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Tuesday, March 31, 2020

गीत : मुरलिया : संजय कौशिक 'विज्ञात'




गीत
मुरलिया
संजय कौशिक 'विज्ञात'

बोल कहाँ हैं तान सुरीली
बोल मुरलिया बोल बता।
विस्मित कृष्ण अचंभित कहते,
व्याकुल हिय मत और सता।

1
बाँसुरिया अवरुद्ध पड़ी है,
राधा जब से बिछड़ गई।
रूठा रूठा हर स्वर देखा,
सरगम तबसे पिछड़ गई।
गीत वृक्ष सब भूल गये से,
भूल गई धुन आज लता।
विस्मित कृष्ण अचंभित कहते,
व्याकुल हिय मत और सता।

2
शुष्क नदी की अविरल धारा,
मेघ वहाँ से जल भरते।
चंदन से कुछ ब्याल लिपट कर,
फिर आहट से भी डरते।
पूछ रहे फिर प्रश्न अनेको,
उठते से फण आज पता।
विस्मित कृष्ण अचंभित कहते,
व्याकुल हिय मत और सता।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : टूटी कलम : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
टूटी कलम 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 14/14 

तोड़ दी ये लेखनी क्यों, 
गूंजते वो गीत पूछें। 
बादलों की पीर बहती,
फिर नयन बन भीत पूछें।

1
उर्मियों से भाव उमड़ें, 
खिलखिलाती वेदनाएं।
आँधियों से तर्क देखा, 
और उलझी सी लटाएं।
हार मेरी लिख चुकी थी,
प्रश्न मुझसे जीत पूछें।

कुछ नई सी कोपलों के, 
शाख से जब युद्ध ठहरे।
फिर कलम लड़ती रही नित, 
कौन देता दर्द गहरे।
व्यंजना का वर्ण दोहन, 
सीखने की रीत पूछें।

3
स्वर कहें बहके हुए से, 
बाँसुरी बज कर दिखादे।
हम नहीं दें साथ तेरा, 
तू तनिक अस्तित्व लादे।
दूध से जो जल चुका था,
आज उससे सीत पूछें।

4
संग छोड़े जब तिमिर ने,
शेष सम्बल लुप्त छाया।
नित्य ठुकराया गया जो, 
रिक्त है सब कुछ गँवाया।
त्याग कर खुशियाँ गई फिर, 
और दुख मिल नीत पूछें।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, March 30, 2020

नवगीत : महका गायन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
महका गायन 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/16

चिर परिचित यौवन सा महका, 
कली पिपासित महका गायन।
व्याकुलता की बजी बाँसुरी, 
विरह भ्रमर का सुन गुंजायन।

अमृत का तारुण्य कलश वो,
नख शख तक सौंदर्य मनोहर।
लिखे कल्पना कवि सौ मिलकर, 
उससे भी कुछ श्रेष्ठ धरोहर।
विश्व मोहिनी जल भर लाये, 
उर्मि वारती लाखों गौहर।
इंद्र चन्द्र भी आहें भर के, 
देख बनाना चाहें व्योहर।
कृति अनुपम सी जग सृष्टा की, 
सोच रची अद्भुत विश्वायन ........

2
रति लज्जित उस कामदेव की,
वो निज अवगुंठन जब खोले।
नेत्र कटारी से मारक हैं,
शांत चित्तमय वो कुछ बोले।
भौंह कमान चढ़ी प्रत्यंचा, 
ताकत तीर हृदय की तोले।
रतनारे अधरों के हिलते, 
रक्त धमनियाँ धीरज डोले।
तरुणाई लालित्य प्रलोभन, 
शील नदी का चाहे स्नायन ....

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : हँसता पाटल : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
हँसता पाटल 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/14


कंटक के आंचल से निकला, 
खिलता सा पाटल हँसता।
तूने क्या उपहार समेटा,
जो दो धेले सा सस्ता।

फिर जीवन के इस पड़ाव में, 
एक खुशी महकाई है।
हर्ष पूर्ण यौवन सी खिलकर,  
एक कली चहकाई है।
भ्रमित हुई या भ्रमर गान पर, 
किसने वो बहकाई है।
मादक मारक खिली हुई सी, 
चिर अद्भुत तरुणाई है।
आकर्षण का केंद्र पूर्ण वो, 
क्षण क्षण उसमें है बसता .....

2
कल्पित कहूँ अप्सरा उसको, 
मनभावन सा रूप कहूँ।
खिली शरद की रात चांदनी, 
या दिनकर की धूप कहूँ।
स्वर्ण चिड़ी सी चहके जब वो, 
कोयल चहक अनूप कहूँ।
शीतल पुंज भरा भावों का, 
गहरा सुंदर कूप कहूँ।
दिखती रात तीसवीं तिथि पर, 
दीप्त दीप भीतर चसता ...

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, March 29, 2020

नवगीत : सिंदूरी साँझ : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सिंदूरी साँझ
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~18/17


सिंदूरी  साँझ के अस्तांचल में, 
धुंधलापन क्यो गहर गया है।
चला नहीं लहरी क्षण क्यों आगे,
देख किसको फिर ठहर गया है।

1
अकुलाहट कुछ हिचकाहट  देखी,
इस क्षितिज के आँचल में रुककर। 
समय उड़ाने भर कर उड़ता था, 
मोर पंखों को खोले  झुककर।
आज अचानक वो लय क्यों टूटी,
शांत चितवन भी लहर गया था

2
कश्ती जब तट को खोज रही थी,
उर्मियाँ सागर की बोल उठी।
अवगुंठन मदमाई सी संध्या,
देख यौवन उसका खोल उठी।
जब अन्तस् में ज्वाला सी दहकी, 
टूट क्रंदन का फिर कहर गया ....

3
मांग सुसज्जित सी देख सितारे, 
और ज्यादा से जब चमक चले।
शशि की कांति अदृश्य भले दिखती, 
आस तारों की थी दमक चले। 
घर के आंगन तक हँसता आया, 
चंद्र नभ मण्डल में फहर गया।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : डरावनी रातें : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
डरावनी रातें 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/16 

डरावनी सी रातों में क्यों
दरक गया मेरा ये जीवन।
श्वेत उजाला क्यों लड़ बैठा, 
भड़क गया करके वो अनबन।

1
झंकृत वीणा से स्वर फूटे, 
अटक अटक कर तान बनी।
राग बजाये मोहक सारे, 
उच्चाटन की पहचान बनी।
अन्तस् धरणी बंजर दिखती, 
उठता सा धूम श्मशान बनी।
बहुत थूकते बहुत चबाते, 
कत्थे का मीठा पान बनी।
इन सबसे मन ऊब चुका अब, 
धड़क अटकती हैं कुछ धड़कन....

2
हृदय विदारक मौन छिपाये, 
मंथन का ही ज्ञान लिया जब।
आत्म चीख के सन्नाटों को, 
भाग्य स्वयं का मान लिया जब।
दृश्य मनोहर लिए कटारी, 
उनको अपना जान लिया जब।
अस्त्र उन्हीं ने सीधे हमपर, 
पीछे से आ तान लिया जब। 
अर्पण हृदय किया था जिसको, 
पलट मांगता वो ही गर्दन .... 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : तड़पती लेखनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 
तड़पती लेखनी 

मापनी~~ 14/14 


फिर तड़पती लेखनी यूँ,
बिम्ब चमके जब अनूठे।
डूब के अम्बर निहारा, 
वो नदी के साथ रूठे।

कष्ट के कारण मिले जब, 
पीठ से खंजर निकाले।
दृष्टि से ओझल हुए वो, 
दे चुके थे लाख छाले, 
दृश्य अनुपम ताल ठोके,
और मर्यादित व झूठे.....

2
जल रही हिय की करूणा, 
राख आँधी ने उड़ाई।
शब्द का डूबा समर था, 
वेदना की अंगड़ाई।
फिर नहीं अंकुर हुए वो,
भाव बिखरे देख पूठे.....

3
वर्ष भर कितने समेटे, 
कुछ महीनों के लिए जब। 
न्याय करता ये समय भी, 
बुझ गए लाखों दिए जब।
क्रूर क्षण के ठोकते से,
दे विदारक पीर मूठे .....

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : पतझड़ का कष्ट : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
पतझड़ का कष्ट 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा
झूलता जीवन नदी का,
तट खड़े उस झाड़ जैसा।
कष्ट से भयभीत मन है, 
दर्द फटती दाड़ जैसा।

1
ये व्यथा की पीर ऐसी, 
आज पतझड़ से अधिक फिर। 
दृग सुखाती ऋतु यहाँ पर, 
देख चल ठहरे पथिक फिर। 
बोझ से कुछ शाख झुकती, 
और टूटी नाड़ जैसा....

2
पूछ हरियाली कहाँ है, 
ये हृदय कुछ ढूंढता सा।
स्वयं से पुलकित हुआ अब, 
और फिर कुछ रूठता सा।
कांति विद्युत की गिरी जब, 
और फूटा भाड़ जैसा....

3
काँप उठती देह सारी,
पग शिखा तक देख दर्पण।
जो कभी उपहार पाए, 
वो सभी कर आज अर्पण।
सर्प फिर घर में घुसा जब, 
बिल बना बिन पाड़ जैसा....

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, March 28, 2020

नवगीत : क्षोभ : संजय कौशिक ' विज्ञात'


नवगीत 
क्षोभ
संजय कौशिक ' विज्ञात' 

मापनी~~ 14/14

क्षोभ का भाजन बने जब,
खूब बादल फिर बरसते।
बाँट ते उपहार देखो, 
दृश्य जितने भी तरसते।

1
देख आकर्षक मनोहर,
वो घटा घनघोर अनुपम।
वारते सब भूमि पर हैं, 
ये सुधामय जल सुरोपम।
व्यक्ति पूछे प्रश्न जितने, 
दे उन्हें उत्तर सँवरते.....

देख खुशबू की लहर फिर, 
गा रही कुछ गीत उत्तम।
फिर खुशी महकी उठे तब
इंद्र धनुषी रंग सप्तम।
ये हवा जो प्राण बसती,
कह रही चहुँ दिश विचरते...

3
गूंजते है झुनझुने से,
लावणी गाती दिशाएँ।
धूप मिलकर चाँदनी से, 
दृश्य कुछ अच्छे बनाएँ।
नेत्र से जल धार बहती,
दृग पटल ये फिर निखरते....

संजय कौशिक ' विज्ञात'

नवगीत : बिलखा अम्बर : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
बिलखा अम्बर 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14

चमक उठी यह देख चांदनी,
धरणी पर था वर्ण धवल।
रोया कब वो बिलखा अम्बर, 
दिखती है फिर बून्द नवल।

बाह्य अलंकारों ने पूछा, 
भीतर कितनी घात बड़ी।
विरही छुप छुप जली चांदनी,
जागी भटकी रात बड़ी।
ओस रूप में बह कर टपका, 
पसरा दिखता देख जवल .... 

2
संध्या सिंदूरी सपने से, 
महक उठी थी चहक बड़ी।
नभ मण्डल के तारे गाते, 
अन्तस् धुन दे लहक बड़ी।
दिखा शरद के अंगारो से,
जगी व्यथा का ग्रसित कवल.... 

3
उर्मि धड़कनों सी बतियाती, 
ज्वाला सा फिर फूट गया।
अंतरंग के संबंधों का, 
अति प्रिय सा कुछ छूट गया।
गीत सुरों की गली गुजरता, 
सुन कर उमड़े भाव प्रवल।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

लघुकथा : प्रेम की परिभाषा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


प्रेम की परिभाषा 
 संजय कौशिक 'विज्ञात'

           मयंक! मेरा रास्ता छोड़ो कहते हुए स्नेह ने दो कदम आगे बढ़ाये ही थे कि मयंक दो कदम पीछे हटते हुए बोला नहीं पहले मेरे प्यार के इस गुलाब को स्वीकार करो।
       स्नेह ने हाथ के इशारे से इंकार करते हुए कहा कि आपको यह गुलाब अपनी पत्नी को देना चाहिए उससे बड़ा आपका कोई मित्र नहीं हो सकता। मयंक बात काटते हुए हुए बोला स्नेह मैं तुमसे अथाह प्यार करता हूँ।
       पर मेरा प्यार मेरा पति है स्नेह ने कहा .... पर वो तो तुम्हारी पड़ोसन के साथ भाग गया है ना? फिर कैसा प्यार? मंयक को पुनः समझाते हुए स्नेह ने कहा कि मैं नारी हूँ, कभी किसी भी नारी पर अत्याचार नहीं करती और न ही कभी सहन ...... 
        मयंक ने कहा तो गुलाब स्वीकार न करके तुम स्वयं पर अत्याचार नहीं कर रही हो....? 
नही... बिल्कुल नहीं- स्नेह ने कहा, मैं पति के गैर जिम्मेदार होने का कष्ट अच्छे से समझती हूँ।
       तो स्नेह तुम भी समझदार हो जाओ और गुलाब स्वीकार कर लो। अपने पति के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार का हिसाब बराबर कर सकती हो ....
          इस पर स्नेह ने कहा नहीं जो कष्ट और पीड़ा मैं भुगत रही हूँ, वही कष्ट और पीड़ा मैं स्वयं किसी भी महिला को कैसे दे सकती हूँ ? फिर भले ही वह तुम्हारी पत्नी ही क्यों न हो .....
        मयंक अवाक देखता रहा और स्नेह अपनी बात कहकर ऑटो में बैठ चुकी थी।

संजय कौशिक विज्ञात

Tuesday, March 24, 2020

नवगीत : कोरोना का शृंगार : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
कोरोना का शृंगार
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~14/14 


देख रतनारे अधर ले, 
कामुकी सी कामिनी वो। 
भय अजब देती वहाँ पर,
जब निकट थी दामिनी वो॥  
 
देख के शृंगार दर्शक, 
आह कुछ पाषाण भरते।
फिर क्रिया जितने कलापें, 
दृश्य मोहक लोग मरते।
कुछ भटकते ताकते से, 
चाँदनी थी यामिनी वो। 

तीव्र श्वासें थामते से, 
हाथ हिय पे धर पुकारे।
मौन बोला फिर शहर ये, 
कौन ये परियाँ उतारे।
मारने का यंत्र लेकर, 
दौड़ती गज गामिनी वो।

देख कर सौंदर्य अद्भुत, 
फेरते हैं लोग मुखड़े।
जो तड़पते खाँसते से,
हँस रहे हैं आज दुखड़े।
सोच कोरोना डरे हैं, 
दिख रही है भामिनी वो।

4
बांध कर मुख आज चलती, 
देख फूलन सी जवानी।
विष भरी बहती हवाएं, 
लिख रही हैं नव कहानी।
शव कहे क्रंदन करो कुछ, 
मौन पसरा धामिनी वो।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : चुभती खुशियाँ : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
चुभती खुशियाँ 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


मापनी~~ 14/14 

बंद आँखें ढूंढ लायें, 
स्वप्न वो आकर जगाता।
ये खुशी किसको गई चुभ, 
हर्ष भी कितना रुलाता॥

1
आज कण्टक क्षण प्रफुल्लित, 
और पुलकित वेदनाएं।
शूल उपवन में खिले से, 
पुष्प रज-कण में समाएं।
दीप आँधी को भुलाए, 
कर प्रकाशित जग दिखाता।

2
ये विरह शीतल लगा कुछ, 
कल्पना करती मिलन जब।
क्षण ठहर हिमखण्ड जैसा, 
श्वास सी जलती अगन तब।
वो समाहित सी सुगंधित, 
भावना बन खिलखिलाता।

3
लोहबानी तन बना यूँ, 
जो अधर छूते पिघलता।
या समर्पण मोम का था, 
स्पर्श चकमक ही निगलता।
बन हिमालय आज मिलता, 
उर्मियों को जो छकाता।

4
रागिनी का राग से फिर, 
और निष्कासन हुआ जब।
फिर भ्रमर ने गीत गाया, 
गुनगुना अन्तस् छुआ जब।
धुन मधुर डूबा खुआ जब, 
प्रेम के किस्से सुनाता।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, March 23, 2020

नवगीत : विश्वास टूटा : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
विश्वास टूटा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~~ 14/12 

अवरोध बन विश्वास टूटा, 
मन तड़पता रह गया।
फिर रोष से अन्तस् भरा तब, 
तन भड़कता रह गया।

1
प्रतिशोध को त्यागे हृदय क्यों,
आज यूँ उनके लिये।
अम्बर पटल से ताकता वो, 
प्रज्वलित लेकर दिये।
धरणी पुकारे नेत्र से फिर, 
छन अकड़ता रह गया।

2
नाविक किनारा छोड़ आया, 
जो भँवर फँसता चला।
षड्यंत्र ही कारण बना कुछ, 
छिद्र कश्ती का खला।
आज किस्सा याद है वो, 
कुण जकड़ता रह गया।

3
आदेश ऐसे मानता था, 
जब कही हर बात वो।
कहता अगर मैं रात को दिन, 
मानता था रात वो।
देखा उसी को आज मैंने, 
सुन कड़कता रह गया।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत :शब्द मसि का युद्ध: संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
शब्द मसि का युद्ध 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 14/14 

लेखनी थकने लगी तब
वर्ण रूठे और ज्यादा
शब्द मसि से युद्ध करते
मौन करते शोर ज्यादा

1
भाव बहके जिस गली में, 
बाग वो महका हुआ सा।
जो खटक देता रहा फिर, 
और अंतस को छुआ सा।
घुंघरू को तोड़ता अब, 
नाच कर मन मोर ज्यादा

काँपती थी उँगलियाँ वो,
लेखनी जिनको थमाई।
अब उन्होंने गर्व में भर,
क्यों हमीं पर यूँ उठाई।
वो गरज कर फिर बरसते
आज बन घनघोर ज्यादा।

3
देख कर जुगनू चमकता, 
जो स्वयं शशि दूर करते।
दम्भ पूरक ज्ञान के कुछ,
देख चर्चा में निखरते।
नेत्र भीगे से कहें वो,
शुष्क हैं कुछ कोर ज्यादा।

4
खोट क्रंदन है मनों में, 
जो उगलते गीत मेरे।
मौन ही हथियार थामा, 
भाग्य की है रीत मेरे।
है अँधेरे चीरने अब, 
और पानी भोर ज्यादा।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, March 19, 2020

नवगीत : दुर्भिक्ष : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
दुर्भिक्ष 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 14/14 

बिन बिजाई खेत में कुछ, 
मौत की फसलें खड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

1
मोरनी चिल्ला उठी कुछ, 
चीख अम्बर ने सुनी थी।
मेंढकों ने प्राण त्यागे,
कुछ यही सबकी धुनी थी।
आग की बरसात देखी,
और जलती वो घड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

2
ली नहीं कुछ भी डकारें,
चाब कर सत्तर युवा को।
अग्नि किसने फूंक दी यूँ,  
फिर बहे लू सी हवा को।
दागती वो मौत सबको, 
आस जीवन की कड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

स्वेद की नदियाँ बही पर, 
ये धरा प्यासी रही फिर।
बंध टूटे उन नदी के, 
बाढ़ भी सूखी बही फिर।
चींटियाँ अंडे उठाती,
बोझ के नीचे गड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, March 17, 2020

नवगीत : कुठाराघात : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
कुठाराघात
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/16 

सागर की लहरों के ऊपर, 
झूल रही जीवन की नौका।
देख कुठाराघात समय का,
ढूंढ रही खुशियाँ भी मौका।

1
एकाकी का अजगर जकड़े,
है बारात भले तारों की।
मित्र तिमिर है भाग्य हमारा, 
आज परख हो सब प्यारों की।
चमक रहे खद्योत कहाँ पर, 
दूर निकट फिर उन सारों की।
झींगुर कितने गूंज रहे हैं, 
और सुनें ध्वनि उन नारों की।

नाभि चुभी सूई की पीड़ा,
श्वान कहाँ से समझे भौका।
देख कुठाराघात समय का,
ढूंढ रही खुशियाँ भी मौका।

2
दूर खड़ा वो देख गगन ध्रुव, 
आज अकेला वो भी कहता।
सत्य अटल हिय शाश्वत सच सा, 
नित्य निरन्तर देखो दहता।
झूल रहा मैं जिन पलड़ों में, 
पीड़ा शूलों जैसी सहता।
पैर नहीं टिकते धरणी पर, 
अधर- अधर ही हर क्षण रहता।

दिव्य क्षणों की बल्लेबाजी, 
मार रही जो छक्का चौका।
देख कुठाराघात समय का,
ढूंढ रही खुशियाँ भी मौका।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, March 16, 2020

नवगीत : द्रवित हृदय : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
द्रवित हृदय 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~ 16/14 

बाँसुरिया के स्वर हैं रूठे, 
रूठ गई राधा रानी।
ठोस हृदय द्रव नेत्र बहाते, 
लज्जित यमुना का पानी।

1
वृक्ष कदम्ब लगें सब सूने,
सूनी गोकुल की गलियाँ।
वृंदावन की बगिया पूछे, 
बतियाती सी वो कलियाँ।
सर्व अदृश्य भ्रमर हैं तितली, 
लौट गई मधु की डलियाँ।
प्रेम पराग उड़ा है जबसे, 
मुरझाई हैं सब फलियाँ।

देख गोपनी फूट पड़ी जब, 
देखे उद्धव से ज्ञानी।
ठोस हृदय द्रव नेत्र बहाते, 
लज्जित यमुना का पानी।

2
शोक लहर का था सन्नाटा, 
सूंघ गया मानो विषधर।
देख निमंत्रण पत्र वहाँ अब, 
चर्चा थी सबके मुखपर।
अक्रूर बड़े निर्दय निकले, 
व्याधि छिड़ी अन्तस् आकर।
उपवन की कोयल मुरली के, 
रुद्ध स्वरों का था अवसर।

मौन बयार हुई मानो जब, 
विधि ये सच सबने मानी।
ठोस हृदय द्रव नेत्र बहाते, 
लज्जित यमुना का पानी।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, March 15, 2020

नवगीत : विपरीत समय : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
विपरीत समय 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/16

विपरीत समय की लहरों में,
आता हमको बहजाना है।
सिंधु लहर में कश्ती डोले,  
दे टक्कर आज बताना है।

1
ज्वार भले सागर का भारी, 
हमने ज्वारों को पाला है।
कश्ती में भी छिद्र बना है, 
जयचंदो का मुँह काला है।
साहस पृथ्वी जैसा मारक, 
गौरी जैसों को गाला है।
शब्द भेदते अस्त्र हमारे, 
लोहे का भारी भाला है।

शत्रु कहीं भी नहीं बचेगा, 
करले वो आज बहाना है।
विपरीत समय की लहरों में,
आता हमको बहजाना है।

2
राणा जैसी तलवारों को, 
जंग यहाँ क्यों सोच लिया है।
गिद्ध दृष्टि अवलोकित अम्बर, 
बिजली को भी नोच लिया है।
उद्वेलित बातों को देखा, 
देख वहाँ फिर पोच लिया है 
और हिमालय झण्डे गाड़े, 
नग को कर में बोच लिया है।

चीर अचल की छाती अब फिर, 
ऐसे लोहा मनवाना है।
विपरीत समय की लहरों में,
आता हमको बहजाना है।

3
हर बालक है शौर्य पुजारी, 
हर लड़की लक्ष्मी बाई है। 
शौर्य पताका हाथ उठाये, 
यह चंडिका महामाई है।
रक्तबीज को मार गिराये, 
ऐसी कोमल तरुणाई है।
आज समय के साथ बदलती, 
लेती मानो अँगड़ाई है।

चन्द्र धरा तक परचम लहरा, 
अब और कहाँ फहराना है।
विपरीत समय की लहरों में,
आता हमको बहजाना है।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, March 14, 2020

नवगीत : चिठ्ठी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
चिठ्ठी
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~ 14/14

पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
शुष्क से बरसात के घन,
पीर ऐसे खिलखिलाई।

1
लौटना घर चाहता है,
जो पखेरू उड़ चुका था।
वो समय जो बीत कर के,
धड़कनों में जो रुका था।
आह को कुछ खास करदे,
वाह मिलकर तिलमिलाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।

2
साथ जिसके एक दिन जब,
गाँव में खेड़ा धुका था।
संटियों के खेल से कुछ,
ये बदन खासा ठुका था।
आज यादें फिर रुलाये,
हाथ आकर कसमसाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।

3
सोचता मन रह गया था,
स्वप्न से बाहर निकल कर।
और अन्तस् कुछ दहकता,
पूर्व उससे ही सँभल कर।
आंसुओं से आँख भरती,
बस जरा सी डबडबाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, March 13, 2020

नवगीत : नेह हृदय कुछ बोल रहा था : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
नेह हृदय कुछ बोल रहा था 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~ 16/16 

नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल,
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।
अन्तस् बैठी प्रेम  ग्रन्थि को,
धीरे धीरे खोल रहा था।

प्राणप्रिया को ढूंढ व्यथित हिय,
खोज वनों में हार चुका था।
फैली जो शाखा कानन में, 
सबको देख विचार चुका था।
हिरदे पीड़ा छिपती कैसे,
बिन आत्मा तन डोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल,
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।

2
कण्ठ फँसे थे कंटक लाखों, 
रक्त बहा व्यवधान पड़ा था।
षड्यंत्र वहाँ खेला किसने, 
पीर सहित आघात कड़ा था।
मौन प्रकृति भी क्रंदन करती, 
अन्तः मन सब तोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल,
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।

3
लावा फटना शेष बचा था, 
धधक रहा था अंतर्मन में।
धीर विलाप करे सागर सा, 
रोता सा पर्वत उपवन में।
कितने झरने फूट रहे थे, 
दिखता वो अनमोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल,
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।

4
पत्थर से नारी करदे जो, 
हृदय अचल की देखी ज्वाला।
सहमे रोये मेघ वहाँ पर, 
चतुर्मास तक सहके छाला।
रीत गया भर पीप गया कुछ, 
हिय फोड़ा जब छोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल,
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।

विरह वेदना व्याकुल हिय की, 
काल बली अजगर सब निगले।
राम भटकते फिरते वन में, 
मार्ग रुद्ध थे सारे तिगले।
हार चुका मन ढूंढ ढूंढ कर, 
स्वर्ण हिरण का झोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल,
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, March 12, 2020

नवगीत यात्रा संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
यात्रा 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~14/14 

स्थाई 
पथिक को मिलता ठिकाना,
सतत यात्रा के सहारे।
चलें भूखे प्यास सहते,
नदी लहरों के इशारे॥ 

1
पखेरू फिर ढूंढते हैं,
बसेरा पल-पल कहाँ पर। 
कभी यात्रा पूर्ण दिखती, 
मगर वो छलती वहाँ पर।
चले धारा मीन बहती,
समझता आ मन यहाँ पर। 
जहाँ पर भी आज देखो,
झरोखे से दृश्य सारे।
पथिक को मिलता ठिकाना,
सतत यात्रा के सहारे।

2
तके अन्तस् मोर नाचे,
गरजते बादल दिखे तो 
तभी धुन दादुर सुनाये, 
जलद कुछ बूंदें लिखे तो। 
चमक जब जुगनू बिखेरे, 
अचल तक देखो शिखे तो ।
त्रिखे तो बढ़ते सदा हैं, 
महक मघुबन की पुकारे।
पथिक को मिलता ठिकाना,
सतत यात्रा के सहारे।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, March 11, 2020

प्रयाण नवगीत संजय कौशिक 'विज्ञात'


प्रयाण नवगीत 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/12 

वीर प्रयाण गीत अब लिख कर, 
फिर हुंकार भरेंगे।
सागर मसि की कलम गर्जना, 
वो ललकार भरेंगे।

1
अम्बर चुम्बी जयकारों से, 
रिपु दल होता कम्पित।
शस्त्र अस्त्र की व्याख्या भी ये,
वीर प्रभाव अकल्पित।
चर्चित शौर्य सिपाही बढ़के,
यूँ उदगार भरेंगे।
वीर प्रयाण गीत अब लिख कर, 
फिर हुंकार भरेंगे।

2
आतंकी की छाती दहके,
सब षड्यंत्र भुलाकर।
छंद धरे हैं वीर रसों में, 
निर्मित घोल धुलाकर।
खाट तखत सब छोड़ चुके हैं, 
जो संस्कार भरेंगे।
वीर प्रयाण गीत अब लिख कर, 
फिर हुंकार भरेंगे।

3
विजय तिलक ये भाल भले बन, 
लिखें गीत का मुखड़ा।
भारत माँ के हृदय कमल का, 
हर लेंगे सब दुखड़ा। 
भाव सभी में मानवता के, 
लाखों बार भरेंगे।
वीर प्रयाण गीत अब लिख कर, 
फिर हुंकार भरेंगे।

4
कष्ट मुक्त ये रहे भारती, 
आज मिटें अन्यायी
भगत, राजगुरु, आजाद खड़े,
कोटि खड़े अनुयायी।
कृष्ण पार्थ की इस धरती पर, 
यूँ टंकार भरेंगे।
वीर प्रयाण गीत अब लिख कर, 
फिर हुंकार भरेंगे।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, March 10, 2020

नवगीत क्रान्तिकारी ध्वज संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
क्रान्तिकारी ध्वज 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


ध्वज तिरंगा हाथ लेकर, 
इक हवा फिर से चलेगी।
देश हित निर्णय करेगी, 
फिर न टाले से टलेगी।

1
नित्य वो षड्यंत्र रचते, 
जो हिमालय तोड़ देंगे।
शक्ति उनकी देखनी है, 
क्या हवा को मोड़ देंगे।
क्रांतिकारी को भरोसा, 
लेख रक्तिम जोड़ देंगे।
लिख नया अध्याय उत्तम, 
नीच बातें छोड़ देंगे।
जो यहाँ अवसर भुनाये, 
कल नहीं दालें गलेगी।
ध्वज तिरंगा हाथ लेकर, 
इक हवा फिर से चलेगी।

2
फिर समय आया प्रसव का, 
आज मजहब बोल दे फिर।
ये प्रसूता कौन ठहरी, 
जो पिता को तोल दे फिर।
या अवैधा मात उनकी, 
भेद आकर खोल दे फिर।
नीच कारज नीच करता
जो गरल का घोल दे फिर।
जो हुतात्मा नाद करती, 
वो लता अबके फलेगी
ध्वज तिरंगा हाथ लेकर, 
इक हवा फिर से चलेगी।

3
सागरों की उच्च लहरें, 
गर्जना से हैं लजाती।
वो दमकती दामिनी भी, 
स्वप्न इनसे ही सजाती।
और झंझावात सीखे, 
वृष्टि में ओले बजाती।
क्रांतिकारी सोच से ही, 
शत्रु की माँ सुत भजाती।
जो अगर मारा गया वो, 
हाथ जीवन भर मलेगी।
ध्वज तिरंगा हाथ लेकर, 
इक हवा फिर से चलेगी।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, March 9, 2020

महा श्रृंगार छन्द पीर मन की संजय कौशिक 'विज्ञात'



महा श्रृंगार छन्द 
पीर मन की 
संजय कौशिक 'विज्ञात'


शिल्प विधान :- यह चार पक्तियों का छन्द है, प्रत्येक पक्ति में कुल 16 मात्रायें हो ती हैं। प्रत्येक पक्ति का अन्त गुरु लघु से करना अनिवार्य होता है, दूसरी व चौथी पक्ति में तुकांत समतुकांत रहेगा। विशेष ध्यान रखने योग्य कि इस छंद में तुकान्त मिलान  उत्तमता के उद्देश्य से प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ पंक्ति के तुकांत मिलान सर्वोत्तम आदि में त्रिकल द्विकल व अंत द्विकल त्रिकल से करना चाहिए। आइये अब इस छंद के शिल्प को उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। 
16 मात्रा प्रारम्भ 3+2 व अंत 2+3

पीर मन की 
संजय कौशिक 'विज्ञात'


ताकता प्रेमी मन श्रृंगार,
जहाँ गोरी करती आराम।
चाँद का चकोर पावन प्यार,
मेघ करता घूंघट का काम॥ 

चमक है चंद्र-किरण के तुल्य,
देख मुख मण्डल आभा तेज।
दृष्टिपात हुई वही अमूल्य, 
तभी देती संदेशा भेज॥ 

पीर मन की सहते दिन रैन,
आग तब विरह जलाती खूब।
धीर तन-मन खो देता चैन,
जले चिंगारी से ज्यूँ दूब॥ 

विवेकी दिखते कितने लोग,
यहाँ पर जाते हैं सब हार।
प्रेम संबंध कहो या रोग, 
करे मन में पल-पल विस्तार॥

मिले यदि मनको वो मन मीत, 
हर्ष पाता अंतः हरबार।
पथिक जाता मंजिल को जीत, 
प्रेम यूँ बस दर्शन का सार॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, March 8, 2020

नवगीत बाँसुरी के स्वर संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
बाँसुरी के स्वर 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 14/14 

स्वर अचानक बाँसुरी के
यूँ विरह से फूटते क्यों?
गीत सरगम ने सजाये, 
श्वास से फिर छूटते क्यों?

1
शून्य में फँसता गया मन, 
आवरण जो लांघ देते। 
ये तिमिर उस रात का भी, 
मौन से कर बात लेते।
स्तब्धता को कुछ मिटाकर, 
वो स्वयं से रूठते क्यों?
गीत सरगम ने सजाये, 
श्वास से फिर छूटते क्यों?

2
धड़कनों के शोर में कुछ, 
बंध अनुपम छंद बनते।
शांत नाड़ी हलचलों से, 
वारि से भी भाव छनते।
मन पिपासित लिख रहा है, 
काव्य उसके टूटते क्यों ?
गीत सरगम ने सजाये, 
श्वास से फिर छूटते क्यों?

3
मोर मन आँसू बहाये, 
दर्द पंखों में छिपाकर।
मेघ करते गर्जना तब, 
चुप कराये कौन आकर।
फिर समय की मांग ऐसी,
दे दिया तो लूटते क्यों?
गीत सरगम ने सजाये, 
श्वास से फिर छूटते क्यों?

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत होलिका दहन संजय कौशिक 'विज्ञात



नवगीत 
होलिका दहन 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 14/14 

हारती जब झूठ देखी,
जीत ने झण्डा उठाया।
होलिका जलती रही फिर,
बच निकल प्रह्लाद आया।

मूढ़ता हावी बहुत थी,
द्वेष विष अन्तस् भरा था।
पूर्णिमा की रात काली,
शशि ग्रहण ने यूँ हरा था।
राहु की शैतानियाँ में,
तामसी शासन खरा था।
मोक्ष वो निश्चित हुआ तब, 
चाँद ने यौवन दिखाया।
होलिका जलती रही फिर,
बच निकल प्रह्लाद आया।

2
बाप निष्ठुर मिल बुआ से
रच चिता को जब रहा था। 
बन पिता जल्लाद जैसा, 
यातना दे सब रहा था।
जीव अजगर की पकड़ में, 
फूल ऐसे तब रहा था।
पुत्र खाता श्वान भूखा, 
आज उसको भी लजाया।
होलिका जलती रही फिर,
बच निकल प्रह्लाद आया।

3
पाप घट जब-जब भरा है, 
फूटना तय सब समझते।
आतिताई को मिटाने, 
प्रभु हमारे रूप धरते। 
आज फिर नरसिंह बनकर, 
रवि प्रकट होकर चमकते।
लाख थे खद्योत मिलकर,
सब असर उनका मिटाया।
होलिका जलती रही फिर,
बच निकल प्रह्लाद आया।

4
तोड़कर तटबंध  नदिया, 
बाढ़ बन बर्बाद करती।
आज रिश्तों में चुभन थी, 
जो वहाँ आजाद करती।
फागुनी के मस्त झटके, 
वो लहर अब नाद करती।
ये विजय की दुंदुभी थी, 
शंख भी जिसने बजाया।
होलिका जलती रही फिर 
बच निकल प्रह्लाद आया।

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

गीत द्रुपद सुता तू शस्त्र उठाले संजय कौशिक 'विज्ञात'





गीत 
द्रुपद सुता तू शस्त्र उठाले
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~16/14 

द्रुपद सुता तू शस्त्र उठाले, 
इतना ही समझायेंगे।
कलयुग बना कृष्ण की बेड़ी, 
कैसे तुम्हें बचायेंगे।

1
शील स्वभाव तजो पांचाली 
स्वाभिमान के पाथ बढ़ो।
नीच कर्म के अत्याचारी, 
लेकर कर तलवार गढ़ो।
कंटक मार्ग प्रशस्त स्वयं हो,
गीता का वह सार पढ़ो।
गुप्त रूप से सम्बल इतना, 
आज तुम्हें दे जायेंगे।
कलयुग बना कृष्ण की बेड़ी, 
कैसे तुम्हें बचायेंगे।

2
सौम्य रूप से ज्वाला बनकर,
दुष्टों का संहार करो।
विजय पताका लहरे ऊँची, 
परिवर्तित ये हार करो।
रक्षित होगी जब मर्यादा, 
काली रूप विचार करो
अगर नहीं कर पाये रक्षण, 
मन ही मन पछतायेंगे।
कलयुग बना कृष्ण की बेड़ी, 
कैसे तुम्हें बचायेंगे।


3
भेद युगांतर बेड़ी फांसे, 
कर्म प्रधान जगत सारा।
लहरों को जो चीर सके फिर, 
सरल समय की वह धारा।
श्रेष्ठ मनोबल माध्यम युक्ति, 
हृदय शक्ति दे विस्तारा।
पार्थ सुनी जो श्रेष्ठ उक्तियाँ, 
सुनो उन्हें वे गायेंगे।
कलयुग बना कृष्ण की बेड़ी, 
कैसे तुम्हें बचायेंगे।

4
व्यर्थ बहाओ मत यूँ आँसू, 
मत अपना अपमान करो।
सभा प्रजा ये है अंधों की, 
शिव ताण्डव का ध्यान करो।
शौर्य वंश की पटरानी हो, 
मौन गरल मत पान करो। 
ईष्ट कहे ये शपथ दिलाकर,
मुरली नहीं बजायेंगे।
कलयुग बना कृष्ण की बेड़ी, 
कैसे तुम्हें बचायेंगे।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, March 7, 2020

गीत भीम का प्रतिशोध संजय कौशिक 'विज्ञात'





गीत 
भीम का प्रतिशोध 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~ 16/14 

देख द्रोपदी भीम अंजुली,
रक्त भरी ले केश धुला।
आज अतीत खड़ा है सन्मुख, 
वर्तमान में लिया बुला।

1
सौगंध उठाकर पूर्ण करी, 
अब भरतार तुम्हारे ने।
दुशासन की छाती फाड़ी,
भीम सखे इस न्यारे ने।
केश खुले कर स्नान सजा ले, 
बोला केशव प्यारे ने।
पूर्ण करो प्रण उद्यापन सा,
जीत लिया मन हारे ने।

अर्पित युद्ध विजय केशों को,
रखना मत अब इन्हें खुला।
देख द्रोपदी भीम अंजुली,
रक्त भरी ले केश धुला।

भीष्म पितामह शर शैया पर,
द्रोण कृपा गुरु भेंट चढ़े।
नारायण की सेना को भी, 
काल बली यूँ काट बढ़े।
एक शपथ या सौगंध बता, 
केश तुम्हारे भीम पढ़े। 
और लटा तुम खोल रही थी, 
कारण ये संघार गढ़े।

कौन अटल सच को झुठलाये, 
झूठ सका हैं कौन झुला।
देख द्रोपदी भीम अंजुली,
रक्त भरी ले केश धुला।

3
धर्म-पार्थ सहदेव नकुल के, 
शौर्य अलक सब लोग कहें।
कष्ट हृदय सुन केशव बोलो, 
कैसे हम ये तंज सहें।
दाह हस्तिनापुर शासन का, 
नेत्र हमारे नित्य बहें।
दोष कहाँ इसमें मेरा है, 
लोग लगा आरोप फहें।

आज पुनः सब सोच जरा लो, 
और उठाओ शब्द तुला।
देख द्रोपदी भीम अंजुली,
रक्त भरी ले केश धुला।

4
कुण्ड हवन की ज्वाला दहकी, 
अग्नि सुता सी जीम रही।
दहके हिय 'विज्ञात' कहे कुछ, 
जीभ भले दिख नीम रही।
और यहाँ पर किस कारण से, 
चीर फटे को सीम रही।
अलक खुले वो ज्वाला समझी,
गांधारी बन बीम रही।

दोष कहाँ तेरे केशों का,
मग्न खुशी मत और रुला।
देख द्रोपदी भीम अंजुली,
रक्त भरी ले केश धुला।

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

Friday, March 6, 2020

नवगीत होली हास्य संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
होली हास्य 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~ 16/14 

आज लगे ब्रह्मांड घूमता, 
इतनी पी लो भंग सभी।
होली मिलती नित्य रहे फिर, 
ऐसे रँगलो रंग सभी। 

1
रंग बिरंगी कुतिया देखी, 
कुत्तों पर होली छाई।
खूब पिटा जब कुत्ता ऐसे, 
तब बासन्ती मुस्काई।
मस्त पुरातन नारी का लठ, 
खाकर कुतिया चिल्लाई।
बूढ़े का सिर फोड़ दिया था, 
बिन चश्मे वह मस्ताई।

गोद लदा फिर वो गोरी के,
सीख यही लो ढंग सभी।
आज लगे ब्रह्मांड घूमता, 
इतनी पी लो भंग सभी।

आज अचानक भांग पकौड़े, 
थाली से दिखते उड़ते।
धूल धँसे कुछ प्रेमी नाचें, 
चटनी कीचड़ सी पड़ते।
साफ चमकती नाली ऐसी, 
अभियान स्वच्छ में जड़ते।
वृद्ध प्रेमिका ने लठ मारा, 
जबड़े हरबार उखड़ते।

नारी का सुन शौर्य यही था, 
देख जिसे हैं दंग सभी।
आज लगे ब्रह्मांड घूमता, 
इतनी पी लो भंग सभी।

3
होली का उद्देश्य समझ लो, 
आज कहे ये कवि प्यारा।
रंगों के स्वर गीत मधुर से, 
गाये धुन ये जग सारा। 
रंग बिरंगे पंख खुलें जब, 
मन मयूर झूमे न्यारा।
रंग अबीरी से मिल जायें, 
रंग बहे बनके धारा।

आप गुलाल बहे सरिता में, 
स्नान करें इस गंग सभी।
आज लगे ब्रह्मांड घूमता, 
इतनी पी लो भंग सभी।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, March 5, 2020

नवगीत होली के चुभते रंग संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
होली के चुभते रंग 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/14 

आँखों में चुभते से दिखते, 
होली के क्यों रंग सभी।
आज अचानक दर्पण देखे, 
द्रवित नेत्र से अंग सभी। 

1
हुड़दंगी सी आहट सुनके, 
कर्ण डगर से पीर उठी।
कोलाहल की ध्वनि अन्तस् मन,
दर्द अचानक चीर उठी।
सँभली सी कुछ निर्ममता की,
बिखरी सी वह धीर उठी।
परिवर्तन स्वाभाविक दिखता, 
आह हृदय के तीर उठी।

और बहकते हालातों में, 
फीके मादक भंग सभी।
आँखों में चुभते से दिखते, 
होली के क्यों रंग सभी।

2
पूछ रही कुछ प्रश्न चूड़ियाँ, 
हाथों से जो दूर पड़ी।
देख सुगंधित गजरा पूछे, 
सूख गई जो आज लड़ी। 
गरजी भी है बरसी भी है,
विधि विधना की देख कड़ी।
रंग बिरंगी बिंदी रोई, 
रहती थी जो भाल जड़ी।

होली का यह शोर अनोखा,
और अनोखे ढंग सभी। 
आँखों में चुभते से दिखते, 
होली के क्यों रंग सभी।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, March 4, 2020

होली हास्य गीत सा रा रा रा संजय कौशिक 'विज्ञात'





होली हास्य गीत
सा रा रा रा
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


1
रंग अबीरी जब उड़ा, करता खूब धमाल। 
छत पे जीजा देख कर, साली करे बबाल।।
चढ़ा बीबी का पारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

2
होली का उपहार ले, जीजा करता प्यार।
वक्र दृष्टि बीबी पड़ी, साली संग फरार।
लिया जब रंग सहारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

3
भर पिचकारी छोड़ता, बूढ़ा रंग अपार।
देख पुरातन यौवना, हँसती सोच विचार।
दिखे यौवन का मारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

4
मस्त फाल्गुनी की लहर, आकर्षण का केंद्र।
देख गुलाबो की महक, चहके खूब  महेंद्र।
हवा की बहकी धारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

5
हँसती खिलती ये धरा, देख दिशा चहुँ ओर।
फाल्गुन पर यौवन चमक, दिखते वृद्ध किशोर।
युवा मौसम ये प्यारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

6
हरियाणे की गौरियाँ, होली के ये काज। 
मारे सबको कोलड़े, बचके रहना आज। 
धड़ाधड़ सबको मारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

7
देवर हाथ अबीर ले, ढूंढे भाभी गाल।
बोला भाभी कोलड़ा, और बिगाड़ी चाल।
माजरा समझो न्यारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

8
देवर पिचकारी लिये, दौड़ा भाभी ओर। 
दाँव लगा भाभी गई, जाऊ करती शोर।
पिटा बीबी से हारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

होली खेलो आप जब, रखना इतना ध्यान।
प्रीत भरा ये खेल हो, बिगड़े कभी न मान।
लगे जो सबको प्यारा।
जोगीरा सा रा रा रा।

10 
उत्तम होली पर्व का, सार्थक ये संदेश।
रंगों से मिल-जुल रहो, सुंदर हो परिवेश। 
यही संदेश हमारा।
जोगीरा सा रा रा।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, March 3, 2020

नवगीत कलम के महारथी (व्यंग्य गीत) संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
कलम के महारथी (व्यंग्य गीत)
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/16 

सिद्ध हुई है कलम उन्हीं को,
लिखते जो बिन सोच विचारे।
कानी सी साहित्य धरोहर,
आँख दबाई बंद इशारे।

सिद्ध विवेकी मूढ़ कलम के, 
घूम रहे गलियों में बढ़के।
बिकती कविता स्वाद पकौड़ी, 
शब्दों की चटनी सी चढ़के।
चाय समोसे जैसी रचना,
छंद जले हैं इनसे न्यारे।

2
शिल्प विधान समास संधि से, 
रचना सिर से मुंडित पाली।
कविगण श्रेष्ठ गुणी अब उत्तम, 
क्या तुलसी, रस, करते काली।
वाह कहो इनको ये भूखे, 
लालच रूपी कीड़े सारे।

दिव्य दृष्टि उल्लू सी लेकर,
गिद्ध बने कुछ अद्भुत ज्ञानी।
एक कहें दो गीत पढ़ें जब, 
गणित हुआ है पानी-पानी।
साक्ष्य समीक्षक बगला कुल के, 
निम्न सभी जो लक्षण हारे।

4
ज्ञान उसे दो संजय कौशिक, 
पार्थ बने जो आज्ञा लहते।
कवि गुरुओं की ज्ञान नदी में, 
सबगुण अपना कर वो बहते।
जब विपरीत बहाव बहे तो,
आलोचक कुछ तुच्छ पधारे।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, March 2, 2020

नवगीत लाचारी संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत
लाचारी
संजय कौशिक 'विज्ञात'


मापनी~16/14


चिड़िया आग दहकती में क्यों
आज स्वयं को झोंक रही।
जलते दिखते वृक्ष घौंसले,
कितनी कुतिया भौंक रही।

1
तिनके चुगती मस्त रहे जब,
कितना क्रंदन काग करें।
कोयल के चंगुल फँसते फिर,
शर्मसार हो आह भरें।
यह विधि की विधना है कैसी,
बड़े डराते सभी डरें।
एक समय जब दाँव लगे तो,
हाथी चींटी मौत मरें।

राजनीति की दाल गले कब,
कौन यहाँ पर छौंक रही।
जलते दिखते वृक्ष घौंसले,
कितनी कुतिया भौंक रही।

2
जिस तरुवर पर धागे बांधे,
वट सावित्री के नारी।
चिड़िया इसको मान सुरक्षित,
नीड़ बना बैठी प्यारी।
क्षोभ अग्नि से शहर जला क्यों?
किसने फूंकी फुलवारी।
अपना सब कुछ जलता देखा,
दाह करे वो बेचारी।

शायद कुछ भी शेष नहीं था,
जिन्हें नेह से धौंक रही।
जलते दिखते वृक्ष घौंसले,
कितनी कुतिया भौंक रही।

3
सर्प बहुत से बाहर निकले,
अजगर की देखी जकड़न।
दावानल का शोर मचा था,
अपनों की सिसकी तड़पन।
बेबस सी लाचार रही वो,
एक नहीं थी बस अड़चन।
व्याकुल मन से अंतिम निर्णय,
जोड़े - तोड़े सब बन्धन।

श्वेत वर्ण कुछ बुगली आई,
गिद्ध अश्रु भर चौंक रही।
जलते दिखते वृक्ष घौंसले,
कितनी कुतिया भौंक रही।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत रंग विहीन होली संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
रंग विहीन होली 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~16/16
अंतरा ~~16/16


जल बिन नदिया का क्या बहना
रंग बिना अपनी यूं होली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

1
रंग बदलती गिरगिट रोई,
मोती नेत्रों से टपकाये।
रंग स्वयं के भूल गई जो, 
कौन उसे फिर क्यों अपनाये।
कैसे? क्यों बढ़ती सी खाई
आज मनों से पाट न पाये।
चिंतन करती दृग भरती सी, 
रंग विरक्त हृदय की डोली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

कुछ रंग मयूर चुरा करके, 
स्वप्न अनेक सजाकर लाती।
साजन की बांहों के झूले,
अम्बर तक जो छूकर आती।
विरह वेदना हिय ले व्याकुल,
द्रवित हृदय किसको बतलाती।
रंग पटल स्मृति को महकाते,
चित्र भरी पुस्तक जब खोली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

3
इंद्रधनुष के रंग चुभें कुछ, 
आंखों में लावा सा बहता। 
एक रंग के जीवन में जब,
वो भी उड़कर हल्का रहता।
रंग रंग को चुभता दिखता,
और यातना सी सब सहता।
एक यही कारण है शायद, 
फीकी रंगों की ये बोली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, March 1, 2020

गीत होली संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत 
होली 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


मत रँगना रंग गुलाल मुझे 
छोड़ो मुझको सांवरिया।

1
कर पिचकारी जब डोली।
भीगे तन-मन संग चोली।
जूही कुछ बड़बड़ बोली।
कुछ कहती चम्पा भोली।
घर मैया देगी गाल मुझे, 
छोड़ो मुझको साँवरिया।

2
कोयल से स्वर में गाती। 
जो मस्त हिलोर उठाती।
कान्हा से दृष्टि बचाती। 
गोपी वृंदावन आती।
कहती मत फांसो जाल मुझे,
छोड़ो मुझको साँवरिया।

3जब राधा दी न दिखाई ।
कान्हा ने मुरली उठाई।
वो दौड़ी दौड़ी आई।
सुन ऐसी तान बजाई।
फिर रोक प्रेम की झाल मुझे,
छोड़ो मुझको साँवरिया।

चित्रण निखरे रंगों का।
मधुबन साथी संगों का।
राधा के उन दंगों का। 
उड़ते अबीर ढंगों का।
संजय कौशिक दो ढाल मुझे, 
छोड़ो मुझको साँवरिया।

संजय कौशिक 'विज्ञात'