नवगीत
बाँसुरी के स्वर
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 14/14
स्वर अचानक बाँसुरी के
यूँ विरह से फूटते क्यों?
गीत सरगम ने सजाये,
श्वास से फिर छूटते क्यों?
1
शून्य में फँसता गया मन,
आवरण जो लांघ देते।
ये तिमिर उस रात का भी,
मौन से कर बात लेते।
स्तब्धता को कुछ मिटाकर,
वो स्वयं से रूठते क्यों?
गीत सरगम ने सजाये,
श्वास से फिर छूटते क्यों?
2
धड़कनों के शोर में कुछ,
बंध अनुपम छंद बनते।
शांत नाड़ी हलचलों से,
वारि से भी भाव छनते।
मन पिपासित लिख रहा है,
काव्य उसके टूटते क्यों ?
गीत सरगम ने सजाये,
श्वास से फिर छूटते क्यों?
3
मोर मन आँसू बहाये,
दर्द पंखों में छिपाकर।
मेघ करते गर्जना तब,
चुप कराये कौन आकर।
फिर समय की मांग ऐसी,
दे दिया तो लूटते क्यों?
गीत सरगम ने सजाये,
श्वास से फिर छूटते क्यों?
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत सुन्दर गीत।
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रंगों के महापर्व
होली की बधाई हो।
बहुत सुन्दर आपकी यह नवगीत रचना आदरणीय बहुत प्यारी
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