नवगीत
संजय कौशिक 'विज्ञात'
तड़पती लेखनी
मापनी~~ 14/14
फिर तड़पती लेखनी यूँ,
बिम्ब चमके जब अनूठे।
डूब के अम्बर निहारा,
वो नदी के साथ रूठे।
1
कष्ट के कारण मिले जब,
पीठ से खंजर निकाले।
दृष्टि से ओझल हुए वो,
दे चुके थे लाख छाले,
दृश्य अनुपम ताल ठोके,
और मर्यादित व झूठे.....
2
जल रही हिय की करूणा,
राख आँधी ने उड़ाई।
शब्द का डूबा समर था,
वेदना की अंगड़ाई।
फिर नहीं अंकुर हुए वो,
भाव बिखरे देख पूठे.....
3
वर्ष भर कितने समेटे,
कुछ महीनों के लिए जब।
न्याय करता ये समय भी,
बुझ गए लाखों दिए जब।
क्रूर क्षण के ठोकते से,
दे विदारक पीर मूठे .....
संजय कौशिक 'विज्ञात'
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