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Sunday, March 29, 2020

नवगीत : पतझड़ का कष्ट : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
पतझड़ का कष्ट 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा
झूलता जीवन नदी का,
तट खड़े उस झाड़ जैसा।
कष्ट से भयभीत मन है, 
दर्द फटती दाड़ जैसा।

1
ये व्यथा की पीर ऐसी, 
आज पतझड़ से अधिक फिर। 
दृग सुखाती ऋतु यहाँ पर, 
देख चल ठहरे पथिक फिर। 
बोझ से कुछ शाख झुकती, 
और टूटी नाड़ जैसा....

2
पूछ हरियाली कहाँ है, 
ये हृदय कुछ ढूंढता सा।
स्वयं से पुलकित हुआ अब, 
और फिर कुछ रूठता सा।
कांति विद्युत की गिरी जब, 
और फूटा भाड़ जैसा....

3
काँप उठती देह सारी,
पग शिखा तक देख दर्पण।
जो कभी उपहार पाए, 
वो सभी कर आज अर्पण।
सर्प फिर घर में घुसा जब, 
बिल बना बिन पाड़ जैसा....

संजय कौशिक 'विज्ञात'

3 comments:

  1. बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय लाज़वाब बिंब.
    सादर

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  2. बहुत ही सुंदर भावपूर्ण नवगीत 👌👌👌

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