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Saturday, February 29, 2020

नवगीत वेदना अपनो की संजय कौशिक ' विज्ञात



नवगीत
वेदना अपनो की
संजय कौशिक ' विज्ञात

मापनी ~~ 16/14

लता लता को खाना चाहे,
कहीं कली को निगले।
संस्कृति के उत्तम स्वर फूटे,
जो रागों से निकले।

1
तपती धरणी के कण व्याकुल,
सभी कणों को तपा रहे।
तने शाख से त्रस्त हुए हैं,
वृक्ष दर्द कुछ बोल कहे।
देख कहाँ फल संभावित हैं,
बीज घुणों का त्रास सहे।

ऐसे कीट लगे हैं कितने,
तले देख नूतन उपले।
संस्कृति के उत्तम स्वर फूटे,
जो रागों से निकले।

2
ग्रास बने हैं नेक यहाँ पर,
चन्द्र सूर्य भी कहाँ बचे।
नभ मण्डल में सब लालायित,
चमक दमक जो खास रचे।
किरण किरण पर भारी देखी,
तिमिर तिमिर के उदर पचे।

लोहे को लोहा काटे जब,
चीत्कारें कितनी उगले
संस्कृति के उत्तम स्वर फूटे,
जो रागों से निकले।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत समर्पण संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
समर्पण 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 14/14 

फिर समर्पण के बिना भी, 
प्रीत पूरी कौन कहता।
देख कलियों में भ्रमर के, 
गान गुंजन स्नेह महता।

1
प्रीत का यह रूप पावन,
जो बहुत ऊँचा बताया।
कृष्ण धारे मुरलिया को, 
भाव राधा ने दिखाया।
फिर छिटक नभ से धरा पर, 
लहलहाई चांदनी जब
चातकी कुछ बोलती है, 
चांद देखो मौन रहता।

स्वाति की अनुपम कथा सुन, 
सीप में मोती चमकता।
बादलों से प्रीत निभती, 
मूसलाधारी बरसता।
नेह गरजे मोर नाचे, 
इंद्रधनुषी बन निखरता।
सीख लेता सागरों से,
धड़कनों के साथ बहता।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, February 28, 2020

नवगीत इक शिखण्डी चाहिये संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
इक शिखण्डी चाहिये
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


मापनी 12/12 

आज जीने के लिये 
इक शिखण्डी चाहिये
मातृ नारी शक्ति का
रूप चण्डी चाहिये

आधुनिक शिक्षा मिले, 
कार्य हों सरकार के।
नौकरी पद प्राप्त हों, 
योग्यता आधार के। 
छीन ले अधिकार से, 
बस घमण्डी चाहिये।
मातृ नारी शक्ति का,
रूप चण्डी चाहिये।

2
भावना दृढ़ ले हृदय, 
कष्ट से दे मुक्ति है।
रुद्र को जो मानती, 
हिय शिवा की युक्ति है।
और लहरे वायु में, 
हाथ झण्डी चाहिये।
मातृ नारी शक्ति का,
रूप चण्डी चाहिये।

राम सीता से चरित,
कल्पना साक्षात हों।
मुक्त हो पाषाण से, 
आज नारी व्याप्त हों।
फिर सुना दे जो कथा, 
खग भुशुण्डी चाहिये।
मातृ नारी शक्ति का,
रूप चण्डी चाहिये।

4
यातनाएँ झेलती, 
आज चिंतन कुछ करो। 
अम्ल की वर्षा सहे, 
दुख सुता के मिल हरो।
नाद घर-घर गूंजती, 
फिर त्रिखण्डी चाहिये।
मातृ नारी शक्ति का,
रूप चण्डी चाहिये।

कुप्रथाएँ भीष्म सी, 
मुक्त होंगे फिर सभी।
कर नहीं वो अस्त्र ले, 
शस्त्र बनके खुद अभी।
और फिर प्रतिशोध ले, 
लौ अखण्डी चाहिये।
मातृ नारी शक्ति का,
रूप चण्डी चाहिये।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, February 27, 2020

नवगीत वैमनस्य संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
वैमनस्य 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~ 16/15 
अंतरा ~~ 16/15 

वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर।
रूप भले है देख सिपाही, 
अन्तस् बैठा उसके चोर।

रौंद रहे हैं पैर करों को, 
दृश्य बनाकर सेवा भाव।
इसकी टोपी उसके सिर पर, 
लोग उछालें करके चाव।
तैर रही सागर में नौका, 
देख नदी में डूबे नाव।
अन्य (गैर) बने हैं औषध सबके, 
अपने देते रिसते घाव।

पाखण्ड करें षड्यंत्र रचें, 
चहुँ दिश देखो उनका शोर।
वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर। 

2
हाथ बढ़े जब हाथ कटे तब, 
लोग निराली चलते चाल।
अपनेपन में भूखों मरते, 
देख कहाँ है रोटी दाल।
ये विपरीत बयार दिशा से,
बहती है नित बहता काल।
मीन फँसी भी ले बह जाये, 
मछुआरों का फैला जाल।

फिर प्रतिशोध कहाँ पर किससे, 
किसकी बाजू में ये जोर।
वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर। 

3
सेठ दबाये पाँव जहाँ पर,
ऐसे ठाठ करे मजदूरी। 
बाल श्रमिक ने फोड़े पर्वत, 
कौन कहे उनकी मजबूरी।
पेट कराये नर क्या करले, 
चंदा की है कितनी दूरी।
एक समाज नही शोषक का,
झूठी गाथा शोषण पूरी।

रक्त नयन से कौन बहा दे, 
कौन सके आत्मा झकझोर।
वैमनस्य का कारण ढूंढो, 
झांक जरा भीतर की ओर। 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत चीर तिमिर की छाती / अवलंब संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
चीर तिमिर की छाती / अवलंब
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

चीर तिमिर की छाती को अब 
सूरज उगने वाला है। 
रात व्यथा की बीत गई सुन 
निश्चित भोर उजाला है।

कुम्भकार का चाक चले यूँ, 
काल चक्र का फेरा है।
लगे थपेड़े मिट्टी पर जब,
घट बन पाता तेरा है।
कर्मवीर से जीत सका कब 
बन्द भाग्य का ताला है।
चीर तिमिर की छाती को अब 
सूरज उगने वाला है।

पवन पराक्रम नित्य दिखाये, 
ऐसे ही बढ़ जाना है।
सूर्य अर्चि कर ग्रहण प्रेरणा, 
जग को यूँ चमकाना है।
शीत पूर्णिमा सी औषध बन, 
हरना हिय का छाला है। 
चीर तिमिर की छाती को अब 
सूरज उगने वाला है। 

मर्यादित रह सागर जैसे, 
भले क्रोध जब आ जाये।
अडिग हिमालय सा गुण लेना, 
गुंजित घाटी समझाये।
चुभन नहीं भूलो शूलों की,
जिन टीसों ने पाला है।
चीर तिमिर की छाती को अब 
सूरज उगने वाला है। 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

@vigyatkikalam

Monday, February 24, 2020

नवगीत टूटे पंख संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत
टूटे पंख 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/16

टूटे पंखों से लिखदूँ मैं, 
बना लेखनी वो कविता।
भावों में तो श्रेष्ठ बनेगी, 
पृष्ठ बहेगी मसि सरिता॥ 

1
स्वर व्यंजन की बगिया से कुछ,
शब्द सुगंधित फूटेंगे। 
पुष्प बनेंगे सभी अंतरे,
भाव भ्रमर बन टूटेंगे। 
और चमत्कृत अलंकार से, 
अलि केसर रस लूटेंगे। 
सुनकर गुंजन गान बाग में, 
कोयल से स्वर छूटेंगे।

नेह बयार प्रवाहित होगी,
रश्मि खिलेगी बन सविता।
टूटे पंखों से लिखदूँ मैं, 
बना लेखनी वो कविता।

2
भेड़चाल के मार्ग मिटाकर, 
नई डगर सब पालेंगे।
दिवस सूर्य तो रात चन्द्र से, 
राह पथिक अपनालेंगे।
राग मेघ से सीख मल्हारी, 
बाजे सुर में गालेंगे।
और समय की ताल कहरवा, 
दादर सभी बजालेंगे।

ये अनुपम संगीत साधना, 
अंतःकरण बने क्षमिता।
टूटे पंखों से लिखदूँ मैं, 
बना लेखनी वो कविता।

3
नवधा रस से रहे प्रभावित, 
कलम सदा ही गीतों में।
सौहार्द प्रेम की ज्योत जले, 
हृदयंगम सी रीतों में।
प्रस्फुटित हुये संबंध खिलें, 
लिख स्वर्णाक्षर भीतों में। 
और प्रमोद खिले बन क्यारी, 
हारे कंटक जीतों में।

श्री गणेश करने को आतुर, 
चूंट चुका पावन हरिता।
टूटे पंखों से लिखदूँ मैं, 
बना लेखनी वो कविता।

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

@vigyatkikalam

सवैया विधान और उदाहरण संजय कौशिक 'विज्ञात'


सवैया 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

सवैया एक वर्णिक छंद है। जिसे मुख्यतया गणों के माध्यम से लिखा जाता है। आइये समझते हैं जिन सवैया को मैंने लिखा उनके गण भी समझेंगे 


1
सुमुखि सवैया


विधान
सुमुखि सवैया सात जगण और लघु-गुरु से निर्मित होता है। इस छंद में 11, 12 वर्णों पर यति रखी जाती है। मदिरा सवैया छंद के आदि में एक लघु वर्ण जोड़ने से इस छंद का शिल्प विधान कहा जाता है।

उदाहरण-
अनेक प्रकार विवेक कहे, कहते-सुनते यह ज्ञान मिले।
कुमित्र कहाँ पर दे डुबवा, फिर नाव मिले न निशान मिले॥ 
सुमित्र यहाँ पर हैं कम ही, जिनसे अपनापन मान मिले।
न बात कहो सुनले मन की, फिर मान बढ़े पहचान मिले॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'
2
मत्तगयन्द सवैया

विधान 
मत्तगयन्द सवैया 23 वर्णों का छन्द है, जिसमें सात भगण (ऽ।।) और दो गुरुओं का योग होता है। नरोत्तमदास, तुलसी, केशव, भूषण, मतिराम, घनानन्द, भारतेन्दु, हितैषी, सनेही, अनूप आदि ने इसका प्रयोग किया है।
विधान- *मत्तगयंद सवैया*
भगण ×7+2गुरु, 12-11 वर्ण पर यति चार चरण समतुकान्त।

उदाहरण-
कंकर-कंकर को कहते सब, शंकर देव समान हमारे।
नर्मद से निकले जितने जब, पूजन के अधिकार विचारे॥ 
भाव बिना भगवान कहाँ यह, सत्य कहूँ सब तथ्य पुकारे।
साफ रखो हिय प्रेम दिखे फिर, ये सुख सागर नाथ सहारे॥

संजय कौशिक "विज्ञात"
3
दुर्मिल सवैया
विधान
दुर्मिल सवैया छंद 24 वर्णों में आठ सगणों (।।ऽ) से सुसज्जित होता है। जिसमें 12, 12 वर्णों पर यति का प्रयोग किया जाता है। अन्त सम तुकान्त ललितान्त्यानुप्रास कहा जाता है। इस छन्द को तोटक वृत्त का दुगुना कहा जाता है। प्रायः इस छंद का लेखन  केशव, तुलसी से लेकर रीतिकाल तथा आधुनिक कवियों द्वारा बहुत ही सुंदरता से किया जाता है ।

उदाहरण-
प्रतिबिम्ब खड़ा दिखता मुखड़ा, सरदार पुरातन आन खड़ा।
यह सम्मुख मानव नेक दिखा, नव देश सशक्त विशेष घड़ा॥
अनुशासन और प्रशासन का, अनुपालक एक विधान कड़ा।
यह भारत रत्न प्रमाणिक है, तब भारत ने निज भाल जड़ा॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'
4
किरीट सवैया

विधान
किरीट सवैया नामक छंद आठ भगणों से बनता है। तुलसी, केशव, देव और दास ने इस छन्द का प्रयोग किया है। इसमें 12, 12 वर्णों पर यती होती है।

उदाहरण-
जीवन कोजल धार कहें सब, काम करो कुछ तो मन भावन।
देख अपुष्पक पादप ये अब, जो ठहरे कह हो वह पावन॥ 
सीख मिले कुछ उत्तम ही जब, और निरंतर हो बस सावन।
आज बना चल चित्र मनोहर, लोग कहें बस देख सुहावन॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'
5
गंगोदक सवैया

विधान
गंगोदक सवैया को लक्षी सवैया भी कहा जाता है। गंगोदक या लक्षी सवैया आठ रगणों से छन्द बनता है। केशव, दास, द्विजदत्त द्विजेन्द्र ने इसका प्रयोग किया है। दास ने इसका नाम 'लक्षी' दिया है, 'केशव' ने 'मत्तमातंगलीलाकर'।

उदाहरण-
देखके वो भिखारी खड़ा आज है, और वो पात्र भिक्षा न ही खोलता। 
आज निश्चेष्ट देखा उसे द्वार पे, जो मरा सा पड़ा है न ही डोलता।
आँख आँसू भरी देह घावों लिये, कृष्ण का नाम बोले लगे तोलता।
द्वारिका धीश है मित्र मेरा कहे, नाम पूछा सुदामा यही बोलता।

संजय कौशिक 'विज्ञात'
मुक्तहरा सवैया

विधान
मुक्तहरा सवैया में 8 जगण होते हैं। मत्तगयन्द आदि - अन्त में एक-एक लघुवर्ण जोड़ने से यह छन्द बनता है; 11, 13 वर्णों पर यती होती है। देव, दास तथा सत्यनारायण ने इसका प्रयोग किया है।

उदाहरण-
कहाँ मकरंद बता मधु है, भँवरा यह पूछ रहा सब आज।
कली सुन शोर तभी खिलती, सब देख रहा यह सभ्य समाज। 
पधार रहे अब कौन यहाँ, बगिया महके किसके कह काज।
तभी कवि देख कहे कविता, उमड़े बन प्रेम कली रस राज॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'
7
वाम सवैया

विधान
वाम सवैया के मंजरी, माधवी या मकरन्द अन्य नाम हैं। यह 24 वर्णों का छन्द है, जो सात जगणों और एक यगण के योग से बनता है। मत्तगयन्द के आदि में लघु वर्ण जोड़ने से यह छन्द बन जाता है। केशव और दारा ने इसका प्रयोग किया है। केशव ने मकरन्द, देव ने माधवी, दास ने मंजरी और भानु ने वाम नाम दिया है।

उदाहरण-
प्रसंग विधान अनेक प्रकार, प्रचारित ये सरकार करे है।
विशाल समाज सुधार सुमार्ग, प्रसारित ये हर बार करे है॥
उमंग तरंग तिरंग प्रमाण, प्रभासित नित्य पुकार करे है। 
सुशासित राज प्रशासित कार्य, प्रधान सदा उपकार करे है॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'
8
अरसात सवैया

विधान
अरसात सवैया 24 वर्णों का छन्द 7 भगणों और रगण के योग से बनता है। देव और दास ने इस छन्द का प्रयोग किया है।

उदाहरण-
कावड़ लेकर शंकर की जय, आज कतार दिखें चहुँ ओर है।
ये करते बम जै बम गाकर, और उमा जय आत्म विभोर है॥ 
मस्त रहें सब भाव बनाकर, वृद्ध विशेष प्रभाव किशोर है।
बालक कावड़ ले महिला सब, भावन चातक भक्त चकोर है॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'
9
सुंदरी सवैया 

विधान
सुन्दरी सवैया छन्द 25 वर्णों का है। इसमें आठ सगणों और गुरु का योग होता है। इसका दूसरा नाम माधवी है। केशव ने इसे 'सुन्दरी' और दास ने 'माधवी' नाम दिया है। केशव[1], तुलसी [2], अनूप[3], दिनकर[4] ने इस छन्द का प्रयोग किया है।

उदाहरण-
स्वर का तुझको जब ज्ञान नहीं, फिर व्यर्थ कहाँ मुख खोल रहा तू।
यह गायन दुर्लभ है सुनले, श्रम के बिन क्यों अब बोल रहा तू। 
पहले करले कुछ कर्म जरा, बिन कर्म कहाँ सब तोल रहा तू। 
स्वर कोयल बाग सुने सब ही, रस काग कहाँ यह घोल रहा तू।

संजय कौशिक 'विज्ञात'
10
अरविन्द सवैया 
विधान
अरविन्द सवैया आठ सगण और लघु के योग से छन्द बनता है। 12, 13 वर्णों पर यति होती है और चारों चरणों में ललितान्त्यानुप्रास होता है।

उदाहरण-
भँवरा फिर पाटल से पलटा, करती तितली कुछ सोच विचार
भर पेट चला मकरंद कहाँ, वह टोक रही तब बोल पुकार
बदले कितने कह आज तुम्ही, यह शोभित लोक कहाँ व्यवहार 
कुछ बात करो अपनी कहके, सुन मैं कह दूँ  हिय चाह अपार

संजय कौशिक 'विज्ञात'
11
मानिनी सवैया 

विधान
मानिनी सवैया 23 वर्णों का छन्द है। 7 जगणों और लघु गुरु के योग से यह छन्द बनता है। वाम सवैया का अन्तिम वर्ण न्यून करने से या दुर्मिल का प्रथम लघु वर्ण न्यून करने से यह छन्द बनता है। तुलसी और दास ने इसका प्रयोग किया है।

उदाहरण-
दहाड़ रहे बढ़ते फिर से, यह सैनिक सिंह समान सभी। 
पड़े जब कानन गर्जन तो, फिर राह मिले उस काल तभी॥ 
प्रसिद्ध रहे बल शौर्य जहाँ, सदियों पहले सुन बात कभी। 
पुरातन वो दिखता बढ़ता, वह शौर्य यहाँ हर हाल अभी॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'
12
महाभुजंगप्रयात सवैया

विधान
महाभुजंगप्रयात सवैया 24 वर्णों का छन्द कहा जाता है, यह छंद आठ यगणों (122) के द्वारा लिखा जाता है। इसे भुजंगप्रयात छंद का दुगुना छन्द कहा जाता है तभी इसका नाम महाभुजंगप्रयात छंद पड़ा है। इस छंद में 12, 12 वर्णों पर यति रखी जाती है।

उदाहरण-
जहाँ आज दीवार देखी घरों में, मुझे लाज आई व आँखें झुकी हैं।
वहाँ शेष आशा निराशा दिखी है, नहीं खास बातें सभी जा चुकी हैं॥
जवानी करे जुल्म ऐसे यहाँ पे, बुढापा रहा देख सांसें रुकी हैं।
मरे मौत सौ सौ मरे भी नहीं हैं, बताएं सभी दोष ये कामुकी हैं॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'
13 
*सुखी सवैया*


विधान
सुखी सवैया नवीन सवैया 8 सगण+लघु लघु से बनता है; 11, 14 वर्णों पर यति होती है। सुखी सवैया 8स+2ल के लिखने से यह छन्द बनता है।

उदाहरण-
अपमान करें कुछ लोग जहाँ, तब देख विकार विचार किया कर।
चुप क्यों रहना हर बार वहाँ, फिर उत्तर भी सब आप दिया कर॥
जब आहत वे करते तुमको, उनसे बदला हर एक लिया कर। 
फिर त्याग सदा मन से उनको, मनभावन जीवन शेष जिया कर॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'
14
*मदिरा सवैया*

विधान 
मदिरा सवैया में 7 भगण (ऽ।।) + गुरु से यह छन्द बनता है, 10, 12 वर्णों पर यति होती है।

उदाहरण-
रूप शशांक कलंक दिखा, पर शीतल तो वह नित्य दिखा।
और प्रभा बिखरी जग में, इस कारण ही यह पक्ष लिखा॥ 
खूब कला बढ़ती रहती, तब जीत गई फिर चंद्र शिखा।
आँचल में सिमटी उसके, तब विस्मित देख रही परिखा॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, February 23, 2020

नवगीत होश नहीं खोता संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
होश नहीं खोता 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 16/16 

बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होश नहीं खोता।
फिर यूँ सपना हो कब पूरा,
यदि घोड़े बेच यहाँ सोता॥

1
चीर मिनारी दीवारों को,
हुआ अंकुरित है पौधा जब।
खड़ा हुआ ये देखो तरुवर,
जिसने चीरा पर्वत को अब। 

साहस विरला जन कर पाता, 
वह साहस की उपमा होता।
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होश नहीं खोता।

2
बढ़ता मानव सम्बल पाकर, 
और लता का ये ज्ञान सुनो। 
कली खिली ये महकी बगिया, 
भँवरे का गुंजन गान सुनो। 

मधुमक्खी का श्रम दिखता है,
मघु सागर में लगता गोता।
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होश नहीं खोता।

3
स्वयं नियोजित करने हैं सब, 
अपने पथ धरती सब अम्बर।
क्षमता के अनुरूप उड़ें सब, 
जाते हैं फिर देख समंदर।

नकल करे तो फँसे पिंजरे,
ये देखो आप भले तोता।
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होश नहीं खोता।

संजय कौशिक 'विज्ञात' 
@vigyatkikalam

Saturday, February 22, 2020

नवगीत अधूरी कल्पना संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी
14/14

कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।
बिन स्वरों कब गूंजती है,
बांसुरी की तान पूरी।

1
श्वास बिन कब फूटते स्वर,
बांसुरी सम धड़कनों से।
देख शीशा टूटता ज्यूँ,
ठेस थोड़ी अडकनों से।
वो चमक मिलती नहीं है,
देख हीरा जरकनों से।
आज तक सूना लगे घर,
चूड़ियों की खनकनों से।

व्यर्थ ये दुनिया छलावा,
ले समय के साथ दूरी।
कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।

2
पान की खशबू रमी जब,
फिर हवा को स्वर मिले थे।
वो गुलाबी से अधर फिर,
मौन तोड़े कुछ हिले थे।
फिर तरंगी आवरण से,
और ज्यादा से खिले थे।
संतरे की लालिमा से,
कुछ अधिक लगते छिले थे।

साँझ कुछ महकी हवा में,
रूप बदला बन कपूरी।
कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।

संजय कौशिक 'विज्ञात'
vigyatkikavita

गीत हाइकु संजय कौशिक 'विज्ञात'





मापनी 16/16
गीत हाइकु  
शिल्प आधारित 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

हाइकु सुंदर मनका माला, 
सत्रह मनके लो रटने में। 
उत्तम श्रेष्ठ सृजन बन निखरे, 
चित्र उकेरे जो लिखने में .......

1
कलमकार लघु विधा लिखें सब, 
ये सबसे छोटी है उनमें। 
तीन पंक्तियाँ बिम्ब मात्र दो, 
संबंध कहें गहरा जिनमें॥
योजक चिह्न मध्य बिम्बों के, 
स्पष्ट एक हो प्यारी धुन में।
मानवीकरण त्याग कल्पना, 
सृजन नही हो फल कारण में॥ 

क्रिया विशेषण और क्रियापद 
कहीं नहीं हों फिर दिखने में 
हाइकु सुंदर मनका माला, 
सत्रह मनके लो रटने में ........

2
धर्म विशेष व्यक्ति को छोड़ो 
प्रकृति मूल पर बिम्ब दिखाओ।
पंक्ति स्वतंत्र दृश्य वर्जित है।
केवल वर्तनी भाव हटाओ 
बारह वर्णी एक वाक्य हो, 
पाँच सात दो भाग बनाओ 
तुकबंदी कविता मत समझो, 
दो यथार्थ के बिम्ब लगाओ 

दोहराव कमजोर करेगा, 
बिम्ब शब्द अनुपम रचने में 
उत्तम श्रेष्ठ सृजन बन निखरे, 
चित्र उकेरे जो लिखने में ....... 

3
पल की अनुकृति छवि जो देखी 
उसको हाइकु में दिखलाना।
भविष्य भूत कल्पना समझो, 
वर्तमान को ही अपनाना।
तुलनात्मक रचना से बचना,
भले विरोधाभासी लाना।
अनिवार्य एक बिम्ब प्राकृतिक, 
विषय वर्णन पर्व मनाना। 

दो वाक्य बिम्ब भी दो आवश्यक,
पढ़ते कहते सब सुनने में
उत्तम श्रेष्ठ सृजन बन निखरे, 
चित्र उकेरे जो लिखने में .......

4
बिम्ब मानसिक बोधगम्य ये,
रोचक मार्मिक दृश्य पिरोये। 
नकल असामान्य विशेषण से, 
बिम्ब मरम के अंकुर बोये।
पढ़के पाठक अन्तस् मन में, 
नकल एक क्षण की में खोये।
मूलाधार रहस्य प्रकृति के
गर्भ समाहित हाइकु होये।

छोटी सरल विधा यह कहदी 
कौशिक करता मन पढ़ने में
उत्तम श्रेष्ठ सृजन बन निखरे, 
चित्र उकेरे जो लिखने में .......

संजय कौशिक 'विज्ञात'
@vigyatkikalam

Thursday, February 20, 2020

गीत विरोधाभास संजय कौशिक 'विज्ञात'





गीत 
विरोधाभास। 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

भरे समंदर गहरे जा कर 
मोती  बीन लिये।
पैरो से तो धरा छीन ली 
अंबर छीन लिये। 

1
बने हौसले टूट रहे हैं, 
कबका सूख गये। 
छत्ते ने मधु मक्खी निगली, 
हरियल रूख गये।
जुगनू से ले चमक आदमी, 
रूप मयूख गये।
कनक चबाये नव जीवन से, 
मारे भूख गये। 

दूध जहर पी साँप पालते
मरते दीन लिये।
भरे समंदर गहरे जा कर 
मोती  बीन लिये।

2
शब्द रसिक से खाते कविता, 
समझा सार रहे।
सागर से पर्वत को जाती, 
नदिया धार बहे। 
अर्थ अनर्थ किये गागर के, 
ज्ञानी हार कहे। 
श्रेष्ठ हुई ये उत्तम विदुषी 
बोली वार सहे।

छंद जड़ित फिर मधुर नमक के, 
बाजे बीन लिये।
भरे समंदर गहरे जा कर 
मोती  बीन लिये।

3
हुआ मधुर कुछ कडुवा सागर,
दिखता आज यहाँ।
पंगु चढ़े मन पर्वत सीढ़ी, 
गिरते देख कहाँ। 
दौड़ रहे तन मुर्दे लहरों, 
चारों और जहाँ। 
नेत्रहीन अब ज्योतिष दिखता,
कहते मूढ़ यहाँ। 

केत मृत्यु दे अमर कराता, 
घर जो मीन लिये।
भरे समंदर गहरे जा कर 
मोती  बीन लिये।

4
विरह वेदना व्याकुल मन की, 
भूली बात सभी।
शिशिर चांदनी शीतल जलती,
तम की घात तभी। 
तारे चमकें कहीं धरा पर,
खाली नभ वलभी।
शोधित होती मन की बाते, 
आये रास कभी।

सूरज चंदा विष-पय वर्षण, 
हो गमगीन लिये।
भरे समंदर गहरे जा कर 
मोती  बीन लिये।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, February 18, 2020

निश्चल छंद आधारित गीत संजय कौशिक 'विज्ञात'





निश्चल छंद     आधारित गीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

निश्चल छंद एक सम मात्रिक छंद है जिसमें 16,7 पर यति के साथ 23 मात्रा के 4 चरण होते हैं। प्रति 2-2 पंक्ति के तुकांत सम तुकांत रहते हैं प्रति चरण का अंत गाल(21, गुरु लघु से किया जाता है। साधारण शब्दों में चौपाई का एक चरण 16 मात्रा + 7 मात्रा होती हैं अंत गाल
 16,+7= 23 मात्रा चरणान्त गाल 
तो आइये इसे उदाहरण से समझते हैं 

निश्चल छंद     आधारित गीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात'


एक पुराना वृक्ष खड़ा था, 
घर में नीम। 
जिसे गिरा कर भीत खींच दी, 
सपने सीम॥

1
संबंधों में असर दिखाये, 
मिटे बुखार। 
एक लता की बात सुनो कह, 
घटता प्यार॥
झड़ी हुई ढेरों निम्बोली, 
का ये सार।
झाड़ दिये सब द्रुम पतझड़ ने, 
कर व्यवहार॥ 

आँगन में सौ बार पड़े थे, 
बिखरे ढीम.....
एक पुराना वृक्ष खड़ा था, 
घर में नीम। 

संदेश समीर बहे तो दे, 
ध्वनि कर पात।
और आँधियों से बतियाता, 
गरजे बात॥ 
अधिक ठण्ड में आँसू झरते, 
नित्य प्रभात। 
गर्मी लू में खड़ा रहा था, 
सह दिन रात॥ 

पता बना था पूर्ण गाँव में, 
बड़ा मुनीम..... 
एक पुराना वृक्ष खड़ा था, 
घर में नीम।

3
आज गिराया नीम जहाँ से, 
गड्ढा खोद।
सौ-सौ बार गिरी बिजली थी, 
मिटा प्रमोद॥ 
हास्य शोक में बदल पड़ा वो, 
माँ की गोद। 
अन्तस् मन की चर्चित चर्चा, 
रिसता क्षोद॥ 
दहक उठा मन हुआ बावला, 
जलता रीम.....
एक पुराना वृक्ष खड़ा था, 
घर में नीम।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, February 17, 2020

नवगीत स्मृति-पटल संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


मापनी 14/14


स्मृति पटल पर चित्र छाये,
और आहट सी हुई जब।
दृश्य हिय-प्रतिबिम्ब देखे,
लड़खड़ाहट-सी हुई जब।

1. 
एक झरना बह निकलता,
फिर दृगों के उस पटल से।
भूलकर बादल ठिकाना, 
तुंग पर बैठे अटल से। 
जो निरन्तर हैं बरसते,
गर्जना के बिन यहाँ पर।
स्वेद ठहरा दिख रहा है 
बह रहा कुछ फिर कहाँ पर।

फिर मचलती-सी नदी में,
झनझनाहट सी हुई जब।
स्मृति पटल पर चित्र छाये,
और आहट सी हुई जब।

2
तोड़ बंधन धार लहरें,
मौन को कुछ त्यागती-सी।
कर अचंभित तट प्रलय के,
कुछ झरोखे झाँकती-सी।
रोकती उन्माद कैसे,
जो भँवर ले भागती-सी।
रागमय अनुराग लक्षित,
और अन्तस् लागती सी।

दोहराती बात सारी,
गड़गड़ाहट सी हुई जब।
स्मृति पटल पर चित्र छाये,
और आहट सी हुई जब॥

3
संग्रहित छवि देखती थी,
आज दृग के सामने कुछ। 
मूँद लेती आँख अपनी, 
चित्र को वो थामने कुछ।
वो थकी सी लग रही थी, 
जो जलाई काम ने कुछ।
फिर विरह की आग भड़की, 
कब सुनी इस राम ने कुछ। 

आज भी वर्षों पुरानी,
धड़धड़ाहट सी हुई जब।
स्मृति पटल पर चित्र छाये,
और आहट सी हुई जब।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

कुण्डलिनी छंद संजय कौशिक 'विज्ञात'


कुण्डलिनी छंद 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

यह छंद एक दोहा और अर्ध रोला के संयोग से निर्मित होता है। अर्थात 4 पंक्तियों में इस छंद को लिखा जाता है। मात्रा भार इसमें प्रथम 2 पंक्ति में 13,11 यति के साथ फिर अग्रिम 2 पंक्तियों 11,13 यति के साथ लिखा जाता है। दोहे का अंतिम चरण तीसरी पंक्ति में पुनः दोहराया जाना अनिवार्य होता है। साथ ही इस बात का भी विशेष ध्यान रखना होता है कि जिस शब्द से शुरू किया है उसी शब्द से अंत करना भी अनिवार्य होता है।साथ एक बात और ध्यान रहे कि इसके तुकांत क्रमागत 2 , 2 पंक्ति के समतुकांत रहेंगे। 

ध्यान रहे यह कुण्डलियाँ नहीं है। आप कुण्डलियाँ के शिल्प के लिए मेरी पहले की पोस्ट देख सकते हैं ।
कुंडलिनी 
दोहा + अर्ध रोला 

ध्यान रहे इस छंद को मापनी से नहीं लिखा जाता पर व्यवस्थित कलन लय के अवरोध समाप्त करने में सफल सिद्ध होते हैं 
22 22 212, 22 22 21
22 22 212, 22 22 21 
22 22 21, 12/21 2 22 22
22 22 21, 12/21 2 22 22

आइये इसे उदाहरण से देखते और समझते हैं ....

कुंडलिनी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

सावन भादों में पड़े, रिमझिम नित्य फुहार।
गौरी गीतों में करे, अपनी विरह पुकार॥ 
अपनी विरह पुकार, मिले साजन मन भावन। 
बाहर बरसे बून्द, आग भीतर दे सावन॥ 


भारत में अभियान नित, चला रहे हैं लोग। 
सीख सिखाते योग हैं, यही मिटाये रोग॥ 
यही मिटाये रोग, सभी को प्राप्त महारत।
सब हों लोग निरोग, तभी चमकेगा भारत॥


टूटी खटिया में पड़े, चारों वर्ण उदास। 
बिन पाए की खाट ये, केवल मेरे पास॥ 
केवल मेरे पास, कहें सब ऐसी बूटी। 
तोड़े को दे जोड़, जुड़ी फिर दिखती टूटी॥ 


खूंटी के जो लाभ हैं, समझें कब परिवार। 
कितना भी सामान हो, टांगो वो तैयार॥ 
टांगो वो तैयार, नहीं टपके ज्यूँ टूंटी। 
ले लेती सब भार, हमारे घर में खूंटी॥ 


चोटी भी गुणवान है, देती ये संदेश। 
तीन लटा में गूंथ दो, अपना ये परिवेश॥ 
अपना ये परिवेश, सभ्यता संस्कृति घोटी। 
मानव के आदर्श, दिखाती है ये चोटी॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत खिलखिलाई ये धरा ●संजय कौशिक 'विज्ञात'●


नवगीत 
खिलखिलाई ये धरा 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~ 16/14 
अंतरा ~~ 16/14 

बादलों ने ली अंगड़ाई, 
खिलखिलाई ये धरा भी। 
सावनी लहरें लंगराई, 
खुसफुसाई ये धरा भी॥ 
 
1
कैशोर्य रूप यौवन झलके,  
महके चारों दिश न्यारी। 
उपवन हर्षित हो कर महके,
पुलकित तन की फुलवारी। 
रस रंगों से  भरी कगारें,
यौवन की बढ़ती क्यारी। 
अंग-अंग श्रृंगार सजाकर, 
बनी सुंदरी  मनोहारी।

कंपित करते शब्द मेघ सुन, 
हरहराई  ये धरा भी।
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई ये धरा भी।

2
बाह्य आवरण कर आकर्षक, 
अन्तस् धड़कन तेज कहे।
नेह कल्पना कर साजन से, 
संदेशे फिर भेज कहे।
नदी प्रवाहित भरे हिलौरें, 
ज्यों सागर की सेज कहे।
और समर्पण मर्यादित सा, 
सच्चा ये पंकेज कहे।

सोच अचंभित दृश्य मनोरम,
लहलाहाई ये धरा भी।
बादलों ने ली अंगड़ाई, 
खिलखिलाई ये धरा भी।

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

@vigyatkikalam

Sunday, February 16, 2020

नवगीत कल्पना के गाँव संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~ 14/14
अन्तरा ~~14/14 

कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा॥ 
और जीवन नाव भटकी, 
ढूंढती अब तक किनारा॥ 

चांदनी की बात सुनकर, 
चाँद भी कुछ मौन ठहरा। 
जानता है वो तमस को, 
कष्ट कारक खूब गहरा। 
वो खड़े तारे यहाँ पर, 
दे रहे है सख्त पहरा।
क्यों भटकती फिर रही है, 
चाँदनी को ओट लहरा।

क्यों मुड़ नभ ताकती है,
कौन देता है सहारा। 
कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा॥

2
उर्मि सागर की मचल कर, 
धड़कनों सी जो धड़कती।
सीपियाँ मोती  उगलती,
पूछती सी कुछ फड़कती।
शंख जितने गूंजते हैं, 
और ज्यादा ही भड़कती।
सह रहे हैं व्याधियाँ सब, 
टूटती कितनी कड़कती

यूँ समय की उर्मियाँ कुछ, 
कर लहर को फिर इशारा।
कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा।

3
भाव नदिया से बहें जब, 
वो मचल के उल्लास भरते। 
बोलती वो व्यंग धारें, 
उर जगा आक्रोश करते।
वो नदी तट रेत पसरा,
हर्ष देता पाँव धरते।
सूर्य नभ से फिर चमक कर, 
कष्ट तम के नित्य हरते।

तप रहे हैं आज कण-कण, 
उन कणों ने भी पुकारा। 
कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा। 


संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, February 15, 2020

नवगीत जीवन-मरण संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत
जीवन-मरण
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/16

संदेह नहीं कुछ भी बाकी,
सब खुशियों का हुआ हरण था।
दिखने को जीवित हूँ अब तक,
मेरा वर्षों पूर्व मरण था।


1
आँधियों से लड़ लेता मैं,
खेल रहा था तूफानों से।
शीतलहर विपरीत हवा से,
जलती लू के सब तानों से।
उसी कष्ट की सरगम बनकर,
महक उठी मेरे गानों से।
राग मल्हारी तुमने गाया,
फिर बरसे कंटक दानों से।

हर्ष पूर्ण रहना जीवन भर,
उत्तम तेरा निराकरण था।
दिखने को जीवित हूँ अब तक,
मेरा वर्षों पूर्व मरण था।

2
नभ द्युति गिरके फिर उठ जाती,
वही पराक्रम दिखता तेरा।
आलिंगनबद्ध हुई हिय से,
पर्णकुटी में नहीं बसेरा।
लहर गगन सी फिर गायब थी,
ढूंढ न पाये फिर वो डेरा।
विडम्बनाएं बड़ी भाग्य की,
भाल रेख भी चमके मेरा।

व्यथित कथित अध्याय तिरस्कृत,
जिसका अंतिम यही चरण था
दिखने को जीवित हूँ अब तक,
मेरा वर्षों पूर्व मरण था।

3
आज अराजक तत्व बना जो,
किसके कारण कौन कहेगा।
पीर पर्वती सहके भीतर,
बनके झरना कौन बहेगा।
पलक फलक पर मेघ कहाँ तक,
देने कब तक साथ रहेगा।
उर्मि सिंधु की कहती दिखती,
कब तक कितना मौन सहेगा।

शंका करके मोड़ा था मुँह,
उस दिन टूटा प्रथम परण था॥
दिखने को जीवित हूँ अब तक,
मेरा वर्षों पूर्व मरण था।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, February 14, 2020

लावणी छंद ◆प्रतिबिम्ब◆ ●संजय कौशिक 'विज्ञात'●



लावणी छंद
◆प्रतिबिम्ब◆
●संजय कौशिक 'विज्ञात'●
          लावणी छंद एक सम मात्रिक छंद है। इस छंद में भी कुकुभ और ताटंक छंद की तरह 30 मात्राएं होती हैं। 16,14 पर यति के साथ कुल चार चरण होते हैं । और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत समतुकांत रहते हैं। इसके चरणान्त में वर्णिक मात्रा भार का कोई विशेष सुझाव नहीं है।बस अंत गाल नहीं हो सकता है। रचना के अनेक बन्ध के अंत में 1 गुरु 2 लघु 2 गुरु आ सकते हैं यही लावणी है
30 मात्रा ,16,14 पर यति,अंत वाचिक {गा} द्वारा करें
चौपाई (16 मात्रा)+ 14 मात्रा
आइये देखते हैं लावणी की एक रचना .....


लावणी छंद (आधारित गीत)
शिल्प विधान
16,14 पर यति
दो-दो पंक्ति समतुकांत
अंत में गुरु लघु अनिवार्यता मुक्त

बिम्ब पुत्र प्रतिबिम्ब पौत्र हैं, जहाँ बुढापा रीत गया।
उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥

खो-खो कँचें रस्सी कूदो, और पुराना खेल गया।
गिल्ली डंडा, चोर सिपाही, गिट्टे का वो मेल गया।
तेल कहाँ वो सरसों में अब, रहटों का संगीत गया।
उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥

नीचे घर ऊंची मर्यादा, गाँव गाँव में मिलती थी।
सिर पे पल्लू हया आँख में, सुंदरता तब खिलती थी।
देख आधुनिक चलन काल के, मन क्यों हो भयभीत गया।
उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥

बागों के वो ताज़ा फल जो, चोरी चुपके खाते थे।
माली लिये शिकायत घर तक, पीछे-पीछे आते थे।
झूल झूलते थे सावन में, आधा रह वो गीत गया।
उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥

केवल कागे स्वर आलापें, कोयल का स्वर भूल गए।
मित्र निभाते जहाँ मित्रता, अब तो वो घर भूल गए॥
धरा धारती हरित वसन जब, सरसों बूटी चीत गया।
उत्तम और श्रेष्ठ था बचपन, अपना था जो बीत गया॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, February 12, 2020

रोला आधारित गीत संजय कौशिक 'विज्ञात'





रोला छंद सममात्रिक छंद है। रोला छंद के चार पद (पंक्तियाँ) और आठ चरण होते हैं) इसका मात्रिक विधान लगभग दोहे के विधान के विपरीत होता है। अर्थात मात्राओं के अनुसार चरणों की कुल मात्रा 11-13 रहती है।
दोहा का सम चरण रोला के विषम चरण की तरह लिखा जाता है। इसके कलन विन्यास और अन्य नियम तदनुरूप ही रहते हैं।परन्तु रोला का सम चरण दोहा के विषम चरण की तरह नहीं लिखा जाता है।
प्राचीन छंद-विद्वानों के अनुसार रोले के भी अनेक प्रारूप दर्शाए गए हैं। जिसमें उनके चरणों की मात्रिकता भिन्न-भिन्न है। लेकिन मुझे रोला की मूलभूत और सर्वमान्य संरचना प्रिय लगी जिस अवधारणा का बहुतायात प्रमुखता से प्रचलन भी देखा गया है।
यहाँ प्रस्तुत उपरोक्त नियमों को फिलहाल रोला के आधारभूत नियमों की तरह लिया गया है 
विन्यास के मूलभूत नियम -
1 रोला के विषम चरण में कलन 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3 गाल तथा चरणांत गुरु लघु या ऽ। या 21 अनिवार्य रूप से रखने से लय उत्तम बनती है।
2. रोला के सम चरण में कलन संयोजन 3, 2, 4, 4 या 3, 2, 3, 3, 2 होता है. रोला के सम चरण का अंत दो गुरुओं (ऽऽ या 22) से या दो लघुओं और एक गुरु (।।ऽ या 112) से या एक गुरु और दो लघुओं (ऽ।। या 211) से होता है। एक बात का विशेष ध्यान रखना है कि रोला का सम चरण ऐसे शब्द या शब्द-समूह से प्रारम्भ करना है जो त्रिकल 12 या 21 हो। 
ध्यान रहे यह मापनी आधारित छंद नहीं है परंतु उत्तम लय लेने के उद्देश्य से इसको मापनी के माध्यम से भी समझा जा सकता है। इसका मुख्य उद्देश्य यही है 11,13 दोनों चरणों मे 1 मात्रा अधिक है जिन्हें यति से पूर्व अनिवार्य और यति के पश्चात त्रिकल में पूर्व या पश्चात प्रयोग करने से लय कभी भी बाधित नहीं हो सकती। 
22 22 21, 12 2 22 22 × 4 


रोला आधारित गीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

रोप चलो तुम आज, धरा पर नव वृक्षों को।
यही जीव के प्राण, सोच के सब पक्षों को॥

1
मिलें पेड़ से श्वास, सत्य ये जीवन अपना।
करते रोग प्रहार, पड़े फिर मर-मर खपना॥
करलो सब सम्मान, यही है विधि की रचना।
मिले न दुष्परिणाम, हुई गलती से बचना॥

व्याकुल भूखा बाल, ढूंढता माँ वक्षों को।
यही जीव के प्राण, सोच के सब पक्षों को॥

2
बहे शुद्ध जब वायु, निरोगी हो तब काया।
पर्यावरण प्रभाव, बिना हल क्यों हर्षाया॥
धन का लालच त्याग, कुल्हाड़ी को भी त्यागो।
भू का प्रेम अगाध, नींद गहरी से जागो॥

धरती के सब पुत्र, समझलें सच अक्षों को
यही जीव के प्राण, सोच के सब पक्षों को॥

3
बरसे तपती आग, छाँव तब ढूंढे सारे।
दिखता कब फिर पेड़, ग्रीष्म लू की जब मारे॥
एक चला अभियान, गाँव में बाग लगादो।
तरुधन करे समृद्ध, गाँव के भाग्य जगादो॥

जिज्ञासा के प्रश्न, सभी हल दो यक्षों को।
यही जीव के प्राण, सोच के सब पक्षों को॥

4
फल से रस हो प्राप्त, युवा सब हों बलशाली।
महंगाई का अंत, मिटे सारी बदहाली॥
कितने होंगे लाभ, समझ यदि ये सब पाएँ।
कौशिक लालच छोड़, सभी हम पेड़ बचाएँ॥

उन्नत होकर लोग, चखें उत्तम भक्षों को। 
यही जीव के प्राण, सोच के सब पक्षों को॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, February 10, 2020

गीतिका छंद (वर्णिक) संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीतिका छंद (वर्णिक) 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

विधान: गीतिका वार्णिक छंद को गण और मापनी के माध्यम से देखते हैं ..... 
{सगण जगण जगण भगण रगण सगण+लघु गुरु}
{112  121  121  211  212  112  12}
20वर्ण, 10-10 वर्णों पर यति,
4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत लेने हैं 


अब हो गई अति देखिये,
               नित पाप हों कलिकाल में।
जकड़े विकार विनाश के 
                  सब रो रहे इस हाल में॥

यह क्रोध अग्नि जला रही , 
               करते नहीं जन प्यार क्यों ?
सब ढोंग को पहचानते , 
                पर कौनसा उपकार क्यों ? 

परदा पड़ा यह मोह का , 
                      अपने सगे सब दूर हैं।
दृग बंद वो करके चलें
                      यह रोग भी भरपूर हैं॥

धनवान हों सब चाहते ,
                     नर लालची बन घूमते।
हक मारते निज भ्रात का ,
                     बरबाद वो कर झूमते॥

अपने अहम् मद में घिरे , 
                सबको झुका कर यूँ चलें।
यह तर्क संगत है नहीं , 
                 फिरभी सभी कब हैं टलें॥

कहते पुराण व वेद जो , 
                  घटना घटे दिन रात वो।
कलिकाल पंचपदी चढ़ा , 
               सिर नृत्य तांडव घात वो॥

इसका प्रभाव घटा सके ,
                 रट नाम केवल राम का।
पढ़ प्रेम "मानस" में लिखा
         यह सार "कौशिक" काम का॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, February 9, 2020

इन्दवशा छंद संजय कौशिक 'विज्ञात'





इन्दवशा छंद  संजय कौशिक 'विज्ञात' 
इंदवशा छंद वार्णिक छंद है। इस छंद का शिल्प बहुत ही सरल है 12 वर्ण होते हैं । इस छंद में एक गुरु को दो लघु करके लिखने की अनुमति नहीं है। दो चरण तुकांत सम तुकांत रहेंगे। आइये इसे मापनी और गण के के माध्यम से समझते हैं। 
विधान~
मापनी- 221   221   121  212
गण- तगण तगण जगण रगण 
12वर्ण,4 चरण
दो-दो चरण समतुकांत 

इंदवशा छंद आधारित गीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा 

रिश्ते व नाते व्यवहार चाहिये।
आना निभाना बस प्यार चाहिये॥

1 अन्तरा 
आह्वान कीजे मनुहार कीजिये।
आओ सभी आज पुकार कीजिये॥
आधार ये जीवन सार चाहिये ....

2
जो मांगते मित्र उधार दीजिये।
पूंजी खरी ब्याज नकार दीजिये॥
साथी रहो यूँ हरबार चाहिये ....

3
रिश्ते निभाने सब जानते नहीं।
स्वीकारते भूल व मानते नहीं॥ 
देखो खुशी के दिन चार चाहिये ...

4
लोभी निभाता कब प्रेम साथ में।
ढोंगी दिखाये कब देख हाथ में॥
मौका मिले तो प्रतिकार चाहिये ...

5
ये त्याग देखो बलिदान माँगते।
सच्चा व अच्छा बस ज्ञान माँगते॥
ज्ञानी गुणी सा परिवार चाहिये ...

6
यूँ शादियों में बस शोर देखलो।
रूठे मनायें सब ओर देखलो॥
कोई कहे तो गणकार चाहिए ...

7
छोटे बड़े भी सब प्यार से रहें।
'विज्ञात' ये मान रहे सभी कहें॥ 
ये छोड़ना आज विकार चाहिये ... 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, February 8, 2020

चौपई / जयकारी छंद संजय कौशिक 'विज्ञात'



चौपई /  जयकारी छंद संजय कौशिक 'विज्ञात'


चौपई एक सममात्रिक छन्द है। इस छन्द में चार चरण होते हैं। चौपई के प्रत्येक चरण में 15 मात्राएँ होती हैं जिसका अंत गाल गुरु लघु से किया जाता है । इस छंद की लय बहुत आकर्षक होती है बाल साहित्य के लिए यह छंद सबसे उत्तम बताया जाता है। 
चौपाई की 16 मात्राओं में से अंत की एक मात्रा घटा दी जाती है और उसे गाल लिखा जाता है आइये इसे उदाहरण देख कर आसानी से समझते हैं 


बचपन 

बचपन वाले नन्हें हाथ, 
सदा निभाते सबका साथ।
दादी जब सहलाती माथ, 
दादा बन जाते तब नाथ॥

तितली परियों की वे बात, 
सुनते जब हो जाती रात।
बंदर की फिर चढ़ बारात, 
नाचे भालू हाथी तात॥ 

नाना के घर प्यार अपार, 
मिलता इतना लाड दुलार।
नानी की बातों का सार, 
समझा कब बचपन व्यवहार॥ 

लौट नहीं सकता वो काल, 
करते थे जब खूब धमाल। 
बचपन की मस्ती की चाल, 
आती हैं वो याद कमाल॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'







उदाहरण न. 2 भी देखें 

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चौपई 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

भारत का हिस्सा कश्मीर, जन-जन का किस्सा कश्मीर। 
दानवता पिस्सा कश्मीर, मांग बीस बिस्सा कश्मीर॥ 
अपनी हद भूला है पाक, रखता हरदम ये ही ताक। 
कितनी बार कटाई नाक, नहीं छोड़ता हठ ये काक॥ 

गिरगिट से जो बदले रंग, देख जमाना रहता दंग। 
ये नित करना चाहे जंग, पर कितने लाचार अपंग॥ 
मानवता का छोड़ लिबास, बैरी देखो लगता खास। 
रोज रचे षडयंत्र पचास, एक नहीं चलने की आस॥ 

भारत माँ के वीर सपूत, टूट पड़ें बनके यमदूत। 
लौह पुरुष ये हैं मजबूत, इनसा कौन दिखे अवधूत॥
एक तिरंगा सबकी शान, बोल उठे गर हिंदुस्तान। 
फिर आयेगा वो तूफान, बह जायेगा पाकिस्तान॥

आतंकी गतिविधि दे छोड़, सभी निकालें पाक मरोड़।
समझाया समझो ये तोड़, फिर समझायें छाती फोड़॥
मातृभूमि की  रख लें लाज, टूट  पड़ेंगे  बनके   बाज।
सुन सको सुनो इनकी गाज, विश्व विजेता भारत आज॥

संजय कौशिक 'विज्ञात' 




Friday, February 7, 2020

नवगीत: लिखूँ तो क्या लिखूँ ? संजय कौशिक 'विज्ञात'








नवगीत 
लिखूँ तो क्या लिखूँ ?
संजय कौशिक 'विज्ञात'


संसद की तस्वीर लिखूँ ,
या प्रजातन्त्र की पीर लिखूँ।
जनता आज अधीर लिखूँ, 
या अन्तः चीरम चीर लिखूँ। 

भूख सताए भूखे मरते, 
भीख मांग कर कुछ खाते हैं।
विवश हुए ये देख विवशता 
कहाँ कष्ट औषधि पाते हैं।
संसद से संबंध बताया,
बस मत अपना अपनाते हैं।
चिंतन चिंतित नहीं कहीं भी, 
बिना भाव के घबराते हैं।
दूध फटे की खीर लिखूँ ,
या निर्धनता प्राचीर लिखूँ।

चीख सुनी कब उस पंडित की,
संसद भवन चैन से सोता।
रोक पलायन सकी न संसद,
घर-दर अपनी बारी खोता।
बिना जुती पर्वत की खेती
शोर मचाती जो ये बोता।
लोकतंत्र ने छाप लगाई, 
बेबस स्वयं सदा ही रोता।
केसर का कश्मीर लिखूँ ,
या वो खूनी तासीर लिखूँ।

कहाँ सुरक्षित बहन बेटियाँ, 
लाचारी से हैं नित भक्षित।
संसद शिक्षित जहाँ विवेकी, 
पढ़ा लिखा पारंगत दीक्षित। 
रही उपेक्षित सदियों से यह
चित्र यही होता परिलक्षित। 
एक सुगंधित बस सामग्री, 
नहीं कहीं से भी जो रक्षित। 
बिखरे से मंजीर लिखूँ ,
या मैला निर्धन चीर लिखूँ।

राज्य धर्म भाषा की सीमा, 
सबको किसने बाँट दिया है।
अपने अपनों से जुड़ जाते, 
किसने धागा काट दिया है।
थूका किसने किसके मुँह पर, 
किसने उसको चाट दिया है।
कौन किसे देता सिंहासन, 
किसने किसको टाट दिया है।
धर्मों को ही धीर लिखूँ ,
या ठेकेदारी वीर लिखूँ।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, February 6, 2020

छंद :- पीयूष वर्ष/आनंद वर्धक आधारित गीत वीरता संजय कौशिक 'विज्ञात'





छंद :- पीयूष वर्ष / आनंद वर्धक
पीयूष वर्ष छंद सम मात्रिक छंद है 10,9 पर यति प्रति 2 चरण तुकांत समतुकांत रहते हैं। जिसमें 19 मात्राएँ रहती हैं। और 3, 10, 17 वीं मात्रा लघु {1} अनिवार्य रहती है।और अंत गुरु लघु रखना आवश्यक है। आइये मापनी और गण से समझते हैं 
मापनी - 212 2 21 22 2  12 
गण - रगण तगण मगण लघु गुरु 

छंद आनंद वर्धक:- इसी छंद तथ इसी मापनी में यति अनिवार्य न हो और अंतिम गुरु को  दो लघु-लघु 11 लिख देने की छूट से यह छंद आनंद वर्धक छंद का शिल्प बन जाता है। आइये इसे मापनी और गण से समझते हैं
मापनी - 212 2 21 22 2  111
गण - रगण तगण मगण नगण 

उदाहरण: 
छंद:- पीयूष वर्ष (आधारित गीत)

धारती जो भूमि, ऐसी धीरता।
काट दे जो शीश, वो ही वीरता॥ 

रोप दो ये बीज, योद्धा रक्त का।
बाग हो तैयार, ऐसे भक्त का॥ 
शक्त का ही शौर्य, छाती चीरता
काट दे जो शीश, वो ही वीरता॥ 

ध्वस्त होते नित्य, वो षड्यंत्र हैं।
सिद्ध वाणी सोच, सारे मंत्र हैं॥ 
यंत्र हैं वो नाद, देखो क्षीरता 
काट दे जो शीश, वो ही वीरता॥ 

आज बातें आम, होती देश से।
शांत हो माहौल, कैसे क्लेश से॥ 
भेष से ही पस्त, ये गंभीरता
काट दे जो शीश, वो ही वीरता॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत ●गुलाब● संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
गुलाब 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

देख गुलाब खिला डाली पर, 
तितली कितनी दमक उठी।
लाल कपोल अधर रतनारे,
रक्तिम आभा चमक उठी।

1
बाग बहारों से सम्मोहित,
पंख मयूरा खोल रहे।
देख बौर जो टहनी लटके,
कोयल से कुछ बोल रहे। 
तीव्र अनेक स्वरों की लहरें, 
कवि सागर को तोल रहे। 
और रहस्य बहुत से देखे, 
मिश्री में रस घोल रहे। 

अंबर छोड़ धरा पर पसरी, 
इंद्रधनुष की रमक उठी।
देख गुलाब खिला डाली पर, 
तितली कितनी दमक उठी।

विकसित पुलकित उस यौवन पर, 
उपमाओं की झड़ी लगी।
कुंड भरा भावों से दौड़ा,
स्वर्णाभा जब जड़ी लगी। 
सुंदरता में रति से उत्तम, 
दूर परी भी खड़ी लगी।
चोर सुरभि पाटल अवलोकनि,
इन शब्दों से बड़ी लगी। 

सृजन किये गीतों से ज्यादा,
अलंकार की छमक उठी।
देख गुलाब खिला डाली पर, 
तितली कितनी दमक उठी। 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, February 5, 2020

नवगीत: प्रीत अवगुंठन हटाकर● संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत: प्रीत अवगुंठन हटाकर 
◆ संजय कौशिक 'विज्ञात' ◆

मुखड़ा/पूरक पंक्ति~16/16
अंतरा~16/14

दिव्य ज्योति प्रभा परी सी,
जगमगाई रात भर।
प्रीत अवगुंठन हटा कर,
खिलखिलाई रात भर।

बैठ तरुवर ज्यों चकोरी,
चाँदनी बिखरी छटा में।
शाख-पल्लव-ओट में थी,
उमड़ती काली घटा में।
एकटक नैना निहारें,
रश्मियों की घन लटा में।

चाँदनी छनकर द्रुमों से,
झिलमिलाई रात भर।
प्रीत अवगुंठन हटा कर,
खिलखिलाई रात भर।

भाव की ठंडी बयारें,
कुछ तरंगें छोड़ती-सी।
ओढ़नी को ओढ़ कर वो,
यूँ झरोखे मोड़ती-सी।
आह निकली एक मुख से,
और साँसें तोड़ती-सी।

कोकिला अवरुद्ध स्वर से,
तिलमिलाई रात भर।
प्रीत अवगुंठन हटा कर,
खिलखिलाई रात भर।

झींगुरों की घंटियों से,
तेज धड़कन हो रही कुछ।
सनसनाहट मौन पसरा,
प्रीत की धारा बही कुछ।
दीप की वो गुनगुनाहट,
सुन सही बाती रही कुछ।

ले पतंगा लौ जली फिर,
कसमसाई रात भर।
प्रीत अवगुंठन हटा कर,
खिलखिलाई रात भर।

मोहिनी नाजुक अदाएँ,
देखता सब वक्त छुपके।
प्रीति की मधु रागिनी को,
सुन रहे दिग्पाल चुपके।
हर भ्रमर कहता कली से,
प्रीत मधुरस खूब टपके।

उर्मि,सागर-सीप क्रीड़ा,
लहलहाई रात भर।
प्रीत अवगुंठन हटा कर,
खिलखिलाई रात भर।

संजय कौशिक 'विज्ञात'  

@vigyatkikalam

नवगीत मधुमास संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत
मधुमास
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14

गीत अनुपम राग सरगम,
गूँजते मधुमास में फिर।
देख भँवरा,कोकिला को,
घूमता विश्वास में फिर।

1
रंग वासंती छटा के,
मुग्ध तन-मन कर रहे थे।
फिर विशेषण ढूँढ़ कर कुछ,
गुण अलंकृत भर रहे थे।
ज्यों समाहित संधि करती,
यूँ चमत्कृत वर रहे थे।

युगल संस्कारी मनोहर,
दृश्य बैठे पास में फिर।
गीत अनुपम राग सरगम,
गूँजते मधुमास में फिर।

2
मंजरी उस आम की जब,
फूट कर निकली वहाँ से।
वो महक कुछ बावली सी,
बाग में बरसी कहाँ से।
कौन अटकल से बचाए,
दूर थी थोड़ी जहाँ से।

वाक्य माँगे शब्द जैसे,
वर्ण बढ़ते आस में फिर।
गीत अनुपम राग सरगम,
गूँजते मधुमास में फिर।

3
ये मधुर संसार कितना,
देख मधु मक्खी बताए।
वो शहद को ढूँढ़ती है,
जो कसैले से बचाए।
मास का संदेश इतना,
पाठ मीठे का पढ़ाए।

सीख इससे ले बढ़ो कुछ,
हो लगन सुखवास में फिर।
गीत अनुपम राग सरगम,
गूँजते मधुमास में फिर।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

@vigyatkikalam