड़ा चुम्बन।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

आँचलिक सम्पुट 

मंडासी- जो कपड़ा सिर बांधा जाता है।
लामणी- फसल कटाई का कार्य।
फाँट /फेर- मेढ़ द्वारा निर्मित चौकोर खेत में एक निशान में दूसरे निशान तक फसल को काट देना अर्थात एक चक्र पूरा कर देना।

Friday, April 16, 2021

यमक अलंकार की चमक संजय कौशिक 'विज्ञात'


संजय कौशिक 'विज्ञात'
यमक अलंकार की चमक
उल्लाला भेद-१ के यमक अलंकार के कुछ उदाहरण देखें (13/13) ...... 

*सभंग अलंकार के उदाहरण-*

पाटा पा टा में धँसा, बैलों को भी कष्ट ये।
कैसे खींचे अब उसे, करता ऊर्जा नष्ट ये।।

पाटा- लम्बी धरन की तरह आयताकार लकड़ी जिससे जुते हुए खेत की मिट्टी को समतल करते हैं (जैसे—किसान खेत में पाटा चला रहा है)
पा- पैर, पाँव 
टा- पृथ्वी

प्रस्तुत उल्लाला छंद का यह उदाहरण भी सभंग यमक अलंकार का एक सुंदर उदाहरण है देखने में आ रहा है कि इस छंद में पाटा शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है और दोनों ही बार रूप तथा अर्थ पृथक- पृथक हैं जो उपर्युक अर्थ में सही से समझ आ जाते हैं शब्दों के इस अनुपम चमत्कार के चलते यहाँ पर सभंग यमक अलंकार की सुंदर छटा व्याप्त है।  
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काला सा का ला गया, अवसर आया मोक्ष का।
गंगा के तट स्नान फिर, मौका हैं ये चोक्ष का।।
काला- अँधेरा 
का- छोटा 
ला- ग्रहण

उल्लाला छंद का यह उदाहरण सभंग पद यमक अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण है। जिसमें काला शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। प्रथम काला शब्द उसके रंग को दिखा रहा है तो दूसरे में का और ला को विभाजित कर प्रयोग किया गया है जिस से शब्द के अर्थ में परिवर्तन होने के पश्चात शब्द अपना चमत्कार दिखाते हुए पूरे बंध को जोड़ते हुए एक सार्थक अर्थ प्रदान कर रहे हैं। यह प्रयोग अत्यंत प्रसंशनीय है। जिसका अर्थ है कि कालिमा लिए छोटा ग्रहण जा चुका है। जो कि पुण्य प्राप्ति के अवसर प्रदान करता है। ऐसे में गंगा तट पर स्नान विशेष फलदायक होता है।इसलिए यह विशेष अवसर पुण्य तथा शुद्धि प्राप्त करने का हैं।
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प्रस्तुत उल्लाला छंद भेद-१ के ये उदाहरण  *अभंग पद यमक अलंकार* के सुंदर उदाहरण हैं जिनमें एक शब्द दो या दो से अधिक बार प्रयोग हुए हैं जिनके अर्थ पृथक-पृथक हैं जो निम्नलिखित हैं। इन शब्दों के चमत्कार दर्शनीय एवं सराहनीय हैं। ये अभंग पद यमक अलंकार के जीवंत उदाहरण हैं...... 

काँटे से काटे वजन, काँटे से कटती व्यथा।
काँटे कटती से मिली, ये है काँटे की कथा।।
काँटे - 1 धर्म काँटा, 2 शूल 
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काँटे से कटता वजन, काटे कटता शूल भी।
कटने से राहत मिले, मिलती इनसे धूल भी।।
कटता- 1 घटना  2 निकालना 
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लहरों के ये राग सुन, पानी ताले नित जहाँ।
पानी धारा स्तोत्र ये, वर्षा ऐसी हो कहाँ।।
पानी - 2 मोती  3 जल 
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पानी लहरें ला रही, पानी पड़ता चून में।
पानी बिन जीवन नहीं, बँधता कब ये ऊन में।।
पानी-1 मोती, 2 जल, 
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रोगों की आपत्ति से, औषधि को आपत्ति कब।
देते वैद्याचार्य जब, सम्बल सी आसत्ति सब।।
आपत्ति - 1 विपत्ति , 2 एतराज 
आसत्ति - प्राप्ति
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अंतर से मिटता नहीं, अंतर इतना है अधिक।
अंतर थोड़ा कम बने, अंतर कहता अब तनिक।।
अंतर - 1 मन, 2 भेद, 3 दूरी, 4 शेष
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नेता सिर अपवाद था, फिर भी वह अपवाद है
जनता में अपवाद से, रहता किसको याद है।।
अपवाद - 1 कलंक, 2 नियम के विरुद्ध, 3 प्रचलित प्रसंग
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हरियल से आराम की, छाया में आराम कर।
यात्री ठहरे फिर चले, धरणी को यूँ धाम कर।।
आराम - 1 बाग, 2 विश्राम 
यात्री - अतिथि (साधु)
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सुख-दुख सबके अंक के, जाने किसने अंक से।
केवल ममता अंक ही, रक्षा करती पंक से।।
अंक - 1 भाग्य, 2 संख्या, 3 गोद, 
पंक- कीचड़, दलदल
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धरणी का अम्बर दिखे, अम्बर नीले रूप में।
बादल अम्बर से लगें, इस चुभती सी धूप में।।
अम्बर- 1 वस्त्र, 2 आकाश, 3 अमृत
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हारे कम अवकाश से, कर देते अवकाश अब।
लेते उस अवकाश को, होता क्यूँ ये नाश अब।।
अवकाश 1 अंतराल, 2 छुट्टी, 3 अवसर,
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श्लेष अलंकार
भँवरे गीतों की तड़प, धुन मतवाले रंग में।
अनुपम सी उत्कृष्ट हो, कलियाँ मांगे संग में।।
कलियाँ - अन्तरा , (अधखिले फूल) कलियाँ

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संजय कौशिक 'विज्ञात'
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उल्लाला छंद : शिल्प-विधान (परिभाषा) एवं उदाहरण - संजय कौशिक 'विज्ञात'


संजय कौशिक 'विज्ञात'
हिन्दी छंद ; उल्लाला छंद ; चंद्रमणि छंद ; कर्पूर छंद ;
भेद- १
उल्लाला प्रथम भेद 13-13 मात्राओं के 4 चरणों का छन्द है। उल्लाला द्वितीय भेद 15-13 मात्राओं का विषम चरणी छन्द है।
दोहे के चार विषम चरणों से उल्लाला छन्द का निर्माण होता है। यह 13-13 मात्राओं का समपाद मात्रिक छन्द कहा जाता है, जिसके विषम चरणान्त में यति लगती है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक होती है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा भार विभाजन 8+3+2 है। अंत में एक गुरु या 2 लघु का विधान है।
अर्थात् उल्लाला में 13 मात्राएँ होती हैं। दस मात्राओं के अंतर पर (अर्थात् 11 वीं मात्रा) एक लघु रखना अनिवार्य है।
दो पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के 4 चरण सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात् सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए चरणान्त में एक गुरु या 2 लघु हों सम चरणों (द्वितीय, चतुर्थ) के अंत में समान तुक हो सामान्यतः सम चरणों के अंत में एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक-सी मात्रा होनी चाहिए।

मापनी के अनुसार भी शिल्प समझते हैं:- 
22 22 212, 22 22 212
22 22 212, 22 22 212

कलन के अनुसार भी शिल्प समझते हैं :- 
चौकल + चौकल + गाल + द्विकल 
चौकल + चौकल + द्विकल + लगा 
चौकल + चौकल + गाल + द्विकल 
चौकल + चौकल + द्विकल + लगा 
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संजय कौशिक 'विज्ञात'
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 उदाहरण देखें - 
सम चरण तुकान्तता-
पाटा पा टा में धँसा, बैलों को भी कष्ट ये।
कैसे खींचे अब उसे, करता ऊर्जा नष्ट ये।।
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पाटा अर्थ- लम्बी धरन की तरह आयताकार लकड़ी जिससे जुते हुए खेत की मिट्टी को समतल करते हैं (जैसे—किसान खेत में पाटा चला रहा है)
पा अर्थ- पैर, पाँव 
टा अर्थ- पृथ्वी
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विषम-सम चरण तुकान्तता-

भक्तों के भगवान हैं, देते ये वरदान हैं।
पूजा अर्चन जो करें, उनकी झोली को भरें।।

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द्वितीय भाग के लिए पहला लेख पढ़ें जो पूर्व में ही प्रेषित किया जा चुका है.... 
संजय कौशिक 'विज्ञात'
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उदाहरण :- 
3
गिल्ली डण्डा खेलते, बालक देखे गाँव से।
बचपन की यादें सभी, आकर पकड़े पाँव से।।
4
गंजा कंघी ले रहा, विक्रेता के भाव पर।
बिन पूछे ही भाव पर, पैसे देता नाव पर।।
5
खेतों की वो मेढ़ अब, बँटवारे में बँट गई।
अपनों के अपनत्व की, बदरी सारी छँट गई।।
6
पुरवा-पछवा दो हवा, दोनों के दो रंग हैं।
सुख-दुख बाँटे ये सदा, दोनों के ये ढंग हैं।।
7
पत्थर पूजे शिव मिले, मिलते बिन पूजे नहीं।
आस्था का ये केंद्र है, भूलो मत इसको कहीं।।
8
जल पर काई है खड़ी, लेकर पपड़ी रूप ये।
नदिया तट सुंदर दिखे, लहरों की ले धूप ये।।
9
सोना मैला कब दिखे, कुंदन घटता तेज कब।
गुण उत्तम के मूल्य हैं, कीचड़ में दे भेज अब।।
10
सच्चे झूठे सब यहाँ, गूँगों का भी ध्यान कर।
सब रचना उत्तम समझ, उस ईश्वर का मान कर।।
11
कोयल कूके बाग में, ये सुर का माधुर्य है।
कागा बालक पालता, ये उसका चातुर्य है।।
12
घण्टी बिल्ली के गले, बाँधेगा यूँ कौन अब।
चूहों के हैं पिंजरे, देखो दिखते मौन सब।।
13
श्लेष अलंकार
भँवरे गीतों की तड़प, धुन मतवाले रंग में।
अनुपम सी उत्कृष्ट हो, कलियाँ मांगे संग में।।
कलियाँ - अन्तरा , (अधखिले फूल) कलियाँ
14
फाटक कबकी बंद है, गाड़ी अवरोधित हुई।
स्त्री को जागा दुख प्रसव, चिंतित सी शोणित हुई।।
15
तोते सी रटना भली, रटते रहता राम ये।
देता सबको संदेश ये, आएगा जो काम ये।।
16
किसके घर लें जन्म फिर, पालन पोषण हो कहाँ। 
कोयल खोले भेद ये, कागे हैं पागल यहाँ।।
17
हरसा पे चंदन घिसा, आएंगे प्रभु राम अब।
रटना में तुलसी रहा, आये का भी भान कब।।
18
काटे से कटती नहीं, देखो तो दिखती नहीं।
आत्मा है वो लेखनी, लिख कर सब लिखती नहीं।।
19
गोबर के उपले बनें, उपलों से फिर आँच है।
दाहक गिनलो तत्व ये, गिनती जिनकी पाँच है।।
20
नौका सरयू तट खड़ी, गिनती लहरें भोर में।
फिर लहरों से खेलती, आती विपदा घोर में।।
21
गणपति गिरजा लाल को, कवियों का हिय से नमन।
उल्लाला रच दें शतक, करके नित चिंतन मनन।।
22
कौशिक वीणापाणि का, नित ही हिय से दास है।
करवाती माँ ही सृजन, अन्तस् में विश्वास है।।
23
दशरथ नंदन राम के, सेवक तुलसीदास हैं।
भाषा बोलें भक्ति की, जन-मन के विश्वास हैं।।
24
बेरी की पावन धरा, गुरु चरणों का धाम है।
बेरी वाले गुरु कहें, ये ही उनका नाम है।।
25
कवि की शाला छंदमय, गुरुवर सारे कवि गुणी।
उत्तम सबके भाव हैं, उत्तम ये कविता क्षुणी।।
26
अर्णव शाला छंद की, कवियों का परिवार है।
मुझको नित अपना लगे, अपनों का आभार है।।
27
कविता शाला छंद की, कवियों का परिवार ये।
अपना सा लगने लगा, अपनों का है प्यार ये।।
28
कहती ध्वनि कर आरती, मंदिर आई टेक सुन।
घण्टा घर में गूँजता, घण्टे दो ध्वनि एक सुन।।
29
बगिया भावों सी खिले, बनता उत्तम काव्य है।
कवि कवयित्री के सृजन, निखरें नित सम्भाव्य है।।
30
शब्दों के संग्रह गठित, बनती कविता बोलती।
पलड़े में रख शिल्प के, उत्तम रस में तोलती।।
31
मानक सा ये यंत्र सुन, केवल मात्रा भार हैं।
मात्रा शब्दों की सखी, देती जो आकार है।।
32
व्याकुल शब्दों ने सुनी, अंतर मन की टीस जब।
निखरी तब ही व्यंजना, दे भावों को पीस जब।।
33
दुविधा है ये शिल्प की, मात्रा कहती छंद को।
जिह्वा मात्रा बन कहे, लघु गुरु लय आनंद को।।
34
सुविधा नित कवि मांगते, छंदों पर हैं शांत सब।
लिखना इनको जब पड़े, लिखते हैं अतुकांत सब।।
35
पापड़ सूखे धूप में, कागे छत पर झूमते।
अद्भुत सी ये ध्वनि करें, दीवारों पर घूमते।।
36
रोटी चूल्हे से कहे, फूंको मत यूँ आग से।
जैसा बाहर से दिखूँ, होगी भीतर भाग से।।
37
सिलबट्टा सब पूछता, धनिया की हिय पीर को।
रगड़ूँ कूटूँ जब तुम्हें, कैसे रखती धीर को।।
38
पहिया माटी से कहे, चढ़ती मेरे पेट पर।
जिस दिन मैं आया उदर, बोलोगी आखेट पर।।
39
गङ्गा से यमुना मिली, संगम पावन धाम वो।
ऐसे सब मिलते रहो, उत्तम करते काम को।।
40
पापों के पापा मरे, बढ़ जाते जब पाप हैं।
मम्मी को भी घाव दें, गिरती जब-जब छाप हैं।।
41
रक्षक जब तक शूल हैं, खिलते हँस पंकज सदा।
गलती से जो हट गए, रोयेंगे ये सर्वदा।।
42
चुभते शूलों की हँसी, पैरों को दे घाव जब।
उन घावों की पीर से, मुख पर दिखते भाव तब।।
43
झूठे अज्ञानी बढ़े, कलियुग में नित लोग अब।
पापी बढ़ते जा रहे, बढ़ते चहुँ दिश रोग अब।।
44
चारों युग उत्तम कहे, कलियुग नीची चाल से।
घटता मानव आयु से, मीठे जल के ताल से।।
45
व्याकुल हिय की दृग तुला, आँसू जिसके हैं वजन।
सुख-दुख में ये कम अधिक, सम हों तो करते भजन।।
46
किन्नर की हिय वेदना, समझो जाकर पार्थ तुम।
वर है या अभिशाप ये, समझो तजकर स्वार्थ तुम।।
47
अनपढ़ गौ को पालते, शिक्षित पालें श्वान को।
ये नागफणी रोपते, अनपढ़ बोयें धान को।।
48
पीपल बरगद कह रहे, मर्यादा विकलांग है।
बूढ़ों के दुख रो रहे, सिर चढ़ती सी भांग है।।
49
पचपन बचपन सा हृदय, कहते हैं सब लोग ये।
मानव हो जाता हठी, हठ का बढ़ता रोग ये।।




संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 15, 2021

नवगीत : साधना निष्ठुर : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
साधना निष्ठुर 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~11/14

वर्षा मधुर सरगम
बजे ज्यूँ वाद्य सारंगी
अनुपम नहाई सी
लगे ये साँझ नारंगी।।

यह साधना निष्ठुर 
तपस्या की तपाहट सी
औरा मनोरम सा
खड़ी चुप सनसनाहट सी
फिर टेर आहट सी 
हृदय के तार की संगी।।

चिमटा बजाती सी
कड़कती सी पड़ी विद्युत
फिर वृष्टि भभकी सी
वहीं रमती चमक अच्युत
बन योगिनी अद्भुत
रमाई भस्म भी ढंगी।।

धुन इक मल्हारी सी
थिरकती नव्य स्वर-ग्रामी
अलखें निरंजन सी
प्रकट हो गूँजती यामी
वह सांध्य बन रामी
तपस्वी श्रेष्ठ अनुषंगी।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत ; सैर अम्बर की : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सैर अम्बर की 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/14

सैर अम्बर की करें क्या
चल चलें अब घूम आएँ
बादलों की नद बनाकर
काठ की नौका तिराएँ।।

इंद्र धनुषी खींच चप्पू
वायु की लहरें दिखाकर
दस दिशा पर यंत्र सूचक
शब्द को अपने जमाकर
भावना की नाव बहती
पार इसको अब लगाएँ।।

गुदगुदी करना मुझे तुम
मैं हँसाउंगा तुम्हे फिर
पाश आलिंगन बँधे से
मैं मनाऊँगा उन्हें फिर
नेह की यह चाल अनुपम
इस जगत को आ दिखाएँ।।

अम्बरों के पार जाकर
एक व्याख्या नेक देंगे
प्रीत की उत्तम अलौकिक
इस जगत को टेक देंगे
केश सहलाऊँ जहाँ मैं
खोल देना तुम शिखाएँ।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, April 14, 2021

नवगीत : जीवन-यज्ञ : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
जीवन-यज्ञ 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 16/14 

आहुति से बढ़ती ये ज्वाला 
हवन कुण्ड विस्तार करे
तिल-तिल जलता सा यूँ जीवन
स्वप्न तिलों की हार करे।।

आज यथार्थी मिथ्या सम्बल
चूर चूर हो बिखर गया
हर्ष कुटुम्ब छलावा करके
यहाँ खड़ा था किधर गया
घटा निरन्तर बरस पड़ी फिर
सर्व नाश तैयार करे।।

नींव जड़ित सब पावन समिधा 
यज्ञ मध्य में निपट गई
धुँआ-धुँआ नेत्रों के आगे
अश्रु धार तब लिपट गई
घृत गुणकारी काम न आया
सप्त मातृका मार करे।।

लौहबान सा कर्म क्षेत्र फिर
क्षण भर में ही पिघल गया
अपनेपन की खुशबू स्वाहा
सब अपनो को निगल गया
प्रेम समर्पण सी सामग्री 
पूर्णाहुति को पार करे।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : चिट्ठी लिखी कितनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
चिट्ठी लिखी कितनी
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~11/14 

चिट्ठी लिखी कितनी
मगर आई नहीं पाती
फिर लेखनी पूछे
विरह की आग झुलसाती

ये काव्य पुतली से
लिखाती लेखनी आँखें
फिर शब्द चिह्नों से
उकेरे मोर सी पाँखें 
मसि तिलमिलाई सी
पुरानी रीत झुठलाती।।

अद्भुत भृकुटि अनुपम
कहानी गीत में लिखती
दबती कहीं पर तो
कहीं उठ भाव में दिखती
ये प्रीत के नखरे
सुना है आज इठलाती।।

इक टीस दुख देती
लिखा ये भाव चिट्ठी में
सौगंध चुप्पी की
दिलाती ताव चिट्ठी में
संकल्प नूतन से
लिए प्राचीन धुन गाती।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, April 13, 2021

नवगीत : झाँकता दर्पण : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
झाँकता दर्पण
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~ 11/14

उर झाँकता दर्पण
करे शृंगार नित अनुपम
छवि मुस्कुराहट सी
निखरता रूप है उत्तम।।

वह ओष्ठ रतनारे
चमक आभा खटक देती
उपमा जड़ित सुंदर
परी को भी पटक देती
यह आदि आकर्षण
हृदय विद्युत झटक देती
जब बात पर खुलते
झलक वो इक लटक देती
भेती घटक हिय को
दिखे ब्रह्मा बने सत्तम।।

ये श्यामला वर्णी
लगा बुकनी सँवर जाती
दृग कोर काजल से
बने ये और भी घाती
सौंदर्य की मूरत
भिजाती दृष्टि की पाती
इक नेह सा बुनती
चला चरखा सुनी गाती
आती सुरों की धुन
सफल करती दिखे उद्यम।।

चम्पा सुगंधित सी
कली सुंदर खिली प्यारी
कर स्पर्श से चुनती
महकती देख फुलवारी
जलती तड़पती सी
वहाँ पर पुष्प की नारी
सौगंध सी चाहें 
दिखाई दे न दोबारी
सारी मचलती सी
बचाती आज निज प्रीतम।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : प्रीत अवगुंठन 3 : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
प्रीत अवगुंठन 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~14/12

प्रीत अवगुंठन हटाकर 
झाँकती हिय आज फिर
सुर्ख लाली से अधर पर
कुछ चमकती लाज फिर।।

मेंहदी से कर सुसज्जित
पग महावर में पड़े
भाग्य अपना वे सराहें
यौवना से मिल खड़े
केश गजरा पुष्प का वो
इक हँसी उसपर जड़े
खिलखिला सौंदर्य महके
और सब उपमा घड़े
प्राण बिन पाषाण मूरत
सह रही नित गाज फिर।।

और सकुचाहट समेटे
कपकपाहट छोड़कर
श्रेष्ठ आलिंगन करे वो
कर सुराही मोड़कर 
स्पर्श का आनंद महके
श्वास भटकी जोड़कर 
अप्सरा लज्जित खड़ी सी 
कुछ अचंभित होड़कर
कल्पना से और सुंदर 
रति भरे नित ब्याज फिर।।

भाव गङ्गा पावनी से
चंचला चलती लहर
गाँव अपना भूलता सा 
शीतला सी ये नहर
पीपलों सी छाँव मीठी
नग्न देखे ये शहर
और चुनरी इक ह्रदय पर 
कौन आती अब पहर
स्मृति पटल से कुछ पिछोडे
छालनी बन छाज फिर।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : प्रीत अवगुंठन पिपासित 2 : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
प्रीत अवगुंठन पिपासित
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी स्थाई ~ 14/12

प्रीत अवगुंठन पिपासित
कुछ विरह की है तड़प
दर्पणों के बिम्ब चीखें
देख मुख लेती दड़प।।

युग जटिल बैसाख बीता
एक आह्वा घाम का
पक गया भट्ठा सिसकता
ईंट के था नाम का
भावना सारी व्यथित सी
नेह भटके काम का
भ्रष्ट मर्यादा प्रताड़ित
घाव उधड़े चाम का
याम का ये हर्ष सारा 
कर रहा है नित हड़प।।

जेष्ठ की तपती दुपहरी
जल उठी जिस ताप से
मौन धरणी की तपस्या
कर रही नित जाप से
और इच्छाएं मरी कुछ
देख चिंतित पाप से
ढोल बजते शोक जैसे
मेघ गर्जन थाप से
छाप से विस्तृत धरा के
इंद्रधनुषी कण गड़प।।

और सावन की प्रतीक्षा
भार है आषाढ का
दृश्य नेत्रों ने दिखाया
फिर प्रलय सी बाढ़ का
रंग पतझड़ सा नुकीला
टीस देता गाढ़ का
दूर दिव्यांगी क्षणों में
ये हिमालय ठाढ़ का
दाढ़ का दुख रो पड़े जब
वेदना सहती झड़प।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, April 7, 2021

नवगीत : ज्वालामुखी पिघले : संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत 
ज्वालामुखी पिघले
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 11/14

ज्वालामुखी पिघले
हृदय पत्थर नहीं पिघला
सावन सुलगता सा
तभी तो बुलबुला उबला।।

सागर टसकता सा
लहर का रोष उलझन में
इक ज्वारभाटे का
चला फिर वेग अनबन में
धड़कन थमी देखें
बना वो चंद्र सा पुतला।।

बादल मचलता सा
सिसकता रो रहा कितना
दिन रात फिर बरसा 
घटा सा मान जब इतना
कैसे समझता वो
तड़प जो कर गई पगला।।

उपवन महक डूबी
मिटे सब फूल फिर कलियाँ
हँसती रही मिलके
वहाँ इक व्यंग ले गलियाँ
मारा इन्हीं ने फिर
दिखा मुरझा गया गमला।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, April 4, 2021

नवगीत ; मन किन्नर होना चाहि : एसंजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
मन किन्नर होना चाहिए
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 15/15

ज्ञापित होते आनंद का
मन किन्नर होना चाहिए
हर्ष विषादों के मध्य में 
भावों को रोना चाहिए।।

भटकों के खुलते मार्ग सब 
उत्तम शिक्षा पथ ज्ञान दे
दिखता है कौशल बुद्धि का 
जो इस जग में सम्मान दे
देते उपवन खिलती महक
क्यों बंजर बोना चाहिए।।

उपमानों के आभाव को
क्यों अलंकार का नाम हो
भूखे निर्धन को भीख क्यों 
उनके हाथों में काम हो
कांधों पर आए भार जब 
सबको ही ढोना चाहिए।।

तम को दीपक जो पाट दे
जलता हो अब हर नेत्र में 
शशि सूरज से यह बात हो
रक्षित बेटी हर क्षेत्र में 
नीची ओछी हर सोच को 
इक गहरा कोना चाहिए।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : प्रेम के बदनाम रस्ते : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
प्रेम के बदनाम रस्ते
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 16/14

चल पड़े भँवरे मचल कर
प्रेम के बदनाम रस्ते
दोष कलियाँ मढ़ रही हैं
आक्रमण कर आज हँसते।।

चुलबुलाहट वो अधर की
कार्य अपना कर गई जब
भावनाएं मस्त पुलकित
हर्ष हिय में भर गई जब
दृश्य मोहक वे मनोरम
कुछ दिखाके घर गई जब
सिर फिरी व्याकुल हुई सी
चाकलेटें चर गई जब
पत्र देती छुप छुपाके
हाथ डाले खोल बस्ते।।

नाचती सी डोलती वो
छाप अद्भुत छोड़ती है
पूर्ण खण्डित ढेर दर्पण 
दिख रही वो तोड़ती है
नेह परिभाषित करे जो
कुछ मिथक से फोड़ती है
कर कली उपवन विसर्जित
बन गई इक घोड़ती है
पुष्प गुच्छे में सुसज्जित
दीप हिय के लाख चसते।।

बाग में कलियाँ महकती
तितलियों ने गीत गाये
पुष्प रजकण त्रस्त होकर
कुछ व्यथित से चरमराये
फिर भ्रमर के गान गूँजे
जो कली का हिय लुभाये
बाग खाली एक दिन फिर
जो बिना पतझड़ मिटाये
बात कलियाँ फिर बनाती
क्यों न इनको नाग डसते।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'


Saturday, April 3, 2021

गीत : सुंदरता की कमी नही : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत 
सुंदरता की कमी नही
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~16/14

मोर पंख के आंचल में भी
सुंदरता की कमी नहीं
कविता तो बातों में कहदूँ 
बातें ही तो जमी नहीं।।

कितने बिम्ब उधड़ जाते हैं
मेरे पृष्ठों पर कोरे
और कल्पना धक्के खाती
गाँव गली के नित गोरे
तितली जैसी कलियाँ बहकी
पकड़ रहे जब कुछ छोरे
पनघट पर भी खुशियाँ चहकी 
गीतों के सुर झकझोरे 
कोयल की मिश्री सी बोली
सुनता हूँ नित थमी नहीं।।

तैयार खड़े अलंकार भी 
गल की कंठी सी जड़ दे
एक कबूतर करे गुटरगूँ 
सोच रहा खुशियाँ छड़ दे 
स्वर्णकार से कहता फिरता
एक अँगूठी तू घड़ दे 
बाग आम के सिमट चुके हैं 
छाया केवल यो बड़ दे
बूढ़े ठेरे खुश होते हैं 
आँखों में फिर नमी नहीं।।

महल बना चंदन उपवन में
सर्पों का देश निकाला
काव्य रचूं मैं वहाँ बैठ कर 
जहाँ दिखे तक्षक काला
वेद व्यास का सर्प बताये
रचे ग्रंथ करके चाला
समय मिले तो महाकाव्य सा
रच दूँ इब उसकी ढाला 
पाकिस्तान जुए में ले लूँ
खेल खिलाऊँ रमी नहीं।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : मौन सन्नाटा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
मौन सन्नाटा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 11/ 14

रातें अँधेरी सी 
कहे कुछ तो अखरता है
यह मौन सन्नाटा 
सदा आँचल पसरता है।।

काले हुए तन से 
नहीं दिव्यांग कहलाती
रोशन करे जग ये
जहाँ पर भी जले बाती
तन पर रखे छाला
सदा वो फूट भरता है।।

जब व्याधियाँ चीखें 
भला चुप कौन करवाता
ये भाग्य की भाषा 
सरल कर कौन समझाता
जब शून्य फिर आए
प्रथम कुण अंक धरता है।।

इस रात का आँचल 
भला कब जगमगाता है
मण्डल चमक तारा
तिमिर कब चीर पाता है
ये टूट कर बिखरे 
सदा विश्वास मरता है।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

भजन : उत्सव जयंती का : संजय कौशिक 'विज्ञात'


भजन 
उत्सव जयंती का
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 11/14

चोला चढ़ाने अब 
तुम्हारे भक्त आएंगे 
उत्सव जयंती का
मानते गीत गाएंगे।।

तुम अंजनी के सुत 
पवन के पुत्र कहलाते
तिथि चैत्र की पूनम
सदा ही हर्ष छा जाते
ये पान का बीड़ा 
तथा सिंदूर लाएंगे।।

हरना सभी के दुख
तुम्ही संकट हरण मोचन
हिय राम सीता नित
तुम्हारे यश हृदय लोचन
कल्याण करते हो
सदा तुमको मनाएंगे।।

करुणा करोगे जब 
मिटेंगी त्रासदी सारी 
हर्षित रहेगा मन
बने पहचान फिर न्यारी
सागर कृपा के तुम
तुम्हे अपना बनाएंगे।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत : परदेस की चिट्ठी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
परदेस की चिट्ठी
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 11/14 
परदेस की चिट्ठी
हमारे गाँव में आई
भूली नहीं अब तक
वही संदेश वो लाई।।

अक्षर नहीं टूटे 
न मसि भी है कहीं टपकी
सुंदर पता दिखता
लगाई खोल पर थपकी
लपकी जहाँ चिट्ठी
वहाँ देखें खड़े नाई।।

संबंध नदिया जो
निभाती सिंधु से अपना
लहरें मचलती सी 
यही तो देखती सपना
झूठी पड़ी बातें
उन्हीं की चोट पछताई।।

तारे बहुत रोये 
वहीं उपवन करें क्रंदन
खुशबू कहाँ खोई
वहाँ टोहे खड़े चंदन 
वंदन लिखा उसने 
हुई कुछ मौन घबराई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

गीत : सिक्का अहिंसा का : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत 
सिक्का अहिंसा का
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~ 11/14

लाठी उठा गाँधी 
कहाँ से आ गया भारत 
स्वाधीनता लाया 
तभी तो छा गया भारत।।

योद्धा लड़ा प्रतिदिन
सराहा देश सारे ने
निर्मित तिरंगा कर
दिया झण्डा सहारे ने
गौरे भगा मारे 
जिन्हें था भा गया भारत

राष्ट्रीय बापू बन
किया उद्धार दीनों का 
इतना कठिन कारज
लगा जब कुछ महीनों का 
सदियां खड़ी देखें
पदक सा पा गया भारत।।

प्राचीन तलवारें 
नहीं थी रक्त की प्यासी
हलचल बहुत ये थी 
हमारी मातृ क्यों दासी
सिक्का अहिंसा का 
उछाला ठा गया भारत।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : ये साँझ सिंदूरी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
ये साँझ सिंदूरी
संजय कौशिक 'विज्ञात

मापनी ~ 11/14

ये साँझ सिंदूरी 
हमारे द्वार ठहरी है 
धड़कन धड़कती सी
बनी ये श्वास गहरी है।।

कुछ सनसनाहट की
तभी गूँजे पनपती है
दौड़ी कहीं पुरवा
द्रुमों की ताल बजती है
पायल खनकती सी
लटकती आस बहरी है।।

बाती करे बतियाँ
लगे तब रात महकी सी
पूरे पहर नाची
करी फिर झात चहकी सी
बहकी कृपाणी सी
हृदय ने चोट पहरी है।।

कर प्रीत अवगुंठन
निकलती सी मटक जाती 
पल्लू सरकता कुछ 
कमर से वो झटक जाती
मंदी पवन बहती
करे स्मृति और जहरी है।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 1, 2021

नवगीत : व्यथा की परीक्षा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
व्यथा की परीक्षा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 20 

व्यथा की परीक्षा हृदय फूट रोये
गले रुंधते से दृगों ने छुपोये।।

तड़प वेदना की कहाँ हर्ष जानें 
कटे पल नहीं जब किन्हें वर्ष जानें
न संघर्ष जानें मचल टीस ढोये।।

विकट सी घड़ी के मकड़ जाल घेरे
निकल कौन पाए जहाँ काल घेरे
नई चाल घेरे भँवर सी डुबोये।।

झटक धैर्य तोड़े व्यथित मन टसकता
खटकती कथा की प्रथा से कसकता 
वहम जब चसकता द्रवित हो भिगोये।।

पवन कब सुखादे विरह में नमी है
सभी स्वप्न बिखरे यही इक कमी है 
दही सी जमी है दुखों ने बिलोये।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'