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Thursday, August 20, 2020

नवगीत : घना अँधेरा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
घना अँधेरा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/16 

टाल अराजक तत्व सिरों से
बना हृदय जो पाषाण करें
बांध उर्मियाँ फिर सागर की 
नलनील सेतु निर्माण करें।।

अन्तस् में खाई सी गहरी
छाया है घना अँधेरा ये
पाकर के अनजानी आहट
हृदय बैठता है मेरा ये
यूँ भय के मारे मरता मैं
ये मौन तीर क्या बाण करें।।

झूठ विकारों से आहत हिय
लगता अपने सच छूट गये
श्रेष्ठ चरित्र चित्र दिखलाकर
दर्पण भी कबके टूट गये
संस्कार मिटाकर संस्कृति के
यूँ रिश्तों का कल्याण करें।।

नित्य अराजक घात सहे हिय
बन चौमासे सा बरस रहा
एक झलक हो इंद्रधनुष की 
यह सोच खुशी पर तरस रहा
अंगार हाथ से पड़ा पाँव पर
ये चिमटे किसकी काण करें

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, August 10, 2020

नवगीत : ध्वज तिरंगा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
ध्वज  तिरंगा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~ 14/14

जो गगन को चूमता है
ध्वज तिरंगा वो हमारा 
फिर अमर कहता कथाएँ
गीत झण्डा गर्व प्यारा।।

गूँजता है धुन मधुर में
गीत का ये राग बनकर
शंख की ये नाद उत्तम
द्वीप सागर शौर्य तनकर
वीरता के घोष में ये
हिन्द का है आज नारा।।

चन्द्र मंगल से ग्रहों पर
ये लहरता देख चमके
सौर मण्डल जानता है
कार्य इसके खूब दमके
ये हवा से बात करता
देख तूफानी फुहारा।।

हस्त रक्षक वीर योद्धा 
प्राण तक अपनें गँवाते
वे मरे कब सब अमर हैं 
शौर्य तीनों लोक गाते
इक पयो की धार इसमें
जानते जिसने निहारा।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

चम्पकमाला छंद : संजय कौशिक 'विज्ञात'




चम्पकमाला छंद (वार्णिक छंद)
संजय कौशिक 'विज्ञात'

विधान~ {भगण मगण सगण+गुरु} 

{ 211  222 112  2 }
10 वर्ण, 4 चरण {दो-दो चरण समतुकांत} 
साधारणतया शिल्प समझने में यह मापनी ही पर्याप्त रहेगी। आइये उदाहरण के माध्यम से इसे समझते हैं...


देख तिरंगा सोच विचारे॥
लालकिला भी आज पुकारे।

ये किसने झण्डा फहराया।
कौन यहाँ है मानव आया॥

देख यहाँ थी खूब गुलामी।
और सदा थी झूठ सलामी॥

देश अभी आजाद हुआ है।
मानुष काँधे खास जुआ है॥

वो सदियों की शांत हिलोरें।
यूँ चमकी आँखें नम कोरें॥

पूछ रही दीवार यही क्यों। 
पीर सही जो पूर्व वही क्यों॥

खण्डित होता मौन दिखा है।
लालकिले पे कौन लिखा है? 

बाबर आका आज कहाँ हैं।
और नहीं अंग्रेज यहाँ हैं॥ 

ये फिर क्यों रोना दिखता है।
तंत्र प्रजा मोदी लिखता है॥

कौशिक मोदी जी फिर आये।
ये जनता देखो गुण गाये॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, August 9, 2020

नवगीत : परदेस गमन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
परदेस गमन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

चक्रव्यूह से फँसे पड़े अब
लाल यहाँ अभिमन्यु बने
चकाचौंध परदेश गमन की
दलदल जैसी सोच घने।।

1
पंख नहीं उन्मुक्त गगन वो
आज नीड से बतियाता 
इंद्रधनुष का ले आकर्षण
रंग अनेकों दिखलाता 
पंछी के कलरव गान कहें
नीचे लगते झाड़ चने

2
चोंच उठाती दानें कैसे 
आयु बहुत ही याणी सी
आँखों से बहता सा पानी
बात लगे पहचाणी सी
तरुवर के पत्तों ने ढाँपे
भला कहाँ पर देख तने।।

3
साँझ सिंदूरी लेकर आई
एक यथार्थ खड़ी डाली
चूजे ने कुछ पेट भरा फिर
पसरी तभी रात काली
उसे सुलाये माँ की लोरी
पड़ी चाँदनी पात छने।।

4
भोर खिली ले खुशियाँ आँचल
सूर्य किरण तम चीर खड़ी
निकल परिंदा रिक्त घोंसला
ममता विचलित हो सोच पड़ी
लाल अबोध घणे हैं बालक
निम्न ज्ञान की कीच सने।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, August 6, 2020

दोहा कैसे लिखें ? संजय कौशिक 'विज्ञात'

दोहा कैसे लिखें ?

आप सभी की बढ़ती मांग पर आज का विषय रखा गया है दोहा कैसे लिखें ? जी हाँ
आज मैं आपको बताने जा रहा हूँ कि दोहा कैसे लिखें ? 

 दोहा एक अर्द्धमात्रिक छंद है दो पंक्ति और चार चरण में कुल 48 मात्रा का छंद है अब दोहे 48 मात्राओं को इस छंद की दो पंक्तियों में 24/24 मात्रा करके दो पंक्तियों में विभाजित किया गया है। ये मात्राएं प्रत्येक पंक्ति में 13,11 की यति के साथ लिखी जाती हैं इसमें मुख्य सावधानी जो बरतनी पड़ती है वो ये है कि चारों चरण की 11वीं मात्रा लघु स्थापित करनी अनिवार्य है जिससे लय बहुत सुंदर तरीके से निखर कर आती है। और दूसरी सावधानी यह भी रखी जानी अनिवार्य होती है कि दोहे का कोई भी चरण जगण से प्रारम्भ नहीं किया जाना चाहिए जगण दोष दोहे की लय को कुछ इस तरह प्रभावित करता है कि दोहे की लय जगण आने से उस चरण में प्रारम्भ से अंत तक पकड़ में नहीं आती है इसी लिए जगण वर्जित सावधानी अवश्य रखनी चाहिए।
दोहे के शिल्प को यदि कुछ गहनता से समझने का प्रयास करें तो दोहे में कलन का महत्त्व अधिक होता है दोहे की लय के निर्बाधित प्रवाह के लिए दोहे को जगण की तरह यगण और तगण से भी अवश्य बचाना चाहिये। अब तक कि वार्ता में दोहे में बचना और बचाने की बात सुनकर अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं है अब मैं दोहे को सटीक और प्रवाह में उत्तमता के साथ लिखने की सरल सी विधि बताने जा रहा हूँ यदि इसका अनुकरण किया गया तो एक नवांकुर भी सहजता से ऊत्तम दोहा लिख पायेगा। क्योंकि यह प्रयोग सैकड़ों नहीं हजारों नवांकुरों ने अपनाया है और परिणाम स्वरूप आज वे अच्छे दोहाकारों में सम्मिलित हैं तो आइये देखते हैं दोहा की सरल विधि जिसमें बताया जाएगा कि क्या और कैसे लिखने से दोहा उत्तमता को प्राप्त करता है। इसे समझेंगे एक मापनी के माध्यम से हालांकि पहले ही स्पष्ट बता देना चाहूँगा कि दोहा वार्णिक छंद नहीं है जो किसी मापनी पर लिखा जाता हो परन्तु एक छोटी सी गहन समझ के लिये हम इसका प्रयोग समझने का प्रयास करते हैं 
22 22 212, 22 22 21 
2112 22 12, 12 12 2 21 

अब इस मापनी में आप पाएंगे कि दो मात्रा द्विकल 4 मात्रा चौकल का प्रयोग करते चलें जहाँ एक लिखा ग्यारहवें स्थान वाले एक को प्रत्येक चरण में अनिवार्यता के साथ लिख दें 
त्रिकल से यदि हम किसी चरण की शुरुवात करते हैं तो एक त्रिकल तीन मात्रा का शब्द उसके साथ ही लिख देंगे तो लय में वह षटकल जैसा व्यवहार करता है और निर्विघ्न निर्बाधित लय के साथ उच्चारण में आ जाता है या पंचकल यगण लिखने से लय अच्छी बनती है ये दोनों ही श्रेष्ठ युक्ति होती हैं उत्तम लय के लिए एक युक्ति और भी है त्रिकल के पश्चात 1 मात्रा लिख दें तो भी लय प्रवाह में अच्छी बन जाती है। विषम चरण अर्थात यति से पूर्व के चरण में अंत की दो मात्रा से पूर्व ग्यारहवीं मात्रा लघु लिखनी अनिवार्य है। और सम चरण का अंत गाल अर्थात गुरु लघु लिखना अनिवार्य है। विषम चरण का तुकांत नहीं मिलना चाहिये और सम चरण का तुकांत तुकबंदी मिलनी चाहिये यह तुक बंदी मिलनी अनिवार्य है। 
इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं 
नूतन से नूतन भले, उपजे हुए विचार।
मगर पुरातन का करो, नित्य सदा सत्कार।।
     यहाँ विचार और सत्कार की तुकबंदी मिली हुई है परंतु मध्य अर्थात यति से पूर्व भले और करो की तुकबंदी नहीं मिली है। आपको इसी प्रकार से दोहा लिखते हुए आगे बढ़ना है। विश्वास है इस नियम का और इस मापनी को देखते हुए आप सृजन करेंगे तो निःसन्देह उत्तम लय प्राप्त करते दोहे लिख सकेंगे। 
     अब बात है दोहे में लिखना क्या चाहिए ? दोहे में दो बिम्ब आपस में गूंथे हुए होने चाहिये और दोहे के कथन से भाव कामधेनु की तरह दुहता हुआ हो तो दोहा उत्तम कहा जायेगा। 
यहाँ हरियाणा की माटी के गंधर्व कवि स्वर्गीय नंदलाल जी का एक दोहा लेते हैं इसमें सरलता से समझ आ जायेगा 
पीली पतली कामनी, नहीं मानती रोष।
नारी के ये गुण कहे, घोड़ी के ये दोष।।
यहाँ नारी और घोड़ी दो प्रतीकात्मक बिम्ब लिए गए हैं एक के जो गुण हैं वही दूसरी के अवगुण हैं बस उत्तम दोहे में इसी प्रकार से दो बिम्ब होने अनिवार्य हैं उनका सम्बन्ध भी होना अनिवार्य है। विश्वास है आप सभी को यह चर्चा लाभान्वित करने वाली होगी तो मित्रों शुरू हो जाइये जो दोहा पर लेखनी चला रहे हैं प्रत्यक्ष आने वाली बाधा कमेंट में लिखें उसका भी समाधान और निदान किया जाएगा आज कि चर्चा को यहीं विराम देता हूँ ।

कुछ उदाहरण 

फेसबुक से ....
देख बिलखते लाल को, मात हुई बेहाल।
हृदय पटल चिपका चली,और चूमती गाल।।

झूला माँ झूला रही, डाल बाँह की झूल।
पलक झपकती नींद में, श्वास रही है फूल।।

कृष्ण चले गोपी बने, मतवाली सी चाल।
और कंठ से जा लगे, सखियाँ करें धमाल।।

बृज में नारी शिव बने, करते नृत्य कमाल।
गलती से साड़ी खुली, बदल गई फिर चाल।।

चंचल दृग तलवार बन, करें कठोर प्रहार।
सुंदर सी अनुपम किरण, हुई हृदय के पार।।

मैला सा ले भेष वो, दुर्गन्धित भरमार।
उड़ती ढेरों मक्खियाँ, देख पड़ा लाचार।।

डरे हुए कम्पित अधर, तीव्र हृदय की चाल।
भूकंपी झटके लगे, खड़ा भयानक काल।।

चंचल दृग तलवार बन, करें कठोर प्रहार।
सुंदरता अनुपम किरण, हुई हृदय के पार।।

शीतलता घट में रहे, शीतल उसका नीर।
भाव रखो शीतल मनुज, शांत चित्त बन धीर।।

मानवता के धर्म की, व्याख्या का ये मर्म।
धर्म मर्म दोनों कहूँ, करते रहना कर्म।।

मंदिर जाते हैं नहीं, ठेका जाते लोग।
बदल रहा परिवेश ये,बदल रहे हैं योग।।

ठेकों पर अब भीड़ है, सूने हरि दरबार।
मानव के ये गुण कहूँ, किसके दोष अपार।।

बदल रही अब सृष्टि है, बदले आज विचार।
मंदिर जाते लोग अब, ठेके भीड़ अपार।।

ठेका खुलते ही लगी, लम्बी एक कतार।
मंदिर भी सुनसान थे, कलयुग का संसार।।

रोली का होता तिलक, हिन्द लगाता रक्त।
आज स्वेद का जड़ दिया, शूरवीर ये भक्त।।

तिलक रक्त उज्ज्वल चमक, चित्र बदलते धीर।
आज स्वेद अर्पित किया,भाल लगाएं वीर।।

पावन एक सुगंध है, उठती गुग्गल नित्य।
भाव श्रेष्ठ उत्तम कहे, छंद बद्ध साहित्य।।

देख चकोरी देखती, नभ में अपना चंद।
प्रेम सभी के दें चमक, भले अधिक कुछ मंद।।

फिर भावों की लौ जली, ज्यूँ दीपक बिन तेल।
मात्र शेष अवशेष थे, पवन निभाती मेल।।

कविता भी कहने लगी, अपने से हालात।
आज कहाँ वो आ फँसी, जलती है दिन रात।।

कल तो रोटी भेंट की, और दिये उपहार।
आज श्रमिक का दिन नहीं, चर्चा है बेकार।।

उतर गया है अब यहाँ, दिन का श्रमिक बुखार।
कल थे जो राजा बने, आज वही लाचार।।

तालाबंदी नाम पर, करो मास इस बार।
भूख मांगती रोटियाँ, बस दे दे सरकार।।

बिना श्रमिक के ये दिवस, देख मई ये एक।
बन्द कार्य सारे हुये, भूखे श्रमिक अनेक।।

सूर्य चन्द्र दो नेत्र हैं, ज्ञान पुंज के मूल।
यही वेद कहते दिखें, उक्ति सूक्ति मत भूल।।

रात दिवस नित बीतते, गणना करते काल।
कौन समय के हैं गणक, कौन समझते चाल।।

सूर्य चन्द्र दो नेत्र हैं, ज्ञान पुंज के मूल।
यही वेद कहते सुनो, उक्ति सूक्ति मत भूल।।

घट नदिया के नीर में, अंतर समझें आप।
एक ठहर कर शांत है, दूजा करे अलाप।।

सुईं और तलवार में, बस इतना सा भेद।
तार-तार यह जोड़ती, वह करती विच्छेद।।

केसर की ये घाटियाँ, गुंजित इनमें मंत्र।
भाई चारा खिल रहा, महक रहा हर यंत्र।।

किसकी कैसे जाँच हो, घेर रहा नित रोग।
दूर रहो फिर बोल दो, ये है उत्तम योग।।

एक लाख की जाँच ही, नित करते हो आप।
जनसंख्या विस्फोट का, दूरी मंत्र अलाप।।

किसने सोचा था कभी, थम जाएगा काल।
कहूँ काल की चाल ये, तो किसका है जाल।।

देख समय का खेल ये, शोर हुआ है मौन।
चक्र समय का थम चुका, कारण पूछे कौन।।

गंगा यमुना नित करें, लोगों का उद्धार।
सरस्वती संगम सहित, तीर्थ स्वर्ग का द्वार।।

गंगा माता पावनी, शीतल जल की धार।
तीन लोक की गामनी, करती जो उद्धार।।

गर्म हवा लू बन बहे, तड़प उठी है सृष्टि।
छाँव नहीं है दूर तक, ढूँढ रही है दृष्टि।।

बहता सा ये जल कहे, रुको नहीं हे वीर।
काल चक्र से नित चलो, रखके मन में धीर।।

श्रेष्ठ कर्म की बात सुन, पार्थ हुए तैयार।
और महाभारत लड़ा, हुई विजय साकार।।

कर्म धर्म के ज्ञान से, गीता ग्रन्थ महान।
विश्व पटल पहचानता, ये है हिंदुस्तान।।

अर्जुन के गाण्डीव से, निकले जितने तीर।
देह भीष्म की चीरते, करते उन्हें अधीर।।

गीत रीत सब भूलके, कोयल है अब मौन।
बागों में उस गूँज की, व्यथा पूछता कौन।।

उजड़ गये हैं बाग अब, सब पंछी के नीड़।
कलरव उनका शांत है, खुशी मनाती भीड़।।

ॐ का उच्चारण करो, करता ॐ कल्याण।
वेदों का ये सार है, पढलो वेद पुराण।।

पंचाक्षर में रम रहा, तीन लोक का ज्ञान।
सम्भव हो तो नित करो, अक्षर ॐ का ध्यान।।

देखा काल कराल का, कोरोना का काज।
भूल गया संवाद सब, देश मौन है आज।।

राजा आज समाज सब, चिंतित हैं विज्ञात।
सूर्य चन्द्र के दृश्य बिन, होते हैं दिन रात।।

राम नाम के कारणे, मन ये हुआ अधीर।
हृदय द्रवित बहता रहा, दिखता नयनों नीर।।

रोग भोग लगता वहम, जोग सधे के बोल।
करके यूँ विषपान सा, रहे पयो वे घोल।।

उस को रोना तुम नहीं, जिसको रोता देश।
घर में बैठे बस रहो, मिट जायेगा क्लेश।।

बसते हैं जब हरि हृदय, डरने की क्या बात।
शत्रु प्रबल हो फिर भले, आठ पहर दिन रात।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'