नवगीत
होली के चुभते रंग
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~ 16/14
आँखों में चुभते से दिखते,
होली के क्यों रंग सभी।
आज अचानक दर्पण देखे,
द्रवित नेत्र से अंग सभी।
1
हुड़दंगी सी आहट सुनके,
कर्ण डगर से पीर उठी।
कोलाहल की ध्वनि अन्तस् मन,
दर्द अचानक चीर उठी।
सँभली सी कुछ निर्ममता की,
बिखरी सी वह धीर उठी।
परिवर्तन स्वाभाविक दिखता,
आह हृदय के तीर उठी।
और बहकते हालातों में,
फीके मादक भंग सभी।
आँखों में चुभते से दिखते,
होली के क्यों रंग सभी।
2
पूछ रही कुछ प्रश्न चूड़ियाँ,
हाथों से जो दूर पड़ी।
देख सुगंधित गजरा पूछे,
सूख गई जो आज लड़ी।
गरजी भी है बरसी भी है,
विधि विधना की देख कड़ी।
रंग बिरंगी बिंदी रोई,
रहती थी जो भाल जड़ी।
होली का यह शोर अनोखा,
और अनोखे ढंग सभी।
आँखों में चुभते से दिखते,
होली के क्यों रंग सभी।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
सुन्दर और सामयिक नवगीत।
ReplyDeleteआत्मीय आभार शास्त्री जी
Deleteआँखों में चुभते से दिखते,
ReplyDeleteहोली के क्यों रंग सभी।
आज अचानक दर्पण देखे,
द्रवित नेत्र से अंग सभी।
वाह वाह बहुत खूब
विरोधाभास अलंकार का श्रेष्ठ प्रयोग 👌👌 सुंदर कथन 👌 नवीन बिम्ब जो हमें सीखाने के उद्देश्य से आपने प्रयोग किये हैं बहुत ही आकर्षक हैं
आप को और आप की लेखनी को नमन गुरु देव
आत्मीय आभार चमेली जी
Deleteअद्भुत आपकी लेखनी
ReplyDeleteआत्मीय आभार अनिता जी
Deleteआदरणीय बहुत सुन्दर गीत
ReplyDeleteनमन
हर भाव में, हर रंग में, हर रूप में बखूबी चलती है आपकी कलम आदरणीय 👌👌👌👌👌👌👏👏👏👏👏👏👏एक से बढ़कर एक बिंब👌👌👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति 👌👌💐
ReplyDeleteआत्मीय आभार अनुराधा जी
Deleteअद्भुत!👌👌
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