नवगीत
दर्पण
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~16/14
दर्पण रिश्ते चटक टूटते
एक जरा सी आहट से।
तड़प रहे हैं सब सर्दी से
बुत बन खड़े सजावट से।
1
डूब रहे हैं नदी किनारे
शुष्क रेत में जलकर के।
भीतर तक जो तैर चुके हैं
बाहर निकले चलकर के।
देख रहा कश्ती का चप्पू
बिना किसी घबराहट से।।
2
लहरों से भी खेल चुकी हैं
स्मृति अनुपम हिरदे घाती।
आती जाती साँसे लायी
कोना फटी हुई पाती।
शेष नहीं था बचा हुआ कुछ
वाचा बिना दिखावट से।।
3
लावा सा बहकर फूटे जब
अन्तस् मन की ज्वाला का।
मनका- मनका बिखर गया फिर
हृदय पुष्प की माला का।
और पीठ के पीछे चुगली
जब सुने सुगबुगाहट से।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
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