copyright

Monday, September 27, 2021

कह मुकरी : संजय कौशिक 'विज्ञात'

कह मुकरी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

शिल्प विधान 
कह मुकरी विधान

      कह मुकरी काव्य की एक पुरानी परन्तु बहुत आकर्षक विधा है। यह चार पंक्तियों की कविता है। इस विधा में दो सखियाँ परस्पर वार्तालाप करती हुई दर्शाई जाती हैं। जिसकी प्रथम 3 पंक्तियों में पहली सखी अपनी दूसरी अंतरंग सखी से अपने साजन के विषय में अपने मन की कोई बात कहती है। परन्तु यह बात कुछ इस प्रकार कही जाती है कि अन्य किसी बिम्ब पर भी सटीक बैठ सकती है। जब दूसरी सखी उससे यह पूछती है कि क्या वह अपने साजन के बारे में बतला रही है, तब पहली सखी लज्जित सी चौथी पंक्ति के दूसरे हिस्से में अपनी कही हुई बात से मुकरती हुई कहती है कि नहीं वह तो किसी दूसरी वस्तु के बारे में कह रही थी।

        यह छंद 16 मात्रिक चौपाई वाले विधान पर ही निर्मित होता है। 16 मात्राओं की लय, तुकांतता और संरचना बिल्कुल चौपाई जैसी होती है। पहली एवम् दूसरी पंक्ति में सखी अपने साजन के लक्षणों से मिलती जुलती बात कहती है। तीसरी पंक्ति में स्थिति लगभग साफ़ पर फिर भी सन्देह जैसे कि कोई पहेली हो। चतुर्थ पंक्ति में पहला भाग 8 मात्रिक जिसमें सखी अपना सन्देह पूछती है यानि कि प्रश्नवाचक होता है और दुसरे भाग में (यह भी 8 मात्राओं) में स्थिति को स्पष्ट करते हुए पहली सखी द्वारा उत्तर दिया जाता है।

हर पंक्ति 16 मात्रा, अंत में 1111 या 211 या 112 या 22 होना चाहिए। इसमें कहीं कहीं 15 या 17 मात्रा का प्रयोग भी देखने में आता है। न की जगह ना शब्द इस्तेमाल किया जाता है या नहिं भी लिख सकते हैं। सखी को सखि लिखा जाता है।

        अंतिम बिम्ब दृश्य बिम्ब होने से मुकरी का अर्थ स्पष्ट प्रमाणित भी होता है और मुकरी का उद्देश्य भी सार्थक प्रतीत होता है।

       इस विधा में योगदान देने में अमीर खुसरो एवम् भारतेंदु हरिश्चन्द्र जैसे साहित्यकारों के नाम प्रमुख हैं ।

विज्ञात की कह-मुकरी


बिम्ब बनाया उसने प्यारा।
लगता है जो सबसे न्यारा।
प्यारी सी छवि हिय पर उकरी।
क्या सखि साजन! ना कह-मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



खूब चलाता उसकी चलती।
बात भला कब उसकी टलती।।
कुछ बातों से है वो खोटा।
हे सखि साजन! ना सखि लोटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



एक हिमालय सा जो तपता।
सिंधु लहर ज्यूँ वो नित जपता।
शौर्य बना है उसका वल्कल।
हे सखि साजन! ना सखि वाष्कल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




वो बाह्यान्तर श्रेष्ठ सुगंधित।
विश्व सकल में नित है चर्चित
एक लगे ना हे सखि अटकल।
क्या सखि साजन! ना सखि पाटल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



पतझड़ का हो जैसे पत्ता।
और उड़ाता मक्खी छत्ता।
सुलग रहा पर लगता प्यारा।
हे सखि साजन! ना सखि हारा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


नदियों की धारा से खेले।
बहते झरने कितने चेले।
दम्भ मिटा भरते हैं गागर।
हे सखि साजन! ना सखि सागर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


गर्म हवाओं ने झकझोरा।
तान रहा है जब वो बोरा।
शीतलता का सीखा आसन।
हे सखि साजन! ना सखि बासन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


द्रवित नेत्र का वो ही कारक।
हास्य बना दे ऐसा मारक
भाग्य सराहे मेरे बाँटे।
क्या सखि साजन! ना सखि काँटे।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


सन्नाटों ने जिसको चीरा।
फिर भी दिखता वो है धीरा।
पल- पल उसको देता टाकी।
क्या सखि साजन, ना एकाकी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


मेरे वे अपने से दिखते।
मैं उनको वे मुझको लिखते।
नित्य रात भर वे फिर काटे।
क्या सखि साजन! ना सन्नाटे।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


मुरली गूँजे ढपली बजती।
रागों की कुछ सरगम सजती।
ताल बजाता बन पूरबला।
क्या सखि साजन, ना सखि तबला।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


हाथ पकड़ घर मे ले जाती।
सेवा करती नेह जताती।
चाय पिलाती मधुकर प्याली।
क्या प्रिय सजनी, ना प्रिय साली।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


इठलाता है वो बल खाता।
मेरा उससे मीठा नाता।
लाता है वो मेरा पीजा।
क्या सखि साजन! ना सखि जीजा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


क्षमा याचना नित ही मांगे।
तोड़े मन इच्छा से टांगे। 
वही मिटाये हिय का प्यार।
क्या सखि साजन ? ना  सरकार।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



अधर सुर्ख से नेत्र पिपासित।
नाक जँचे शुक सी आकर्षित।
सुंदरता की वो है पुड़िया।
हे सखि सौतन ? ना सखि गुड़िया।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




मौन शिथिल सा देख खड़ा है।
बंद अधर या बंध जड़ा है।
उसका है उर में सम्मान।
क्या सखि साजन ? ना उद्यान।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




श्वेत वर्ण की सुंदर काया।
देख जिसे अन्तस् हर्षाया।
गाती वो मेरा हर गान।
क्या प्रिय सजनी ? ना चट्टान।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




चिकना है वो मीठा मीठा।
चमक रहा जैसे ये रीठा।
कहता उसको कोई कलुवा।
हे सखि साजन ? ना सखि हलुवा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




खिला खिला सा प्यारा लगता।
श्वेत रंग का पल-पल ठगता।
ऐसा सुंदर उसका गात।
हे सखि साजन ? ना सखि भात।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सही समय पर जो दिख जाती।
रूठे मन को वो हर्षाती।
हर उलझन का श्रेष्ठ उपाय।
क्या प्रिय सजनी ? ना प्रिय चाय।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हो कितने दुख हँसता मिलता।
देख उसे मन उपवन खिलता।
स्पर्श उसी का चाहूँ पल-पल
हे सखि साजन ? ना सखि पाटल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




रोटी जब रोटी को खाती।
दुबली कुछ मोटी हो जाती।
इस भारत की वही कहानी।
हे सखि नेता ? न राजधानी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हुडदंगों की ऐसी होली।
रंग अबीरी संध्या डोली।
वो छाती पर लगती प्यारी।
क्या प्रिय गोरी ? ना पिचकारी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




अर्ध कलश वो सिर पर लेकर।
सम्मोहित करता कुछ देकर।
उसका तीर नहीं है तुक्का।
क्या सखि साजन ? ना सखि हुक्का।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



तोल तराजू रोटी बाँटे।
झुकते उठते उसके काँटे।
बनता है वो न्यायिक सा नर।
हे सखि साजन ? ना सखि वानर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'





मार चुकी है वो तो कितने।
गिने नहीं जा सकते इतने।
उससे डरती सारी दिल्ली।
हे सखि सौतन ? ना सखि बिल्ली।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हरा भरा कुछ पीला दिखता।
जीवन की श्वासों को लिखता।
अधरों का वो है मिष्ठान।
हे सखि साजन ? ना सखि धान।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


कह मुकरी

उसका रूप विचित्र निराला।
इतना मोटा काला-काला।
उसको देख काँपता दर्प।
हे सखि साजन ? ना सखि सर्प।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


भावों की ये महके धरणी।
डूब सके कब तैरे तरणी।
शक्ति सदा देती वो रविता।
क्या प्रिय सजनी ? ना प्रिय कविता।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


चील समान दिखे वह नारी।
काली ही दृष्टि रही सारी।
बातें उसकी रहती सनदी।
हे सखि सौतन ? ना सखि ननदी।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


शब्द वाक्य का रस बन जाता।
कुनबे का यूँ साथ निभाता।
दिखता वो जैसे हो सेठ।
हे सखि साजन ? ना सखि जेठ।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


नहले पर दहले की बारी।
पीर गुलाम सहे फिर सारी।
वो राजा बन माँगे पानी।
हे सखि इक्का ? ना सखि रानी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


बाहर भीतर भटके जाती।
मोड़-तोड़ लो लटके जाती।
बजती है उसकी नित पुंगी।
हे सखि सौतन ? ना सखि लुंगी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सरपट दौड़े सबसे आगे।
तेज और तेजी से भागे।
मारे उसका टैम्पो चाटा।
हे सखि साजन ? ना सखि टाटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


दर्जन बालक पैदा करती।
गली-गली में मारी फिरती।
डूब गई है उसकी लुटिया।
हे सखि सौतन ? ना सखि कुतिया।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




गुज्जर की घरवाली बोले।
मस्त पवन जब बहकी डोले।
महक रहा वो बनके इत्र। 
हे सखि साजन ? ना सखि मित्र।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



उसको ही गोदी ले खेले।
मेल मिलाए जिनसे मेले।
उसे रुलाये बाल विवाह।
हे सखि साजन ? ना सखि दाह ।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


जब बालक से फिर गठ जोड़ा।
पहली चूड़ी को ना फोड़ा।
नित्य रुलाये उस को आह।
हे सखि साजन ? ना बहु ब्याह।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


टुकुर-टुकुर वे ऐसे देखे।
पढ़ लेते हैं सारे लेखे।
खोल उड़ें वे अपनी पाँखें।
क्या सखि साजन ? ना सखि आँखें।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



देखूं मुख में पानी आये।
मेरे मन को यूँ ललचाये।
दिखने में वो हट्टा-कट्टा।
हे सखि साजन ? ना सखि खट्टा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



दूर बहुत जब पग हूँ चलती।
उसकी छाया पल-पल छलती।
दुख दे वो उल्लू का पट्ठा।
हे सखि साजन ? ना सखि गट्ठा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



गीत सुरीला उसका बजता।
पूजा करती जब वो सजता।
गोल-गोल रखता वो अंटा।
हे सखि साजन ? ना सखि घंटा।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


पनघट पर मैं जब नित जाती।
सखियाँ सारी गीत सुनाती।
उसके सिर पर मढ़ती टंटा।
हे सखि साजन ? ना सखि बंटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


वेणी सी वो लेती लटका।
आकर्षक उसका ये झटका।
चाळा की वो दिखती घूंटी।
हे सखि सासू, ना सखि खूंटी।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'



भरी पोटली जल की धारा।
भर लाया हो सागर सारा।
देख खड़ा वो बनकर बंबू।
हे सखि साजन ? ना सखि नींबू।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




जो भी दे दूँ सब ले-लेता।
स्वयं नहीं फिर वापिस देता।
करता है वो पल-पल चाळा।
हे सखि साजन ? ना सखि आळा।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'



यौवन रग-रग से यूँ दमके।
रक्त वर्ण से लगते चमके।
और दिखे वो जैसे हो बम।
हे सखि साजन ? ना सखि कोकम।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'





पीत वर्ण की स्वर्णिम काया।
वृक्ष तले फिर बैठा पाया।
अधर कहें वो दिखते ही चख।
हे सखि साजन ? ना सखि अमरख।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




अपने गुण का वो है राजा।
और बजे नित उसका बाजा।
कुटता-पिटता वो ज्यूँ अभ्रक।
हे सखि साजन ? ना सखि अदरक।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




च्यूंटी काटी, वसन उतारे।
श्वेत अंग सब प्यारे प्यारे।
लाती उसको हाथों से चुन।
हे सखि साजन ? ना सखि लहसुन।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




रिक्त सदा मुख जिसका पाए।
देखूँ मुझको खटका जाए।
दिखता वो भारी सा गैंडा।
हे सखि साजन ? ना सखि पैंडा।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




बातों की वो खाल उतारे।
व्यंग्य खरा सा नित ही मारे।
कर लेती है वो यूँ अनबन।
हे सखि सौतन ? ना सखि समधन।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




दृग कोरों में बसता अंजन।
स्वप्न सदा रह जाता गंजन।
सदा वही फिर जाता छोड़।
हे सखि साजन ? ना सखि मोड़।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'



कार्य सभी मन चाहे करता।
उल्टा जल नदिया में भरता।
दिखता वो सूखा सा लक्कड़।
हे सखि साजन ? ना सखि फक्कड़।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




कितने प्यारे गुण वो प्यारा।
कहते हैं जग से जो न्यारा।
शुद्ध बना दिखता वो सारस।
हे सखि साजन ? ना सखि पारस।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



आगंतुक के कष्ट मिटाए।
सारा निज धन स्वयं लुटाए।
उसका मन है पावन निर्मल।
हे सखि साजन ? ना गंगा जल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



बैठ वहाँ फिर सूटा मारा।
देख अलौकिक बोल पुकारा।
और अचानक फिर वो भागा।
हे सखि साजन ? ना सखि नागा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



जो आता वो धोक लगाता।
भूल नहीं फिर कोई पाता।
रूप दिखे उसका है बड्डा।
हे सखि साजन ? ना सखि गड्डा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सुरसा मुख सा बढ़ता जाए।
वो अपना अस्तित्व दिखाए।
उसने सारा काज बिगाड़ा।
हे सखि साजन ? ना सखि भाड़ा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


श्रमिक बना सब कारज करता।
भोर काल में पानी भरता।
दिखती आँखें वो कब सोई
हे सखि साजन ? ना ननदोई।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



काली ऐनक भूरे मुख पे।
मैं चिंतित हूँ उसके दुख पे।
एक आँख से वो है काणी।
हे सखि सासू ? ना ! जेठाणी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



आते-जाते को वो रोके।
भार अधिक हो तो यूँ टोके।
नोट छापता उसका डाका।
हे सखि साजन ? ना सखि नाका।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


अनुपम प्रिय आकर्षण उत्तम।
मधुर बोल में रस है सत्तम।
दृश्य बिम्ब वो अद्भुत चुलबुल।
हे सखि साजन ? ना सखि बुलबुल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



पैरों में सूजन दिखलाती।
भारी पग संकेत बताती।
बात सदा कहती वो सुल्टी।
हे सखि सासू ? ना सखि उल्टी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



दांडी वाला नृत्य रचाया।
तन को पूरा लाल बनाया।
नित्य चिढ़ाये उसे अबीर।
हे सखि साजन ? ना सखि पीर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



गोल-गोल आकार लिये है।
अद्भुत सा व्यवहार लिये है।
तोड़-हाड़ वो जाता खेलन।
हे सखि साजन ? ना सखि बेलन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



सोने का आकार लिये है।
पित्तल का व्यवहार लिये है।
लाखों का है उसका ये मन।
हे सखि साजन ? ना सखि निर्धन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



दिन भर कितना बोझ उठाता।
बुग्गी को भी नित्य चलाता।
पूर्ण काम का उसका कोटा।
हे सखि साजन ? ना सखि झोटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


हाड़ चमकते दुर्बल काया।
पात्र दया की रचती माया।
दिखती वो सूखी सी पटड़ी।
हे सखि सासू ? ना सखि कटड़ी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


भाप क्रोध की उफने जाती।
गीत द्वेष के भी कब गाती।
चाल चले वो आंडी-बांडी।
हे सखि सासू ? ना सखि मांडी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


ये आधार सुना बन जाती।
थपकी के बिन सदा सुलाती।
बने राबड़ी की वो दस्सी।
हे सखि सौतन ? ना सखि लस्सी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


चुटकी भर ही नेह जताए।
और हृदय में फिर घुल जाए।
मिटा पिपासित दे वो पीरा।
हे सखि साजन ? ना जलजीरा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सार वेद का सदा सुनाता।
सबके मन को वो है भाता।
उसकी बातें सबने मानी।
हे सखि साजन ? ना सखि ज्ञानी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सूर्य तपिश का बरसे सावन।
जेष्ठ मास लगता मन भावन।
भले हुआ वो तप के तापड़।
हे सखि साजन ? ना सखि पापड़।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



बहुत प्रेम से नित सहलाए।
सीधा करती जब बल खाए।
उलझ गया वो सारा देश।
हे सखि साजन ? ना सखि केश।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




भीतर जाकर पट को खोला।
मौन शब्द से सबकुछ बोला।
आज उठी हिय उसकी हूक।
हे सखि साजन ? ना संदूक।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




चिकनी देह चमकती काया।
पकड़ूँ उसको मन में आया।
लुढ़क गया वो आँगन कूद।
हे सखि साजन ? ना अमरूद।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




अटक गया कैसे क्या बोलूँ।
राज भला अब फिर क्या खोलूँ।
उसके आगे सब कुछ फीका।
हे सखि साजन ? ना सखि टीका।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




पूर्ण विश्व ये है आकर्षित।
सकल सृष्टि में है यूँ चर्चित।
उसकी भाषा चमके हिंदी।
हे सखि साजन ? ना सखि बिंदी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




कब छोटा कब गुरु बन जाता।
गूढ़ रहस्य मुझे ना भाता।
समझ सके कब वो मति मंद।
हे सखि साजन ? ना सखि छंद।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




जो कह दूँ वो बातें माने।
अब कब जाती हूँ समझाने।
बिंध लिया है जब उसका मन।
हे सखि साजन ? ना सखि यौवन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



योग भोग है वहम बताए।
सृष्टि चराचर तो भटकाए।
उसके हिय में बसे उदासी।
हे सखि साजन ? ना सन्यासी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



कच्चेपन का ये डर रहता।
जब सहलाऊँ आता बहता।
उलझ चले पर वो बन ऊत।
हे सखि साजन ? ना सखि सूत।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




भार बहुत वो तन को तोड़े।
मुड़े नहीं कोई भी मोड़े।
लाख सँभालूँ उसकी चूक।
हे सखि साजन ? ना बंदूक।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




जोर लगाकर ऐसा पटका।
पटका बैठे देखा झटका।
झटका उसे गया वो दौड़।
हे सखि साजन ? ना सखि मौड़।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




वही चलाता है ये गाड़ी।
बात उलझती की है झाड़ी।
नित्य बढ़ाये वो निज मोल।
हे सखि साजन ? ना पैट्रोल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




रूप बदलता नित प्रति अपना।
कठिन बहुत रूपों को जपना।
कड़ुवा सा है उसका ये छल।
हे सखि साजन ? ना सखि डीजल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'





हाथ हिले कब पाँव हिलाती।
और बैठ आदेश चलाती।
भरी हवा की वो प्यारी धुन।
हे सखि मरियल ? ना सखि टुनटुन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




कुटे-पिटे तब सीधा होता।
वरना दिखता अड़ियल खोता।
सुनती उसकी हूँ नित गूँज।
हे सखि साजन ? ना सखि मूँज।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




भारी भरकम पेठे जैसा।
सदा लुढ़कता बिल्कुल वैसा।
उसकी चमड़ी जाती सूज।
हे सखि साजन ? ना तरबूज।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




जोर लगाकर पकड़ रगड़ती।
घिसती उसको नहीं झगड़ती।
और पुनः वो माँगे खट्टा।
हे सखि साजन ? ना सिलबट्टा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




रंग अलग है चिकना मोटा।
चमके जैसे नूतन लोटा।
और करे वो झट आलिंगन।
हे सखि साजन ? ना सखि बैंगन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हास्य सभ्य सा करे ठिठोली।
और पहेली की है गोली।
कहें लोग वो दिखती फुकरी।
हे सखि सौतन ? ना कह मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सर्प समान चले बल खाकर।
भावों की वेणी लटका कर।
लोग कहें उसको अब रुक री।
हे सखि तुमको ? ना कह मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'





मुकर गई है अपनी कहके।
भावों को जो फिर से गहके।
सखी कहें उसको कुछ झुक री।
हे सखि सासू ? ना कह मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



एक कलम ने तोड़ लिखाया।
काव्य विधा का जोड़ बताया।
उसकी उसमें आती धात।
हे सखि कविता ? ना विज्ञात।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


पर्व दिवाली सा बन जाता।
घर में जब नूतन जन आता।
उस पर और विशेष प्रलाभी।
हे सखि साजन ? ना सखि भाभी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



घात यही वो पलटे वाणी।
और छुड़ा दे अपनी ढाणी।
तन-मन करदे वो पाषाण।
हे सखि साजन ? ना सखि बाण।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


सदा उसे ही चाहे ये मन।
और नहीं चाहे कोई धन।
मांगे नित वो एक अनार।
हे सखि साजन ? ना बीमार।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



लटक झटक कर कदम बढ़ाये।
और शंख सा पुनः बजाये।
अनुपम उसका लगता खेल।
हे सखि साजन ? ना सखि रेल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




शब्द तोलने सभी सिखाये।
भाव हृदय में तब जँच पाये।
सीख रही हैं उसकी हितकर।
हे सखि साजन ? ना सखि गुरुवर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


देख लहर फौरन उठ जाता।
और हार कर बैठा पाता।
उसका भरना है बस चर्चा।
हे सखि साजन ? ना मत पर्चा।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'



खड़ा हुआ जब सरपट चलता।
चिकना मटका पल-पल छलता।
वो यमुना ले जाए काशी।
हे सखि साजन ? ना प्रत्याशी।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




उठे झुके फिर से पड़ जाता।
इससे ज्यादा कुछ ना आता।
काम यही है उसका माड़ा।
हे सखि साजन ? ना सखि गाड़ा।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




आलिंगन में रखे समेटे।
भर दे जो कम्पन के पेटे।
वो सर्दी का प्यारा तोड़।
हे सखि साजन ? ना सखि सोड़।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'





फूलों जैसा अद्भुत चमके।
और अकेला प्यारा दमके।
चढ़ ऊपर वो लगता साफ।
हे सखि साजन ? न सखि लिहाफ।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




चिकना-चिकना वो ललकारे।
युद्ध क्षेत्र की बाट निहारे।
रोता है वो खाकर पंजा।
हे सखि साजन ? ना सखि गंजा।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




पूरी नरम मुलायम दिखती।
भूल वही ये कविता लिखती।
खटक बढ़ाता उसकी नूण।
हे सखि साजन ? ना सखि मूण।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'



बहुत मनोरंजन सा करती।
अश्रु बहाकर ठुमके भरती।
दिखती वो मुख से अक्षेत्री।
हे सखि सासू ? ना अभिनेत्री।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




बाहर भीतर का दुख सुलझे।
नहीं किसी से भी यूँ उलझे।
वो सिखलाये नव्य प्रयोग।
हे सखि साजन ? ना उद्योग।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'



निश्छल से जो भाव सजाए।
और उन्हें अपना कह जाए।
वो पावन सी एक पवित्री।
हे सखि सासू ? ना कवयित्री।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'