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Thursday, November 12, 2020

नवगीत : देश की बिगड़ी दशा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
देश की बिगड़ी दशा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी  14/14 

व्यंजना भी रो रही है 
देश की बिगड़ी दशा पर
लेखनी फिर लिख रही है
मसि सुबकती सी कुशा पर।।

ये चलन कैसा हवा का 
गर्म झोंके फेंकती है
लू जलाती दिख रही है 
शाख पत्ते झोंकती है 
चांद की ये चाँदनी भी
शुष्क सी है आज ठहरी
हिय व्यथित से पीर सिसके 
टीस अन्तस् देख गहरी 
इक सुनामी दौड़ती है 
फोड़ती सी फिर दृशा पर।।

ये लहर कैसी उठी है
नित सुता चीत्कार गूँजी
ब्याज के लोभी सभी हैं
खो रहे अनमोल पूँजी
बेटियों को नोंचते हैं 
फेंकते है नालियों में 
निम्न पूजित सी दिखें अब
बेटियाँ नित गालियों में 
यूँ हृदय की वेदना भी 
बस सिसकती दुर्दशा पर।।

३ 
पल रहे कुत्ते घरों में 
धेनु आवारा पड़ी ये
और मैली देख गङ्गा
सोच चिंतन की घड़ी ये 
पर प्रशासन मौन धारे
मुख रहा कुछ फेर ऐसे 
जब करे मतदान जनता
फिर मरे क्यों कीट जैसे 
देख कर ये दृश्य जर्जर 
ज्योत भी रोती निशा पर।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, October 31, 2020

झांझरिया : संजय कौशिक विज्ञात

नवगीत
झांझरिया 
संजय कौशिक विज्ञात 

मापनी 16/14

शुष्क पात की झांझरिया ने 
शांत चित्त झकझोर दिया।।

उजड़े पन की टीस उठी कुछ
उपवन बहरे चिल्लाये
करुण क्रंदन करते करते
राग फूट कर घबराये

और रागनी भूली कोयल
जब सुनने का जोर दिया
शुष्क पात की झांझरिया ने 
शांत चित्त झकझोर दिया।।

शून्य समान बिता ये जीवन 
हलचल सारी भूला था
अतिक्रमण कष्टों का रहता
भूल श्वास दुख फूला था

रात अमावस की जब बीती
पूनम जैसा त्योर दिया।
शुष्क पात की झांझरिया ने 
शांत चित्त झकझोर दिया।।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, October 16, 2020

भूखी शिक्षा ; संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
भूखी शिक्षा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 8/10 

भूखी शिक्षा
बैठ गई पढ़ने।।

तख्ती सूखी
उसे याद घड़ियाँ
घड़ी कलम से
लिख बारह खड़ियाँ
खत जब नाचा
चाव लगा बढ़ने।।

उज्ज्वल शिक्षित
शिक्षा भी हर्षित
गाँव - गाँव में 
चर्चा में चर्चित
प्रथम रही है
अंक लगे चढ़ने।।

गर्व सोचता
ये क्षण हैं अपने
पूर्ण हुए सब
सच में ये सपने
देख हँसी फिर
शिक्षा निज गढ़ने।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, August 20, 2020

नवगीत : घना अँधेरा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
घना अँधेरा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/16 

टाल अराजक तत्व सिरों से
बना हृदय जो पाषाण करें
बांध उर्मियाँ फिर सागर की 
नलनील सेतु निर्माण करें।।

अन्तस् में खाई सी गहरी
छाया है घना अँधेरा ये
पाकर के अनजानी आहट
हृदय बैठता है मेरा ये
यूँ भय के मारे मरता मैं
ये मौन तीर क्या बाण करें।।

झूठ विकारों से आहत हिय
लगता अपने सच छूट गये
श्रेष्ठ चरित्र चित्र दिखलाकर
दर्पण भी कबके टूट गये
संस्कार मिटाकर संस्कृति के
यूँ रिश्तों का कल्याण करें।।

नित्य अराजक घात सहे हिय
बन चौमासे सा बरस रहा
एक झलक हो इंद्रधनुष की 
यह सोच खुशी पर तरस रहा
अंगार हाथ से पड़ा पाँव पर
ये चिमटे किसकी काण करें

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, August 10, 2020

नवगीत : ध्वज तिरंगा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
ध्वज  तिरंगा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~ 14/14

जो गगन को चूमता है
ध्वज तिरंगा वो हमारा 
फिर अमर कहता कथाएँ
गीत झण्डा गर्व प्यारा।।

गूँजता है धुन मधुर में
गीत का ये राग बनकर
शंख की ये नाद उत्तम
द्वीप सागर शौर्य तनकर
वीरता के घोष में ये
हिन्द का है आज नारा।।

चन्द्र मंगल से ग्रहों पर
ये लहरता देख चमके
सौर मण्डल जानता है
कार्य इसके खूब दमके
ये हवा से बात करता
देख तूफानी फुहारा।।

हस्त रक्षक वीर योद्धा 
प्राण तक अपनें गँवाते
वे मरे कब सब अमर हैं 
शौर्य तीनों लोक गाते
इक पयो की धार इसमें
जानते जिसने निहारा।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

चम्पकमाला छंद : संजय कौशिक 'विज्ञात'




चम्पकमाला छंद (वार्णिक छंद)
संजय कौशिक 'विज्ञात'

विधान~ {भगण मगण सगण+गुरु} 

{ 211  222 112  2 }
10 वर्ण, 4 चरण {दो-दो चरण समतुकांत} 
साधारणतया शिल्प समझने में यह मापनी ही पर्याप्त रहेगी। आइये उदाहरण के माध्यम से इसे समझते हैं...


देख तिरंगा सोच विचारे॥
लालकिला भी आज पुकारे।

ये किसने झण्डा फहराया।
कौन यहाँ है मानव आया॥

देख यहाँ थी खूब गुलामी।
और सदा थी झूठ सलामी॥

देश अभी आजाद हुआ है।
मानुष काँधे खास जुआ है॥

वो सदियों की शांत हिलोरें।
यूँ चमकी आँखें नम कोरें॥

पूछ रही दीवार यही क्यों। 
पीर सही जो पूर्व वही क्यों॥

खण्डित होता मौन दिखा है।
लालकिले पे कौन लिखा है? 

बाबर आका आज कहाँ हैं।
और नहीं अंग्रेज यहाँ हैं॥ 

ये फिर क्यों रोना दिखता है।
तंत्र प्रजा मोदी लिखता है॥

कौशिक मोदी जी फिर आये।
ये जनता देखो गुण गाये॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, August 9, 2020

नवगीत : परदेस गमन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
परदेस गमन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

चक्रव्यूह से फँसे पड़े अब
लाल यहाँ अभिमन्यु बने
चकाचौंध परदेश गमन की
दलदल जैसी सोच घने।।

1
पंख नहीं उन्मुक्त गगन वो
आज नीड से बतियाता 
इंद्रधनुष का ले आकर्षण
रंग अनेकों दिखलाता 
पंछी के कलरव गान कहें
नीचे लगते झाड़ चने

2
चोंच उठाती दानें कैसे 
आयु बहुत ही याणी सी
आँखों से बहता सा पानी
बात लगे पहचाणी सी
तरुवर के पत्तों ने ढाँपे
भला कहाँ पर देख तने।।

3
साँझ सिंदूरी लेकर आई
एक यथार्थ खड़ी डाली
चूजे ने कुछ पेट भरा फिर
पसरी तभी रात काली
उसे सुलाये माँ की लोरी
पड़ी चाँदनी पात छने।।

4
भोर खिली ले खुशियाँ आँचल
सूर्य किरण तम चीर खड़ी
निकल परिंदा रिक्त घोंसला
ममता विचलित हो सोच पड़ी
लाल अबोध घणे हैं बालक
निम्न ज्ञान की कीच सने।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, August 6, 2020

दोहा कैसे लिखें ? संजय कौशिक 'विज्ञात'

दोहा कैसे लिखें ?

आप सभी की बढ़ती मांग पर आज का विषय रखा गया है दोहा कैसे लिखें ? जी हाँ
आज मैं आपको बताने जा रहा हूँ कि दोहा कैसे लिखें ? 

 दोहा एक अर्द्धमात्रिक छंद है दो पंक्ति और चार चरण में कुल 48 मात्रा का छंद है अब दोहे 48 मात्राओं को इस छंद की दो पंक्तियों में 24/24 मात्रा करके दो पंक्तियों में विभाजित किया गया है। ये मात्राएं प्रत्येक पंक्ति में 13,11 की यति के साथ लिखी जाती हैं इसमें मुख्य सावधानी जो बरतनी पड़ती है वो ये है कि चारों चरण की 11वीं मात्रा लघु स्थापित करनी अनिवार्य है जिससे लय बहुत सुंदर तरीके से निखर कर आती है। और दूसरी सावधानी यह भी रखी जानी अनिवार्य होती है कि दोहे का कोई भी चरण जगण से प्रारम्भ नहीं किया जाना चाहिए जगण दोष दोहे की लय को कुछ इस तरह प्रभावित करता है कि दोहे की लय जगण आने से उस चरण में प्रारम्भ से अंत तक पकड़ में नहीं आती है इसी लिए जगण वर्जित सावधानी अवश्य रखनी चाहिए।
दोहे के शिल्प को यदि कुछ गहनता से समझने का प्रयास करें तो दोहे में कलन का महत्त्व अधिक होता है दोहे की लय के निर्बाधित प्रवाह के लिए दोहे को जगण की तरह यगण और तगण से भी अवश्य बचाना चाहिये। अब तक कि वार्ता में दोहे में बचना और बचाने की बात सुनकर अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं है अब मैं दोहे को सटीक और प्रवाह में उत्तमता के साथ लिखने की सरल सी विधि बताने जा रहा हूँ यदि इसका अनुकरण किया गया तो एक नवांकुर भी सहजता से ऊत्तम दोहा लिख पायेगा। क्योंकि यह प्रयोग सैकड़ों नहीं हजारों नवांकुरों ने अपनाया है और परिणाम स्वरूप आज वे अच्छे दोहाकारों में सम्मिलित हैं तो आइये देखते हैं दोहा की सरल विधि जिसमें बताया जाएगा कि क्या और कैसे लिखने से दोहा उत्तमता को प्राप्त करता है। इसे समझेंगे एक मापनी के माध्यम से हालांकि पहले ही स्पष्ट बता देना चाहूँगा कि दोहा वार्णिक छंद नहीं है जो किसी मापनी पर लिखा जाता हो परन्तु एक छोटी सी गहन समझ के लिये हम इसका प्रयोग समझने का प्रयास करते हैं 
22 22 212, 22 22 21 
2112 22 12, 12 12 2 21 

अब इस मापनी में आप पाएंगे कि दो मात्रा द्विकल 4 मात्रा चौकल का प्रयोग करते चलें जहाँ एक लिखा ग्यारहवें स्थान वाले एक को प्रत्येक चरण में अनिवार्यता के साथ लिख दें 
त्रिकल से यदि हम किसी चरण की शुरुवात करते हैं तो एक त्रिकल तीन मात्रा का शब्द उसके साथ ही लिख देंगे तो लय में वह षटकल जैसा व्यवहार करता है और निर्विघ्न निर्बाधित लय के साथ उच्चारण में आ जाता है या पंचकल यगण लिखने से लय अच्छी बनती है ये दोनों ही श्रेष्ठ युक्ति होती हैं उत्तम लय के लिए एक युक्ति और भी है त्रिकल के पश्चात 1 मात्रा लिख दें तो भी लय प्रवाह में अच्छी बन जाती है। विषम चरण अर्थात यति से पूर्व के चरण में अंत की दो मात्रा से पूर्व ग्यारहवीं मात्रा लघु लिखनी अनिवार्य है। और सम चरण का अंत गाल अर्थात गुरु लघु लिखना अनिवार्य है। विषम चरण का तुकांत नहीं मिलना चाहिये और सम चरण का तुकांत तुकबंदी मिलनी चाहिये यह तुक बंदी मिलनी अनिवार्य है। 
इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं 
नूतन से नूतन भले, उपजे हुए विचार।
मगर पुरातन का करो, नित्य सदा सत्कार।।
     यहाँ विचार और सत्कार की तुकबंदी मिली हुई है परंतु मध्य अर्थात यति से पूर्व भले और करो की तुकबंदी नहीं मिली है। आपको इसी प्रकार से दोहा लिखते हुए आगे बढ़ना है। विश्वास है इस नियम का और इस मापनी को देखते हुए आप सृजन करेंगे तो निःसन्देह उत्तम लय प्राप्त करते दोहे लिख सकेंगे। 
     अब बात है दोहे में लिखना क्या चाहिए ? दोहे में दो बिम्ब आपस में गूंथे हुए होने चाहिये और दोहे के कथन से भाव कामधेनु की तरह दुहता हुआ हो तो दोहा उत्तम कहा जायेगा। 
यहाँ हरियाणा की माटी के गंधर्व कवि स्वर्गीय नंदलाल जी का एक दोहा लेते हैं इसमें सरलता से समझ आ जायेगा 
पीली पतली कामनी, नहीं मानती रोष।
नारी के ये गुण कहे, घोड़ी के ये दोष।।
यहाँ नारी और घोड़ी दो प्रतीकात्मक बिम्ब लिए गए हैं एक के जो गुण हैं वही दूसरी के अवगुण हैं बस उत्तम दोहे में इसी प्रकार से दो बिम्ब होने अनिवार्य हैं उनका सम्बन्ध भी होना अनिवार्य है। विश्वास है आप सभी को यह चर्चा लाभान्वित करने वाली होगी तो मित्रों शुरू हो जाइये जो दोहा पर लेखनी चला रहे हैं प्रत्यक्ष आने वाली बाधा कमेंट में लिखें उसका भी समाधान और निदान किया जाएगा आज कि चर्चा को यहीं विराम देता हूँ ।

कुछ उदाहरण 

फेसबुक से ....
देख बिलखते लाल को, मात हुई बेहाल।
हृदय पटल चिपका चली,और चूमती गाल।।

झूला माँ झूला रही, डाल बाँह की झूल।
पलक झपकती नींद में, श्वास रही है फूल।।

कृष्ण चले गोपी बने, मतवाली सी चाल।
और कंठ से जा लगे, सखियाँ करें धमाल।।

बृज में नारी शिव बने, करते नृत्य कमाल।
गलती से साड़ी खुली, बदल गई फिर चाल।।

चंचल दृग तलवार बन, करें कठोर प्रहार।
सुंदर सी अनुपम किरण, हुई हृदय के पार।।

मैला सा ले भेष वो, दुर्गन्धित भरमार।
उड़ती ढेरों मक्खियाँ, देख पड़ा लाचार।।

डरे हुए कम्पित अधर, तीव्र हृदय की चाल।
भूकंपी झटके लगे, खड़ा भयानक काल।।

चंचल दृग तलवार बन, करें कठोर प्रहार।
सुंदरता अनुपम किरण, हुई हृदय के पार।।

शीतलता घट में रहे, शीतल उसका नीर।
भाव रखो शीतल मनुज, शांत चित्त बन धीर।।

मानवता के धर्म की, व्याख्या का ये मर्म।
धर्म मर्म दोनों कहूँ, करते रहना कर्म।।

मंदिर जाते हैं नहीं, ठेका जाते लोग।
बदल रहा परिवेश ये,बदल रहे हैं योग।।

ठेकों पर अब भीड़ है, सूने हरि दरबार।
मानव के ये गुण कहूँ, किसके दोष अपार।।

बदल रही अब सृष्टि है, बदले आज विचार।
मंदिर जाते लोग अब, ठेके भीड़ अपार।।

ठेका खुलते ही लगी, लम्बी एक कतार।
मंदिर भी सुनसान थे, कलयुग का संसार।।

रोली का होता तिलक, हिन्द लगाता रक्त।
आज स्वेद का जड़ दिया, शूरवीर ये भक्त।।

तिलक रक्त उज्ज्वल चमक, चित्र बदलते धीर।
आज स्वेद अर्पित किया,भाल लगाएं वीर।।

पावन एक सुगंध है, उठती गुग्गल नित्य।
भाव श्रेष्ठ उत्तम कहे, छंद बद्ध साहित्य।।

देख चकोरी देखती, नभ में अपना चंद।
प्रेम सभी के दें चमक, भले अधिक कुछ मंद।।

फिर भावों की लौ जली, ज्यूँ दीपक बिन तेल।
मात्र शेष अवशेष थे, पवन निभाती मेल।।

कविता भी कहने लगी, अपने से हालात।
आज कहाँ वो आ फँसी, जलती है दिन रात।।

कल तो रोटी भेंट की, और दिये उपहार।
आज श्रमिक का दिन नहीं, चर्चा है बेकार।।

उतर गया है अब यहाँ, दिन का श्रमिक बुखार।
कल थे जो राजा बने, आज वही लाचार।।

तालाबंदी नाम पर, करो मास इस बार।
भूख मांगती रोटियाँ, बस दे दे सरकार।।

बिना श्रमिक के ये दिवस, देख मई ये एक।
बन्द कार्य सारे हुये, भूखे श्रमिक अनेक।।

सूर्य चन्द्र दो नेत्र हैं, ज्ञान पुंज के मूल।
यही वेद कहते दिखें, उक्ति सूक्ति मत भूल।।

रात दिवस नित बीतते, गणना करते काल।
कौन समय के हैं गणक, कौन समझते चाल।।

सूर्य चन्द्र दो नेत्र हैं, ज्ञान पुंज के मूल।
यही वेद कहते सुनो, उक्ति सूक्ति मत भूल।।

घट नदिया के नीर में, अंतर समझें आप।
एक ठहर कर शांत है, दूजा करे अलाप।।

सुईं और तलवार में, बस इतना सा भेद।
तार-तार यह जोड़ती, वह करती विच्छेद।।

केसर की ये घाटियाँ, गुंजित इनमें मंत्र।
भाई चारा खिल रहा, महक रहा हर यंत्र।।

किसकी कैसे जाँच हो, घेर रहा नित रोग।
दूर रहो फिर बोल दो, ये है उत्तम योग।।

एक लाख की जाँच ही, नित करते हो आप।
जनसंख्या विस्फोट का, दूरी मंत्र अलाप।।

किसने सोचा था कभी, थम जाएगा काल।
कहूँ काल की चाल ये, तो किसका है जाल।।

देख समय का खेल ये, शोर हुआ है मौन।
चक्र समय का थम चुका, कारण पूछे कौन।।

गंगा यमुना नित करें, लोगों का उद्धार।
सरस्वती संगम सहित, तीर्थ स्वर्ग का द्वार।।

गंगा माता पावनी, शीतल जल की धार।
तीन लोक की गामनी, करती जो उद्धार।।

गर्म हवा लू बन बहे, तड़प उठी है सृष्टि।
छाँव नहीं है दूर तक, ढूँढ रही है दृष्टि।।

बहता सा ये जल कहे, रुको नहीं हे वीर।
काल चक्र से नित चलो, रखके मन में धीर।।

श्रेष्ठ कर्म की बात सुन, पार्थ हुए तैयार।
और महाभारत लड़ा, हुई विजय साकार।।

कर्म धर्म के ज्ञान से, गीता ग्रन्थ महान।
विश्व पटल पहचानता, ये है हिंदुस्तान।।

अर्जुन के गाण्डीव से, निकले जितने तीर।
देह भीष्म की चीरते, करते उन्हें अधीर।।

गीत रीत सब भूलके, कोयल है अब मौन।
बागों में उस गूँज की, व्यथा पूछता कौन।।

उजड़ गये हैं बाग अब, सब पंछी के नीड़।
कलरव उनका शांत है, खुशी मनाती भीड़।।

ॐ का उच्चारण करो, करता ॐ कल्याण।
वेदों का ये सार है, पढलो वेद पुराण।।

पंचाक्षर में रम रहा, तीन लोक का ज्ञान।
सम्भव हो तो नित करो, अक्षर ॐ का ध्यान।।

देखा काल कराल का, कोरोना का काज।
भूल गया संवाद सब, देश मौन है आज।।

राजा आज समाज सब, चिंतित हैं विज्ञात।
सूर्य चन्द्र के दृश्य बिन, होते हैं दिन रात।।

राम नाम के कारणे, मन ये हुआ अधीर।
हृदय द्रवित बहता रहा, दिखता नयनों नीर।।

रोग भोग लगता वहम, जोग सधे के बोल।
करके यूँ विषपान सा, रहे पयो वे घोल।।

उस को रोना तुम नहीं, जिसको रोता देश।
घर में बैठे बस रहो, मिट जायेगा क्लेश।।

बसते हैं जब हरि हृदय, डरने की क्या बात।
शत्रु प्रबल हो फिर भले, आठ पहर दिन रात।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, July 30, 2020

गजल : संजय कौशिक 'विज्ञात'



गजल 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

बह्र~ 2122 2122 212 

दिल नहीं लगता कहीं पर आज कल।
वक़्त का बदला है तेवर आजकल।

वो वकालत काम किसके आ रही
मारती जो सच यहाँ पर आज कल।।

फूंकती है लू बदन को जेठ की
खो गया बादल कहीं पर आज कल।।

बाग में तितली नहीं अब एक भी
और बिखरे हैं पड़े पर आज कल।।

काम धंधा भी जहाँ पर बंद है
देख कोरोना सभी घर आज कल।।

और फिर फूलों से बनती है कहाँ
बोलते हैं शूल अक्सर आज कल

बिक रहे अखबार देखो हैं सभी
झूठ की बुनियाद जिस पर आज कल।।

वो महल से झांकता नीचे रहा
जो खड़ा ऊँचे पे जाकर आज कल।।

शख्स वो जो ऊंट पे बैठे कभी
भौंकते कुत्ते हैं उस पर आज कल

एक बूढ़ी माँ तड़पती चल बसे
मिल सके बेटा कहाँ पर आज कल।।

वो नजर भी देख कौशिक झुक गई
जो फरेबों से रही तर आज कल।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

गीत : भारत माता : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत 
भारत माता
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~ 16/14

खण्ड खण्ड से खण्डित होकर 
रोई होगी भारत माता
रक्त प्रवाहित अंग भंगमय
सदा निभाती माँ का नाता
1
कभी हाथ कटता है माँ का
फिर कभी शीश पर वार बने
जिन हाथ सुईं दी तुरपन को
वे भूल उसे तलवार बने
पंद्रह बार कटी टुकड़ो में
कौन जोड़ सामर्थ्य दिखाता।।
2
किस जात धर्म का काम कहूँ 
या खुद्दारी का दोष कहूँ
सिंधु उर्मि सा मौन धारती
या फिर इसका संतोष कहूँ 
कितने ज्वालामुखी फूटते
कौन पूछने हालत आता।।
3
बलिदानों की गौरव गाथा
आज स्वतंत्र दिखे जो भारत
बेटी है लक्ष्मी सी इसकी
पुत्र करे हुतातमी आरत 
स्वार्थ तजे जो शीश चढाकर
आहुति हवन कुण्ड की लाता।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : तपस्विनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
तपस्विनी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~16/14

तपस्विनी बन धरणी तपती
सूर्य मंत्र कर उच्चारित।
सोम ओम भी रहे ताकते
तपे प्रेम पर आधारित।।

1
अस्तांचल से लेती भगवा
बादल प्रीत अगाध करे
नभमंडल का इंद्रधनुष भी
हिय में हर्ष अपार भरे
विद्युत कांति भी चमक दमकती
रहे मेघ से संचारित।।
2
मेघ मोर सा बना हृदय फिर
रवि से ही नित दिन करती
तारें लाखों निशा चमकती
ध्यान नहीं शशि का धरती
धरती को जो शीतल करता
करती नहीं इसे धारित।।
3
उषा काल की प्रथम किरण से
ज्ञान पुञ्ज गंगा निर्मित
रहे ताकती उन्हीं क्षणों से
अम्बर कुछ होता विचलित
अर्ध नेत्र हैं बंद धरा के
पलकें सागर सी वारित।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, July 4, 2020

नवगीत : क्या आना : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
क्या आना
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14

इस वर्षा का भी क्या आना
उमस बढ़ा कर चली गई
तपते तन पर पड़ती छींटे 
देख धरा फिर छली गई।।

रेत उड़ाते बांध नदी तट 
वो भी कुछ प्यासे-प्यासे
सूखी नदिया सूखी लहरें
कोविड से पलटे पासे
प्यास मिलन की अपने पन की
आज मृत्यु तक टली गई।।

तोड़ आस विश्वास यहीं से
विरह सहे फिर प्रेमी मन
अर्ध मिलन की अर्ध रात सी
पीर सहे वे चन्दन वन
मनभर की जब बात नहीं तो
और यातना पली गई।।

माटी भी महकी सी कहती
छेड़ धुनें फिर गीत वही
पवन महकती लहर रही सी
चितवन की कह रीत वही
हर्ष विषाद मध्य कुछ बहकी
कहे कमी सी खली गई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, June 26, 2020

तपस्विनी सी धरा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
तपस्विनी सी धरा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~16/14


तपस्विनी सी धरा तपे फिर 
ध्यान मगन है नभ मण्डल
मध्य भाल के केंद्र बिंदु में 
सुलग रहे हैं ज्यों बण्डल।।

शुष्क अंजली अर्ध्य चढ़ा कर
नित्य यहाँ पूजन करती
रक्त वाहिनी बनी नदी ये
रिक्त पड़ी बहती दिखती
और धूल की उठती खुशबू
मानो महका हो संदल।।

जेष्ठ मास भी बना तपस्वी
तपता रहता निशिवासर
मिले श्वास को सिद्धि सुधा कुछ
सोच रहा यह संवत्सर
मुरझाई सी खिले कहीं पर
आज प्रेम की वो डंठल।।

पद्मासन का मूर्ति रूप से
प्राणवायु प्राणायामी
पूरक कुम्भक रेचक करती
नित्य निरन्तर आयामी
मेघ भृकुटि से तने खड़े फिर
सूर्य चन्द्र से हैं कुण्डल।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, June 20, 2020

योग दिवस : संजय कौशिक 'विज्ञात'


योग दिवस 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

अनन्द छंद

विधान~[ जगण रगण जगण रगण+लघु गुरु]
(121   212   121  212 12)
14 वर्ण,4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत]

करें प्रयोग योग जो रहें निरोग हैं ।
सहे वियोग लोग भोग संग रोग हैं ।।
 
न धारणा बिना शरीर साधना रहे ।
सुयोग ब्रह्मचर्य तेज ये बना रहे ।।

प्रसार खींच कीजिये न प्राण वायु का ।
विशेष तथ्य प्राण वायु सार आयु का ।।

प्रभात में प्रणाम सूर्य नित्य कीजिये ।
हँसें सदैव जोर से उमंग लीजिये ।।

शरीर स्वस्थ जो रहे सहस्र काम हों 
प्रमेह रक्त चाप और क्यों जुकाम हों

दिखो जवान हृष्ट पुष्ट वृद्धता न हो ।
लगे निखार आपके ललाट पे अहो!

अनंत चेतना सुझाव आत्म गूढ़ से । 
पढ़े लिखे न मानते जवाब रूढ़ से ।।

विशुद्ध योग मूल लक्ष्य ज्ञान मान लो ।
प्रभाव ध्यान से बढ़े बहाव जान लो ।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, May 8, 2020

नवगीत : लहर पावनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
लहर पावनी 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14

घुमा केश की गुंथित वेणी
लहर पावनी मुस्काई
हिमालय सी शीतलता ले
वेग सहित मिलने आई।।

1
अधर खिलाये रतनारे से
गुड़हल भी लज्जित होते
भ्रमर बाग के देख ताजगी
स्वयं वहाँ संयम खोते
चपल चंचला कांति दमकती
दसन अनारी हर्षाई।।

2
यौवन का रस भरा कलश में
हर धड़कन से कुछ छलके
दृश्य मुग्ध मन विचलित पलकें
सुंदरता ऐसी झलके
भेदे तीर कमान निशाने
भौंह हिलाती तरुणाई।।

3
सूर्य साँझ का बैठ भाल पर
दमक कांति विद्युत देता
नेत्र अनंत चमक तारे से
नभ मण्डल इनसे लेता
राजा काम तीर से मूर्छित
परी खड़ी जब लहलाई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, May 7, 2020

नवगीत : चतुरंगिणी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
चतुरंगिणी 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~16/14


मौन गूँजते मन आँगन में
कंपित से भयभीत हुये
चतुरंगिणी पड़ी है सेना
अश्रु नेत्र के रीत हुये।।

1
ढेर अठारह लगे पड़े हैं
लाखों की यह बात करे
दिवस सूर्य को लेकर डूबा
अँधियारी सी रात डरे
उल्लू बोल रहे महलों में
कैसे काज पुनीत हुये।।

2
सुबक द्रौपदी ठहरे. सुबके
दसों दिशायें थी काली
चिता जले. चिंघाड़े हाथी
उनकी भी खुशियाँ खाली
काल बली से करें याचना
अंतिम क्षण नवनीत हुये।।

3
एक युगी वे रातें कटती
दिन के तो क्षण कब दिखते
व्यास प्रभो की अनुकम्पा सब
नित्य निरन्तर जो लिखते
छंद यथार्थ खड़े से टसकें
और बंध सब गीत हुये।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, May 6, 2020

नवगीत : पस्त हुआ संयम : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत
पस्त हुआ संयम 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/16

पस्त हुआ संयम हरबारी
मौन लगा फिर देख खटकने 
बिम्ब मुकुर हिय सौ-सौ चमकें
आहत पाकर लगे चटकने।।

धीर वीर का अनुपम गहना
शौर्य पराक्रम सब बिखरा सा
रूप सलौना करके खण्डित
चला गया था जो निखरा सा
रूप वही सौंदर्य निराला
और चमक को लगा झटकने।।

इस काल चक्र की भिन्न नियति 
पाषाणी सी किलकार करे
कर्म धर्म के भेद बताकर
तोल तराजू व्यवहार करे
किसको कैसे कब ठगना है
खेल खेलता लगा पटकने।।

खिन्न हुआ मन शूल क्षणों में
रक्तिम अन्तस् पीर उगलता
बहता दिखता इन आँखों से
भीतर लावा एक सुलगता
पाकर खुशियों का पतझड़ सा
लगा कष्ट विष आज गटकने।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : शब्दों का मधुबन : संजय कौशिक 'विज्ञात



नवगीत 
शब्दों का मधुबन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~~ 16/14 

कोरे पृष्ठों पर कोरी सी
नित्य पढ़े कविता ये मन
हर्षित हिय के इस आँगन में
गूँजे शब्दों का मधुबन।।

छंद धार का बहना अविरल
प्राण तत्व का सार बना
भाव बिखेरें बीज खुशी के
जिनसे उपवन हरा घना
बैठ इसी हरियाली में फिर
राहत पाता है ये तन

कल्पित मंच निराला बनके
पाठ नई कविता कहते
कितने हुए बड़े कवि न्यारे
और विकट पढ़ते रहते
भंग हुई लय मुझे बताकर
सिद्ध करें उससे अनबन

बिम्ब पंत से ढूँढ ढूँढ कर
छायावादी शिल्प गढ़ा
साहित्य शुद्ध प्रस्तुति देकर
उनका उत्तम भाव पढ़ा
हिन्दी तत्सम तद्भव पढ़के
स्मरण करें अपना बचपन

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, May 5, 2020

नवगीत : खिलखिलाई रात : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
खिलखिलाई रात
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 14/12 

पाश आलिंगन बँधा फिर
स्पर्श चुम्बन जड़ गया
रात हँस कर खिलखिलाई
स्वप्न कोई अड़ गया।।

लौहबानी सी पिघलती 
दे महक गूगल पृथक
आस चिंगारी दहकती
जो निरंतर सी अथक
और धड़कन तीव्र थी कुछ
नेक बनता धड़ गया।।

मोम सा बन तन बहा कुछ
ले तपिश कुछ श्वास की
बाँह लोहे सी कठोरी 
भूख पहली ग्रास की 
वो महक पाटल बना फिर 
गंध बनकर झड़ गया।।

शशि चकोरी बावले से
हाल उससे थे अधिक
प्रेम की मूरत बने वो
थे नहीं विचलित तनिक
पा समर्पण चांदनी का
वो अचानक पड़ गया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : आकृति : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
आकृति
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~~ 16/16


श्याम श्वेत सी दृग में आकृति
उठती कोई हूक उठाकर।
सूना जीवन देख रहा है
आज हृदय का पटल झुकाकर।।

ऋतुएं सारी रस बिन आती
उल्लास पर्व के छूट गये
और विवेकी अन्तस् मन के
हर्षित क्षण सारे लूट गये।
रूठ गये अपने जब सारे
विचलित बाती दीप बुझाकर

राग मल्हारी भूले बैठे
जब पगडण्डी पर चोट लगे
आना जाना होता बाधित 
मिटती खुशियों की ओट लगे
सोने में खोट लगे पिलता
मोल करें क्या भाव टिकाकर

सांकल ताले बन्द पड़े से
और सभी सोची अड़चन 
बदरा काली घिर कर आई
करती बूंदों से वो अनबन
कटी प्याज की खुशबू यादें
ठहर गई आँखों में आकर

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 30, 2020

घनाक्षरी : विज्ञात घनाक्षरी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


घनाक्षरी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

1
विज्ञात घनाक्षरी
शिल्प : विज्ञात घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में 3 गुरु आते हैं। इसमें विज्ञात छंद की मापनी 211 212 22 प्रत्येक यति के साथ निभाई जाती है जिसमें  (पद सनुप्रास) प्रत्येक यति पर अन्त्यानुप्रास की भांति अनुप्रास इसे पद सनुप्रास कहते हैं। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं। 

उदाहरण :- 

विज्ञात घनाक्षरी 

देख यहाँ वहाँ सारी, और कहाँ कहाँ न्यारी,
बात लगे सभी प्यारी, कोयल ये बुलाती है।
राग बजे सुरीली वो, कण्ठ सजे छबीली वो,
ताल लिये सजीली वो, ज्ञान यही ढुलाती है।
लेख कहे विधाता सा, प्रेम बढ़े रिझाता सा,
मोहन ये सुनाता सा, सीख वही सुनाती है।
सिद्ध यही प्रभावी है, और कहे छलावी है, 
शांत हुई भुलावी है, घाव सभी दिखाती है।

उदाहरण 2 

विज्ञात घनाक्षरी

भूल गया सभी बातें, खेल रही वही घातें, 
जाग चुका कई रातें, नींद मुझे नहीं आई।
रोग कहे वही प्यारा, छंद नहीं बना न्यारा, 
टूट गया हिये हारा, पीर मिले वही गाई।।
ज्ञान गया कहीं खोया, खिन्न हुआ तभी रोया, 
कष्ट यही सदा ढोया, एक खुशी नहीं पाई।
कूप बना खड़ा देखा, और वहाँ पड़ी रेखा,
नेत्र पढ़ें कहाँ लेखा, देख नहीं फटी काई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

2
मनहरण घनाक्षरी
शिल्प: मनहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,7 वर्णों पर या 16,15 पर यति होती है इसके अंत में एक गुरु अनिवार्य होता है (अर्थात इससे पूर्व एक लघु और उससे पूर्व एक गुरु के माध्यम से ही 1 गुरु स्पष्ट किया जा सकता है इसमें कुल वर्णों की संख्या 31 होती है। 

उदाहरण 

मनहरण घनाक्षरी 

अष्ट वर्ण तीन बार, सप्त वर्ण लिखो फिर, 
इकतीस अक्षर ये, तोल लो घनाक्षरी।
लीखिये द्विवर्ण चार, यति आये तीन बार, 
द्विवर्ण, त्रिवर्ण दो ले, घोल लो घनाक्षरी॥
*मनहरण* निराला, जम के ये पढ़ा जाये, 
सवैया का परिवार, खोल लो घनाक्षरी।
अंत एक गुरु जँचे, देख पाँच मात्रा पूर्व, 
चार पद चार तुक, बोल लो घनाक्षरी॥ 

3
रूप घनाक्षरी
शिल्प: रूप घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है इसके अंत में गाल (21) वर्ण अनिवार्य होता है इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं।

उदाहरण 

रूप घनाक्षरी

कोयल की कूक प्यारी, लगती है मनोहारी,
पंचम में स्वर गूँजे, चहुँ दिश सब राग।
फाल्गुनी के रंग उड़े, और टूटे मन जुड़े,
कलरव ऐसा छाया, महके हैं देख बाग।
यौवन उमंग भरा, और प्रेम ढंग भरा,
समझ न आया कुछ, रंग का ये देखो दाग।
टूट जाये नींद तभी, जागे देखे लोग सभी,
कृष्ण की ये सखियाँ हैं, इनका ही ये है फाग।

4
जलहरण घनाक्षरी 
शिल्प: जलहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है, इसमें 16,16 वर्णों पर भी यति आती है, इसके चरणान्त में दो लघु अनिवार्य होते हैं, इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं।

उदाहरण

जलहरण घनाक्षरी 

कोरोना के लिया चित, राज काज देखो नित,
भारत ये करे अब, भारती की जय-जय।
ताला बंदी देख फिर, सबके ही मौन सिर, 
देश सारा एक कह, आरती की जय-जय।।
उठती उमंग मन, और ले हिलोर तन, 
लड़ रहे युद्ध सब, मारती की जय-जय।
तन की उधारी सुन, बज रही श्वास धुन,
प्राण महा प्राण यह, धारती की जय-जय।।

5
जनहरण घनाक्षरी
शिल्प: जनहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,7 पर यति होती है। 30 वर्ण लघु  और 1 वर्ण गुरु मात्रा भार सहित कुल 31 वर्ण होते हैं। चरणान्त में एक वर्ण गुरु (2) अंत में होता है

उदाहरण 

जनहरण घनाक्षरी 

नयन टपक कह, मन धक धक रह, 
विषय अचल सब, पल-पल चलते।
खटक चटक गढ़, प्रणय चलन पढ़, 
वरण कथन कह, यह कब टलते।।
पर अब यह वह, रह-रह सब सह,
अन बन घर-घर, सब कह खलते।
गरज बरस तर, छल मन भर कर, 
सच कह वह रच, घट-घट छलते।।

6
डमरू घनाक्षरी 
शिल्प: डमरू घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 पर यति होती है, प्रत्येक वर्ण बिना किसी लघु, गुरु मात्रा के लघु (1) होते है। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं।

उदाहरण

डमरू घनाक्षरी 

पनघट चल कर, अब चल घट भर,
जन कह सब यह, मत बन नटखट।
नटखट यह पथ, चल चढ़ अब रथ, 
जल भर डट कर, मत कर खटपट।।
खटपट कर हल, मत रख वह बल, 
बढ़ कर मन फट, बढ़ रह चटपट।
चटपट सह बच, सत मय लय रच, 
अब बढ़ कर चल, यह कह पनघट।।

7
विजया घनाक्षरी 
शिल्प: विजया घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है। इसके  चरणान्त में लघु गुरु (12) या नगण (111) वर्ण होते हैं (पद अनुप्रास ) होते हैं। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं 

उदाहरण

विजया घनाक्षरी 

नेत्र विचलित हुए, बहे तो द्रवित हुए
सोये जागे नित हुए, स्वप्न सब सँवारते।
कुंठित सा रोग दिखे, दृश्य यही सर्व चखे, 
कितनी ही बात रखे, ये आंखों में निहारते।।
भूखी शुष्क पिपासित, आँखें बोलती विदित, 
और यही सुवासित, इशारों में उबारते।
कौशिक ये रोग वहीं, दिखता ही नहीं कहीं, 
छुप-छुप देखो यहीं, भाव भर पुकारते।।

8
कृपाण घनाक्षरी
शिल्प : कृपाण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में गाल अर्थात गुरु लघु आते हैं।  (पद सनुप्रास) प्रत्येक यति पर अन्त्यानुप्रास की भांति अनुप्रास इसे पद सनुप्रास कहते हैं। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं। 

उदाहरण 

कृपाण घनाक्षरी

शूरवीर स्वाभिमान, शंख नाद का ले ज्ञान, 
उनका ही अभिमान, यह जय हिंदुस्तान।
शौर्य शक्ति का विधान, सारे विश्व को है भान, 
नहीं कोई अनजान, तिरंगे का जय गान।।
काल करे अभिमान, उसका भी खींचे ध्यान 
शौर्य के हैं प्रतिमान, महाकाल से जवान।
माटी के है ये किसान, वायु से हैं गुणवान, 
साफ जल जैसी शान, सीमा के ये भगवान।।

9
हरिहरण घनाक्षरी 
शिल्प: हरिहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में दो लघु पद सनुप्रास होते हैं इसमें वर्णों की संख्या 32 होती है 

उदाहरण

हरिहरण घनाक्षरी

कविता का सार सुन, भाव व्यवहार सुन,
हिय की पुकार सुन, करे जो प्रहार सुन।
करूणा का वार सुन, और कहूँ प्यार सुन, 
कष्ट का ये हार सुन, शौर्य पुष्प धार सुन।।
नवधा बहार सुन, छंद अलंकार सुन, 
ज्ञान का भण्डार सुन, तुक का आधार सुन।
श्रोता ले उचार सुन, मंच की हुँकार सुन, 
आचार विचार सुन, कवि का आभार सुन।।

10
सूर घनाक्षरी 
शिल्प: सूर घनाक्षरी में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है, इसके चरणान्त में लघु (1) या गुरु (2)  कोई भी वर्ण आ सकता है। इसमें वर्ण संख्या 30 होती है 

उदाहरण 

सूर घनाक्षरी

मजदूरों का है काल, भूख प्यास का है जाल, 
देख सारे हैं बेहाल, फँस रो रहे हैं।
एक मई का दिवस, आज भी रहे तरस, 
अब और कर बस, आँसूं यूँ बहे हैं।।
कष्ट में हैं प्राण आज, बिन अन्न जल काज,
कोई सुन ले आवाज, इतना कहे हैं।
रोता दिखे परिवार, मौन हुई सरकार, 
इनका है क्या आधार, कष्ट जो सहे हैं।।

11
देवहरण घनाक्षरी 
शिल्प: देवहरण घनाक्षरी में 8,8,8,9 वर्णों पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में 3 लघु (111) नगण वर्ण अनिवार्य होता है। इसमें कुल 33 वर्ण होते हैं

उदाहरण 

देवहरण घनाक्षरी

यहाँ वहाँ जग सारा, ढूँढ- ढूँढ मन हारा, 
श्याम धणी एक प्यारा, मत द्वारे-द्वारे भटक।
चाहिये न कुछ और, भाव ये कहें विभोर, 
तीन लोक मचा शोर, लीले की है प्यारी लटक।।
जीवन ये नाम करूँ, सखा फिर क्यों मैं डरूँ, 
खुशी-खुशी झोली भरू, लगी है मुझे ये खटक।
कौशिक सुनेंगे टेर, करेंगे जरा न देर, 
कटेंगे ये सब फेर, सारी ये मिटेंगी अटक।।

12
कलाधर छंद / कालधर घनाक्षरी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

शिल्प: आज वार्णिक दण्डक छंद घनाक्षरी में विशुद्ध घनाक्षरी देखते हैं। गुरु लघु की पंद्रह आवृति और अंत में एक गुरु।अर्थात 2 1×15 तत्पश्चात एक गुरु।इस प्रकार 31 वर्ण प्रति चरण। उम्मीद है यह साधारण शिल्प समझ में आगया होगा। मापनी और गण व्यवस्था से भी पुनः समझते हैं ....
मापनी 
21212121, 21212121, 21212121, 2121212
गण : 
रगण जगण रगण जगण रगण जगण रगण जगण रगण जगण+गुरु वर्ण 


उदाहरण :

कलाधर घनाक्षरी

हिन्द देश है महान, विश्व में बड़ा प्रचार, 
            योग, वेद, सांख्य, ज्ञान, ध्यान आन जान लो।
मंत्र- तंत्र के प्रभाव, यंत्र के बहाव देख, 
                       घूमता दिमाग देख, वेग जोर मान लो॥
पंच तत्त्व के विवेक, चीर फाड़ काट नित्य 
                     बूटियाँ कमाल दूध, नीर आज छान लो।
हस्त-रेख, सूर्य-केतु, मेष-मीन, भूमि चाल,
                    शून्य खोज से असंख्य, ढूँढते विधान लो॥ 

                             संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, April 25, 2020

गीत : अणिमा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत 
अणिमा
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

प्रचण्ड रूप देख अणिमा का
अणु कोरोना हार चलेगा।।
सुरसा सा मुख रोग खोलता
मानव घर में बैठ टलेगा।।

1
अणिमा साधक बहुत पुराने
अणु से छोटे बन जाएंगे
साधक जो बजरंग बली के
यही कला सब अपनाएंगे
भीड़ दूर की बात हवा है
निकट उन्हें नर नहीं खलेगा

ये देख च्यवन ऋषि के वंशज
निर्माण प्राश वो कर देंगे
कोप वृद्धता भी डर भागे
हाल पूछ इससे भी लेंगे
सौ रूप बहुरूपिया बदले 
एक नहीं जन आज छलेगा।।

संजय कौशिक विज्ञात

गीत : कोरोना का बखेड़ा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत
कोरोना का बखेड़ा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

करोना का बखेड़ा।
प्रकृति का थपेड़ा।। स्लोगन 

स्थाई 👇
कोरोना का देख बखेड़ा।
कुदरत हँसती मार थपेड़ा।।

1
मानव निर्मित कहर कहूँ या
एक प्रयोग पड़ा है उल्टा
भूखा मानुष बना भेड़िया
जिसने जीवन सारा पल्टा
मांस जीव का खाता नित ये
छोड़ रहा है लड्डू पेड़ा।।

2
हाथी ताण्डव करता दिखता
सूंड फँसी हो चींटी मानो
उस चींटी से भी लघु अणु से
विश्व चकित सा दिखता जानो
और दवा सब खोज रहे हैं
जीवन संचित ज्ञान उधेड़ा।।

3
बंद घरों में सभी आदमी
सहमे से हैं डरे हुए से
सशक्त अणु ये अजगर जैसा
कंपन से सब भरे हुए से
गाँवों में अवसर पाते ही 
धोक चले सब अपना खेड़ा।।

4
लौट चुके उस पगडण्डी पे
गाँवों का आधार रही जो
पुत्र-पिता पति भाई पाये
हँसी खुशी परिवार रही जो
रत्न प्राप्त से राग मिलन का 
कौशिक मन वीणा ने छेड़ा।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 23, 2020

नवगीत : व्यथित व्यंजना : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
व्यथित व्यंजना
संजय कौशिक 'विज्ञात'

इक व्यथित सी व्यंजना फिर 
देख हँसती आज दर्पण।।
1
और वीणा आज फिर से 
इस तरह खण्डित हुई सी
तार सारे दिख रहे हैं
मौन स्वर मण्डित हुई सी 
वंदना के श्लोक गूँजे
भाव पूजा श्रेष्ठ अर्पण।।
फिर अधर जब मौन बोले
शब्द वो गुंजित हुआ सा
दूर अन्तस् से छँटा वो
छा रहा था जो कुहासा
भावना बिन ताल ठोंकी
राग में घुलता समर्पण।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, April 20, 2020

गीत : ॐ निनाद : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
ॐ निनाद 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/16

ॐ निनाद में शून्य सनातन 
है ब्रह्माण्ड समस्त समाहित।।
सत्य विवादित तूल दृष्टि से 
उच्च बोध दे शिव ही माहित।।

1
प्रात साँझ विज्ञात शिवम् सम 
आदि शक्ति कर वर्णन कहते।
कमल नालमय ब्रह्मा निर्मित
अग्रिम हर मन्वन्तर रहते।।
चतुर्युगी संरचना बनती
तत्व प्रतिष्ठित एक हिताहित।

2
तीन लोक कल्याणी माया
पंचाक्षरमय शोभित शोधित
नित्य निरन्तर काल जपित ये
धरणी पर होती अवरोधित
साक्ष्य गुरुत्वाकर्षित अक्षर
उर्मि सिंधु से नित ही वाहित

3
किंचित लेश मात्र भी विचलित
दृश्य नहीं जो करते धारण
जन्म मृत्यु भय मुक्ति युक्ति ये
पार करे सहयोगी तारण 
और उभारण हार नाद ये
रोम-रोम में शिवम् प्रवाहित

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, April 19, 2020

गीत : भारत की पहचान : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत
भारत की पहचान
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

नैतिकता आदर्श हमारे
भारत की पहचान बने।
पार्थ धनुर्धर चन्द्रगुप्त से
शिक्षित श्रेष्ठ महान बने।

1
आर्य भट्ट कर खोज शून्य की
विश्व पटल को चौंकाया।
मानवता का सभ्य पाठ भी
भारत ने ही समझाया
श्रद्धा भाव से शिल्प गढ़ा जब
पत्थर भी भगवान बने।

2
वेद ज्ञान से शब्द फूटते
वीणा की झंकार हमीं।
चांद कल्पना पाँव धरे वो
दिव्य ज्ञान का सार हमीं।
और जगत के रक्षक बनकर
हम ही शक्ति विधान बने

3
सदियों की वो पराधीनता
उसको हमने फूंक दिया।
दहकी ज्वाला हवन कुण्ड सी
हवि मानव दे यज्ञ किया।
जलियांवाला जैसे लाखों
इस भूमि पर श्मशान बने

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, April 18, 2020

नवगीत : मचलती उर्मियाँ : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
मचलती उर्मियाँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14

उर्मियाँ घूँघट हटाकर
फिर मचलती आ रही हैं।
और चिंतन में मनन से
आँख ज्यादा ही बही हैं।।

तिलमिलाहट थी अनेकों
वायु में आक्रोश छाया।
वो किनारा छोड़ भागी
प्रीत का अवशेष पाया।
बोलती किससे बता वो
बात बिन बोले कही हैं।।

2
हो समाहित जल समाधी
छोड़ती अस्तित्व अपना।
सीप मोती मणिकों के 
थाल छोड़े और सपना।
वो वहीं पर डूबती सी
देख अब जीवित नही हैं।।

लाश अपनी सी उठाकर
मध्य सागर वो चली है।
पीर सागर जनता है
जो गई अब फिर छली है।
मेघ आकर जब मिला तो
फिर लगा जीवित सही हैं।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, April 17, 2020

नवगीत : हँसती व्याधियाँ : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
हँसती व्याधियाँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14

व्याधियाँ हँसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।
वो गगन से ताकता है
चंद्रमा भी और आगे

1
नभ सितारे जल रहे हैं
चन्द्र अंगारा बना क्यों।
टूटता सा गिर रहा है
ये शिखर इतना घना क्यों
मार्ग सीधा मोड़ लेकर
संकरी वो आज लागे

2
रो रही सी चांदनी है
कौन क्रंदन सुन सकेगा।
ये बयारें तिलमिलाई
कौन इनको टोक लेगा।
सागरों की उर्मियों को
बाँधते हैं देख धागे

3
स्वेद से किरणें पृथक हो
आज आभा खो चुकी हैं
धड़कनें बाधित हुई सी
भागती सी कुछ रुकी हैं
ये हृदय की बांसुरी के
कोकिला स्वर आज त्यागे

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 16, 2020

नवगीत : सृष्टि का विस्तार : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सृष्टि का विस्तार 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14 

सृष्टि का विस्तार होगा
रिक्तपन अब फिर जरूरी।
काल नदिया चीखती सी
बात कहती सब अधूरी।।
1
और भावी फिर करेगी
मौन से संवाद कितने
नाद देखी चुप खड़ी सी
गूँजते है शब्द इतने
शंख ध्वनि अब चीर देगी
दूर तक की शांति पूरी।
उर्मि भी अब कुछ ठहर कर
सिंधु को आभास देती
नीर ये सोखा गया सा
सोच जब हलचल न लेती
ये प्रवाहित सी हवा भी
छोड़ती सी आज धूरी
3
तत्व सारे शोधने हैं
आज जीवन सोच ले जो
और खालीपन सजाकर
कष्ट तन से नोच ले जो
आत्म मंथन आज नियमित
बुद्धि सोचे ये विदूरी
4
शुद्ध हो वातावरण ये
हवि हवन में दें अगर सब
फिर धुँआ पावन उड़ेगा
गाँव बस्ती से नगर सब
आरती की घण्टियाँ भी 
श्वास गुंजित बन कपूरी

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, April 13, 2020

नवगीत : कोप : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
कोप 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~ 16/14 


एक कोप कोरोना बनकर
खेल रहा है आँख मिचौली।
घूँघट बदली का है पतला
यही सूर्य से धरती बोली।।

1
नूतन काल सृष्टि परिवर्तन
उपवन भी सब महके महके
वातावरण हुआ आतंकित
भ्रमर भ्रमित हैं बहके बहके
एक आँख की कानी गोरी
बन्द करी कब आँखें खोली।।

अवगुंठन में बंद कली सब
तड़प रही सी बंधन पाकर 
फूलों पर भी देख आवरण
बाग खड़ा विस्मित सा आकर
गाकर सारे राग रागनी
वीणा के स्वर ढूंढे टोली

3
बैसाखी पर कनक हरे से
नेत्र द्रवित लें आज निहारें
आढ़त दामी की सब बोली
मिले नहीं बिन भाव पुकारे
सारे झगड़े का सा कारण
भार किये बिन बोरी तोली

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, April 11, 2020

नवगीत ; पाषाणी मन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
पाषाणी मन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

सारंगी सी गूंज स्वरों में
मौन कहे पाषाणी मन।
अन्तस् में लावा सा धधका 
और बहाये पाणी मन।

1
शान्त स्वरों ने पीर सुनाई
मचल रागिनी कुछ बोली।
लहराई टूटी सी सरगम
गूंज गई रिसती खोली।
भेज रही घाटी आवाजें
कह चीत्कार प्रमाणी मन।।

2
रुला रहे हैं राग हृदय को
अधरों पर छाया स्पंदन।
धार अश्रु की बहती सूखी 
और लहर करती क्रंदन।
कंठ पिपासित द्रवित रुद्ध सा
बोल कहे निर्वाणी मन।।

3
एक हँसी का टपका आँसू
देता हिय को घात बड़ी।
समय चक्र के गीत चीखते
कलियाँ व्याकुल देख खड़ी।
मुखड़ा पूरक पर आते ही
सहता कष्ट कृपाणी मन।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 9, 2020

नवगीत : आक्रोशित हिय : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
आक्रोशित हिय 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 16/14

देकर पाषाणों सी ठोकर 
प्रेम कहाँ पर ले आया। 
ढलती साँझे साँसे फूली
आक्रोशित हिय घबराया।।

1
स्पर्श एक से चरखा चलता
बात हवा सी बतियाता।
ताकू जैसे मुख से उगले
स्नेह प्रभावी दिखलाता।
धुरी प्रेम सी टूट गई जब
सृष्टि चक्र सा थम जाता।
तड़प उठा जब बहक हवा ने
अंग छुवन सा सहलाया।।

2
खण्डित दर्पण करता क्रंदन
रूप शतक लेकर अंदर।
लहरें करती ताण्डव नर्तन
शांत हृदय की ये कंदर।
और पीर का बुझता दीपक
हाँफ रहा जैसे बन्दर।
कष्ट अडिग चट्टानों जैसे 
इन्हें व्यर्थ ही समझाया।।

3
कच्चा घर दीवारें कच्ची
पूछ उठी हैं बात वही।
बोल रहे हैं कच्चे रिश्ते
टूट गये क्या खाक सही।
आहत कब करती दीवारें
पक्की सी यूँ बात कही।
सुनकर उनकी बात अचानक
हृदय द्रवित सा चिल्लाया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, April 8, 2020

नवगीत : बरसा जब विश्वास : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
बरसा जब विश्वास 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 13/11

उमड़ घुमड़ छाता रहा, 
हृदय प्रीत मधुमास।
पर्व हर्ष का फिर मना,
बरसा जब विश्वास।

1
बौर आम्र पर अब लदे
कोयल पंचम गान
बैठ पपीहे सुन रहे 
प्रेम मगन कुछ तान
यौवन चहुँ दिश छा गया
लगी सभी को आस।

2
दर्पण गोरी देखती 
नख शख रही निहार 
दृष्टि चित्त खुश कर रही 
भृकुटि मंत्र उच्चार 
सोलह से शृंगार कर 
पिया मिलन के खास 

3
इत्र छिड़क महकी दिखे 
जैसे बगिया आज
भँवरे सब पगला गये
थे पागल के काज
होश सभी बिसरा रहे 
हुआ खड़ा ही नास 

4
दोष पूछ मधुमास से
शायद कहदे भेद
गौरव पावन पूण्य सा
उच्चारित कह वेद 
दग्ध विरह करती दिखे
प्रेम दीप दे चास

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, April 5, 2020

नवगीत : दर्पण : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
दर्पण 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14 


दर्पण रिश्ते चटक टूटते 
एक जरा सी आहट से।
तड़प रहे हैं सब सर्दी से 
बुत बन खड़े सजावट से।

डूब रहे हैं नदी किनारे 
शुष्क रेत में जलकर के।
भीतर तक जो तैर चुके हैं 
बाहर निकले चलकर के।
देख रहा कश्ती का चप्पू 
बिना किसी घबराहट से।।

लहरों से भी खेल चुकी हैं 
स्मृति अनुपम हिरदे घाती।
आती जाती साँसे लायी
कोना फटी हुई पाती।
शेष नहीं था बचा हुआ कुछ 
वाचा बिना दिखावट से।।

लावा सा बहकर फूटे जब 
अन्तस् मन की ज्वाला का।
मनका- मनका बिखर गया फिर
हृदय पुष्प की माला का। 
और पीठ के पीछे चुगली 
जब सुने सुगबुगाहट से।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : गीत चीखता : संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत 
गीत चीखता
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


मापनी 16/14

गीत चीखता अर्ध लिखा सा 
रूठे अक्षर तोड़ गया।
और व्यंजना अन्तस् चुभती 
भाव हिलोरी मोड़ गया।।

1
शब्द सृजक बन पुष्प महकते 
भाव शूल का काज कहें।
अर्थ समझ में आ भी जाता 
वर्ण अभाषी गाज कहें।
अंचल की सुंदरता सिमटी
बिन ममता के आज कहें।
दीन हीन सा चरण गीत का 
यति गति को फिर फोड़ गया।।

निखरा सा पद बिम्ब समेटे 
और नकल थी दर्पण की।
साथ रहा वो कुछ क्षण मिलकर 
चढ़ता भेंट समर्पण की।
तिल लेकर फिर भरी अंजुली 
बात करे कुछ तर्पण की।
ठहर अंतरा देख विचारे
भाव मरम के छोड़ गया।।

3
द्रवित पृष्ठ मसि सुष्क चमकती 
चली लेखनी अटक अटक।
बोल लिखे पुष्पों से चुभते 
शूल गये थे भाल खटक।
धुन जब सारंगी से निकली 
खड़ी हुई वो वहीं लटक।
तबले से जब ताल बजी तो
लगा अचानक ओड़ गया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, April 1, 2020

नवगीत : मधुमासी अभिनंदन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
मधुमासी अभिनंदन 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/14 

पतझड़ से अन्तस् कानन में,
मधुमासी सा अभिनंदन।
दृष्टि पटल से पलक उठी जब, 
गिरती सी करती वंदन।

1
सूखी खुशियाँ खिली दिखी जब, 
महकी कलियाँ मुस्काई।
देख हँसी तो अन्तस् मन में, 
सरसों सी थी तरुणाई।
मस्त तरंग प्रकम्पन कहते,
हृदय स्पर्श कर मदमाई।
लटक रही थी ब्याल जहाँ पर, 
महक रहे वो सब चन्दन ...

2
यौवन धार गुरुत्वाकर्षण, 
आकर्षक सा अवलंबन।
कंटीली सी पीर समय की,
मिटती सब बिना विलंबन।
पवमान लिए उपहार खड़ा, 
और जड़ा अधरों चुम्बन। 
लाखों झोंके करते देखे,
बहुत कलह सा फिर क्रंदन।

3
कलकल गूंजे बहते झरने, 
रक्त धमनियाँ दौड़ रही। 
सांय सांय की आवाजें थी, 
समझ नासिका छोड़ रही।
नेत्र विचारक बन कर बैठे,
आस उन्हें कुछ जोड़ रही।
प्राणायाम हृदय तक उतरा,
बाहर काबू से स्पंदन ... 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : मोहिनी :संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
मोहिनी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~ 13/13

भावन अप्सरा कोई, 
मादक मोहिनी आई।
तीर कमान वो छोड़ें,
भौंह निशान सी पाई।

नेत्र बड़े मनोहारी, 
और सधे प्रहारों से।
रूप परी दिखाये तो, 
आह भरें विचारों से।
अक्षर वर्ण सम्भाले,
आकर गीतिका गाई ....

2
वो मिलती निशा ऐसी,
आकर चांदनी बोले।
शीतल सी व्यहारी थी, 
घातक सा पयो घोले।
मंडल कांति तारों की, 
गूंज विराट सी छाई।

3
पीपल कोकिला कूकी, 
अन्तस्  प्रेम सा फूटा।
और तरंग छोटी थी, 
देख प्रभाव जो लूटा।
ओझल सी हुई देखी,
नाम पुकार मुस्काई।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, March 31, 2020

गीत : मुरलिया : संजय कौशिक 'विज्ञात'




गीत
मुरलिया
संजय कौशिक 'विज्ञात'

बोल कहाँ हैं तान सुरीली
बोल मुरलिया बोल बता।
विस्मित कृष्ण अचंभित कहते,
व्याकुल हिय मत और सता।

1
बाँसुरिया अवरुद्ध पड़ी है,
राधा जब से बिछड़ गई।
रूठा रूठा हर स्वर देखा,
सरगम तबसे पिछड़ गई।
गीत वृक्ष सब भूल गये से,
भूल गई धुन आज लता।
विस्मित कृष्ण अचंभित कहते,
व्याकुल हिय मत और सता।

2
शुष्क नदी की अविरल धारा,
मेघ वहाँ से जल भरते।
चंदन से कुछ ब्याल लिपट कर,
फिर आहट से भी डरते।
पूछ रहे फिर प्रश्न अनेको,
उठते से फण आज पता।
विस्मित कृष्ण अचंभित कहते,
व्याकुल हिय मत और सता।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : टूटी कलम : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
टूटी कलम 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 14/14 

तोड़ दी ये लेखनी क्यों, 
गूंजते वो गीत पूछें। 
बादलों की पीर बहती,
फिर नयन बन भीत पूछें।

1
उर्मियों से भाव उमड़ें, 
खिलखिलाती वेदनाएं।
आँधियों से तर्क देखा, 
और उलझी सी लटाएं।
हार मेरी लिख चुकी थी,
प्रश्न मुझसे जीत पूछें।

कुछ नई सी कोपलों के, 
शाख से जब युद्ध ठहरे।
फिर कलम लड़ती रही नित, 
कौन देता दर्द गहरे।
व्यंजना का वर्ण दोहन, 
सीखने की रीत पूछें।

3
स्वर कहें बहके हुए से, 
बाँसुरी बज कर दिखादे।
हम नहीं दें साथ तेरा, 
तू तनिक अस्तित्व लादे।
दूध से जो जल चुका था,
आज उससे सीत पूछें।

4
संग छोड़े जब तिमिर ने,
शेष सम्बल लुप्त छाया।
नित्य ठुकराया गया जो, 
रिक्त है सब कुछ गँवाया।
त्याग कर खुशियाँ गई फिर, 
और दुख मिल नीत पूछें।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, March 30, 2020

नवगीत : महका गायन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
महका गायन 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/16

चिर परिचित यौवन सा महका, 
कली पिपासित महका गायन।
व्याकुलता की बजी बाँसुरी, 
विरह भ्रमर का सुन गुंजायन।

अमृत का तारुण्य कलश वो,
नख शख तक सौंदर्य मनोहर।
लिखे कल्पना कवि सौ मिलकर, 
उससे भी कुछ श्रेष्ठ धरोहर।
विश्व मोहिनी जल भर लाये, 
उर्मि वारती लाखों गौहर।
इंद्र चन्द्र भी आहें भर के, 
देख बनाना चाहें व्योहर।
कृति अनुपम सी जग सृष्टा की, 
सोच रची अद्भुत विश्वायन ........

2
रति लज्जित उस कामदेव की,
वो निज अवगुंठन जब खोले।
नेत्र कटारी से मारक हैं,
शांत चित्तमय वो कुछ बोले।
भौंह कमान चढ़ी प्रत्यंचा, 
ताकत तीर हृदय की तोले।
रतनारे अधरों के हिलते, 
रक्त धमनियाँ धीरज डोले।
तरुणाई लालित्य प्रलोभन, 
शील नदी का चाहे स्नायन ....

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : हँसता पाटल : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
हँसता पाटल 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/14


कंटक के आंचल से निकला, 
खिलता सा पाटल हँसता।
तूने क्या उपहार समेटा,
जो दो धेले सा सस्ता।

फिर जीवन के इस पड़ाव में, 
एक खुशी महकाई है।
हर्ष पूर्ण यौवन सी खिलकर,  
एक कली चहकाई है।
भ्रमित हुई या भ्रमर गान पर, 
किसने वो बहकाई है।
मादक मारक खिली हुई सी, 
चिर अद्भुत तरुणाई है।
आकर्षण का केंद्र पूर्ण वो, 
क्षण क्षण उसमें है बसता .....

2
कल्पित कहूँ अप्सरा उसको, 
मनभावन सा रूप कहूँ।
खिली शरद की रात चांदनी, 
या दिनकर की धूप कहूँ।
स्वर्ण चिड़ी सी चहके जब वो, 
कोयल चहक अनूप कहूँ।
शीतल पुंज भरा भावों का, 
गहरा सुंदर कूप कहूँ।
दिखती रात तीसवीं तिथि पर, 
दीप्त दीप भीतर चसता ...

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, March 29, 2020

नवगीत : सिंदूरी साँझ : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सिंदूरी साँझ
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~18/17


सिंदूरी  साँझ के अस्तांचल में, 
धुंधलापन क्यो गहर गया है।
चला नहीं लहरी क्षण क्यों आगे,
देख किसको फिर ठहर गया है।

1
अकुलाहट कुछ हिचकाहट  देखी,
इस क्षितिज के आँचल में रुककर। 
समय उड़ाने भर कर उड़ता था, 
मोर पंखों को खोले  झुककर।
आज अचानक वो लय क्यों टूटी,
शांत चितवन भी लहर गया था

2
कश्ती जब तट को खोज रही थी,
उर्मियाँ सागर की बोल उठी।
अवगुंठन मदमाई सी संध्या,
देख यौवन उसका खोल उठी।
जब अन्तस् में ज्वाला सी दहकी, 
टूट क्रंदन का फिर कहर गया ....

3
मांग सुसज्जित सी देख सितारे, 
और ज्यादा से जब चमक चले।
शशि की कांति अदृश्य भले दिखती, 
आस तारों की थी दमक चले। 
घर के आंगन तक हँसता आया, 
चंद्र नभ मण्डल में फहर गया।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : डरावनी रातें : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
डरावनी रातें 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/16 

डरावनी सी रातों में क्यों
दरक गया मेरा ये जीवन।
श्वेत उजाला क्यों लड़ बैठा, 
भड़क गया करके वो अनबन।

1
झंकृत वीणा से स्वर फूटे, 
अटक अटक कर तान बनी।
राग बजाये मोहक सारे, 
उच्चाटन की पहचान बनी।
अन्तस् धरणी बंजर दिखती, 
उठता सा धूम श्मशान बनी।
बहुत थूकते बहुत चबाते, 
कत्थे का मीठा पान बनी।
इन सबसे मन ऊब चुका अब, 
धड़क अटकती हैं कुछ धड़कन....

2
हृदय विदारक मौन छिपाये, 
मंथन का ही ज्ञान लिया जब।
आत्म चीख के सन्नाटों को, 
भाग्य स्वयं का मान लिया जब।
दृश्य मनोहर लिए कटारी, 
उनको अपना जान लिया जब।
अस्त्र उन्हीं ने सीधे हमपर, 
पीछे से आ तान लिया जब। 
अर्पण हृदय किया था जिसको, 
पलट मांगता वो ही गर्दन .... 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : तड़पती लेखनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 
तड़पती लेखनी 

मापनी~~ 14/14 


फिर तड़पती लेखनी यूँ,
बिम्ब चमके जब अनूठे।
डूब के अम्बर निहारा, 
वो नदी के साथ रूठे।

कष्ट के कारण मिले जब, 
पीठ से खंजर निकाले।
दृष्टि से ओझल हुए वो, 
दे चुके थे लाख छाले, 
दृश्य अनुपम ताल ठोके,
और मर्यादित व झूठे.....

2
जल रही हिय की करूणा, 
राख आँधी ने उड़ाई।
शब्द का डूबा समर था, 
वेदना की अंगड़ाई।
फिर नहीं अंकुर हुए वो,
भाव बिखरे देख पूठे.....

3
वर्ष भर कितने समेटे, 
कुछ महीनों के लिए जब। 
न्याय करता ये समय भी, 
बुझ गए लाखों दिए जब।
क्रूर क्षण के ठोकते से,
दे विदारक पीर मूठे .....

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : पतझड़ का कष्ट : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
पतझड़ का कष्ट 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा
झूलता जीवन नदी का,
तट खड़े उस झाड़ जैसा।
कष्ट से भयभीत मन है, 
दर्द फटती दाड़ जैसा।

1
ये व्यथा की पीर ऐसी, 
आज पतझड़ से अधिक फिर। 
दृग सुखाती ऋतु यहाँ पर, 
देख चल ठहरे पथिक फिर। 
बोझ से कुछ शाख झुकती, 
और टूटी नाड़ जैसा....

2
पूछ हरियाली कहाँ है, 
ये हृदय कुछ ढूंढता सा।
स्वयं से पुलकित हुआ अब, 
और फिर कुछ रूठता सा।
कांति विद्युत की गिरी जब, 
और फूटा भाड़ जैसा....

3
काँप उठती देह सारी,
पग शिखा तक देख दर्पण।
जो कभी उपहार पाए, 
वो सभी कर आज अर्पण।
सर्प फिर घर में घुसा जब, 
बिल बना बिन पाड़ जैसा....

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, March 28, 2020

नवगीत : क्षोभ : संजय कौशिक ' विज्ञात'


नवगीत 
क्षोभ
संजय कौशिक ' विज्ञात' 

मापनी~~ 14/14

क्षोभ का भाजन बने जब,
खूब बादल फिर बरसते।
बाँट ते उपहार देखो, 
दृश्य जितने भी तरसते।

1
देख आकर्षक मनोहर,
वो घटा घनघोर अनुपम।
वारते सब भूमि पर हैं, 
ये सुधामय जल सुरोपम।
व्यक्ति पूछे प्रश्न जितने, 
दे उन्हें उत्तर सँवरते.....

देख खुशबू की लहर फिर, 
गा रही कुछ गीत उत्तम।
फिर खुशी महकी उठे तब
इंद्र धनुषी रंग सप्तम।
ये हवा जो प्राण बसती,
कह रही चहुँ दिश विचरते...

3
गूंजते है झुनझुने से,
लावणी गाती दिशाएँ।
धूप मिलकर चाँदनी से, 
दृश्य कुछ अच्छे बनाएँ।
नेत्र से जल धार बहती,
दृग पटल ये फिर निखरते....

संजय कौशिक ' विज्ञात'

नवगीत : बिलखा अम्बर : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
बिलखा अम्बर 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14

चमक उठी यह देख चांदनी,
धरणी पर था वर्ण धवल।
रोया कब वो बिलखा अम्बर, 
दिखती है फिर बून्द नवल।

बाह्य अलंकारों ने पूछा, 
भीतर कितनी घात बड़ी।
विरही छुप छुप जली चांदनी,
जागी भटकी रात बड़ी।
ओस रूप में बह कर टपका, 
पसरा दिखता देख जवल .... 

2
संध्या सिंदूरी सपने से, 
महक उठी थी चहक बड़ी।
नभ मण्डल के तारे गाते, 
अन्तस् धुन दे लहक बड़ी।
दिखा शरद के अंगारो से,
जगी व्यथा का ग्रसित कवल.... 

3
उर्मि धड़कनों सी बतियाती, 
ज्वाला सा फिर फूट गया।
अंतरंग के संबंधों का, 
अति प्रिय सा कुछ छूट गया।
गीत सुरों की गली गुजरता, 
सुन कर उमड़े भाव प्रवल।

संजय कौशिक 'विज्ञात'