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Monday, March 2, 2020

नवगीत रंग विहीन होली संजय कौशिक 'विज्ञात'





नवगीत 
रंग विहीन होली 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~16/16
अंतरा ~~16/16


जल बिन नदिया का क्या बहना
रंग बिना अपनी यूं होली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

1
रंग बदलती गिरगिट रोई,
मोती नेत्रों से टपकाये।
रंग स्वयं के भूल गई जो, 
कौन उसे फिर क्यों अपनाये।
कैसे? क्यों बढ़ती सी खाई
आज मनों से पाट न पाये।
चिंतन करती दृग भरती सी, 
रंग विरक्त हृदय की डोली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

कुछ रंग मयूर चुरा करके, 
स्वप्न अनेक सजाकर लाती।
साजन की बांहों के झूले,
अम्बर तक जो छूकर आती।
विरह वेदना हिय ले व्याकुल,
द्रवित हृदय किसको बतलाती।
रंग पटल स्मृति को महकाते,
चित्र भरी पुस्तक जब खोली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

3
इंद्रधनुष के रंग चुभें कुछ, 
आंखों में लावा सा बहता। 
एक रंग के जीवन में जब,
वो भी उड़कर हल्का रहता।
रंग रंग को चुभता दिखता,
और यातना सी सब सहता।
एक यही कारण है शायद, 
फीकी रंगों की ये बोली।
तड़प मीन सी आह भरे वो,
दर्पण में सूरत कुछ भोली।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

10 comments:

  1. रंगविहीन होली 👌👌👌निःशब्द करती रचना...अप्रतीम भाव और लाजवाब शब्द चयन...नमन आपकी लेखनी को जो इतना अद्भुत सृजन करती है 🙏🙏🙏

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  2. आदरणीय आपकी लेखनी का कोई जवाब नहीं बहुत ही सुन्दर रचना और भाव हमेशा की तरह, बहुत ही सुन्दर, नमन

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  3. बेहद हृदयस्पर्शी नवगीत आदरणीय

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  4. वाह वाह बहुत खूब आदरणीय एक से बढ़कर एक आपकी लेखनी को नमन

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  5. तड़प मीन सी आह भरे वो
    दर्पण मेंं सूरत भोली ....
    क्या बात ....मन को छूते अल्फाज
    गजब लेखनी विज्ञात जी वाह
    डॉ़ इन्दिरा गुप्ता यथार्थ

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    1. आत्मीय आभार डॉ. इंदिरा गुप्ता जी

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  6. होली का त्यौहार है ही कुछ ऐसा....कहीं आह!!तो कहीं वाह!!!!होली के हर रंग पर आपकी कलम ने बखूबी सृजन किया है👏👏👏👏👏👌👌👌👌👌👌

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