नवगीत
चिठ्ठी
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~ 14/14
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
शुष्क से बरसात के घन,
पीर ऐसे खिलखिलाई।
1
लौटना घर चाहता है,
जो पखेरू उड़ चुका था।
वो समय जो बीत कर के,
धड़कनों में जो रुका था।
आह को कुछ खास करदे,
वाह मिलकर तिलमिलाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
2
साथ जिसके एक दिन जब,
गाँव में खेड़ा धुका था।
संटियों के खेल से कुछ,
ये बदन खासा ठुका था।
आज यादें फिर रुलाये,
हाथ आकर कसमसाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
3
सोचता मन रह गया था,
स्वप्न से बाहर निकल कर।
और अन्तस् कुछ दहकता,
पूर्व उससे ही सँभल कर।
आंसुओं से आँख भरती,
बस जरा सी डबडबाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
चिठ्ठी
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~ 14/14
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
शुष्क से बरसात के घन,
पीर ऐसे खिलखिलाई।
1
लौटना घर चाहता है,
जो पखेरू उड़ चुका था।
वो समय जो बीत कर के,
धड़कनों में जो रुका था।
आह को कुछ खास करदे,
वाह मिलकर तिलमिलाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
2
साथ जिसके एक दिन जब,
गाँव में खेड़ा धुका था।
संटियों के खेल से कुछ,
ये बदन खासा ठुका था।
आज यादें फिर रुलाये,
हाथ आकर कसमसाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
3
सोचता मन रह गया था,
स्वप्न से बाहर निकल कर।
और अन्तस् कुछ दहकता,
पूर्व उससे ही सँभल कर।
आंसुओं से आँख भरती,
बस जरा सी डबडबाई।
पढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन,
एक चिट्ठी डाक लाई।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
वाह!! लाजवाब
ReplyDeleteवाह,,बहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन
ReplyDeleteपढ़ जिसे फिर रो पड़ा मन ...अति सुन्दर.आदरणीय।.भावों भरी पाती 👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी रचना 👌👌
ReplyDeleteउत्कृष्ट आपकीलेखनी अद्भुत है
ReplyDeleteउत्तम रचना सर जी
ReplyDeleteलौटना घर चाहता है,
ReplyDeleteजो पखेरू उड़ चुका था।
वाह बहुत खूब बेहतरीन और लाजवाब सृजन गुरु देव
गुजरे कल की याद दिलाता शानदार नवगीत 👌👌👌
ReplyDeleteखो गई हैं चिट्ठियाँ पर याद बाकी है अभी
आँसुओं से भीगी स्याही महक उठती थी कभी
चिट्ठी लिखना हो या चिट्ठी की प्रतीक्षा दोनों ही अनुभव यादगार हुआ करते थे। चिट्ठी का दौर खत्म हो चुका है पर यादें जिंदा है जो अक्षरों का मोल बताती हैं...सादर नमन 🙏🙏🙏
बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन लाजबाब,बहुत कुछ यादे याद आगाई
ReplyDeleteजीवन के पूर्वाभास का एक यथार्थ चित्र को इंगित करता प्रसंग श्लाघनीय है। विज्ञात जी! सादर शुभकामना।
ReplyDeleteअत्यतं खूबसूरत कविता
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत लाजवाब ...भावपूर्ण सृजन।
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर नेह भरी पाती👌👌👌👌👏👏👏👏
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ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर एक जमाना याद आ गया उन चिट्ठियों में कितना अपनापन था कितना पोस्ट मेन चाचाजी का इंतजार होता था बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर वाह वाह वाह बेहतरीन
ReplyDeleteशानदार भावपूर्ण नवगीत
ReplyDeleteआ.सर जी शुभकामनाएं 🙏🙏
सुन्दर गीत।
ReplyDeleteकभी तो दूसरों के ब्लॉग पर भी अपनी टिप्पणी दिया करो।
बहुत सुंदर वाहः
ReplyDeleteउत्कृष्ट सृजन
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