प्रेम की परिभाषा
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मयंक! मेरा रास्ता छोड़ो कहते हुए स्नेह ने दो कदम आगे बढ़ाये ही थे कि मयंक दो कदम पीछे हटते हुए बोला नहीं पहले मेरे प्यार के इस गुलाब को स्वीकार करो।
स्नेह ने हाथ के इशारे से इंकार करते हुए कहा कि आपको यह गुलाब अपनी पत्नी को देना चाहिए उससे बड़ा आपका कोई मित्र नहीं हो सकता। मयंक बात काटते हुए हुए बोला स्नेह मैं तुमसे अथाह प्यार करता हूँ।
पर मेरा प्यार मेरा पति है स्नेह ने कहा .... पर वो तो तुम्हारी पड़ोसन के साथ भाग गया है ना? फिर कैसा प्यार? मंयक को पुनः समझाते हुए स्नेह ने कहा कि मैं नारी हूँ, कभी किसी भी नारी पर अत्याचार नहीं करती और न ही कभी सहन ......
मयंक ने कहा तो गुलाब स्वीकार न करके तुम स्वयं पर अत्याचार नहीं कर रही हो....?
नही... बिल्कुल नहीं- स्नेह ने कहा, मैं पति के गैर जिम्मेदार होने का कष्ट अच्छे से समझती हूँ।
तो स्नेह तुम भी समझदार हो जाओ और गुलाब स्वीकार कर लो। अपने पति के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार का हिसाब बराबर कर सकती हो ....
इस पर स्नेह ने कहा नहीं जो कष्ट और पीड़ा मैं भुगत रही हूँ, वही कष्ट और पीड़ा मैं स्वयं किसी भी महिला को कैसे दे सकती हूँ ? फिर भले ही वह तुम्हारी पत्नी ही क्यों न हो .....
मयंक अवाक देखता रहा और स्नेह अपनी बात कहकर ऑटो में बैठ चुकी थी।
संजय कौशिक विज्ञात
सादर नमन आदरणीय 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लहुकथा।एक छोटे से प्रसंग के माध्यम से सार्थक संदेश दिया है। जो उम्मीद हम दूसरों से करते हैं वैसा ही व्यवहार हमें स्वयम भी करना चाहिए।सच्चे प्रेम की परिभाषा यही है जो बदला लेना या आहत करना नही सिखाता बल्कि खुद सही मार्ग पर चलता है और अपने साथी को भी सही मार्ग दिखाता है। आपकी लघुकथा निःसंदेह प्रेरणादायक है। बहुत बहुत बधाई 💐💐💐
बहुत सुन्दर प्रेरणादायक लघुकथा
ReplyDeleteप्रेरक 💐
ReplyDeleteहर विधा आपकी लेखनी बखूबी चलती है आदरणीय।अभी तक तो पद्य में ही आपकी लेखनी का कमाल देखते आ रहे थे।आज गद्य में भी......बहुत ही शानदार 👌👌👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लघुकथा, सही निर्णय l
ReplyDeleteवाह, बहुत सुंदर लघुकथा
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक लघुकथा।
सुंदर लघुकथा!🌷🙏🌷
ReplyDelete----अनीता सिंह अनित्या