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Thursday, March 19, 2020

नवगीत : दुर्भिक्ष : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
दुर्भिक्ष 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 14/14 

बिन बिजाई खेत में कुछ, 
मौत की फसलें खड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

1
मोरनी चिल्ला उठी कुछ, 
चीख अम्बर ने सुनी थी।
मेंढकों ने प्राण त्यागे,
कुछ यही सबकी धुनी थी।
आग की बरसात देखी,
और जलती वो घड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

2
ली नहीं कुछ भी डकारें,
चाब कर सत्तर युवा को।
अग्नि किसने फूंक दी यूँ,  
फिर बहे लू सी हवा को।
दागती वो मौत सबको, 
आस जीवन की कड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

स्वेद की नदियाँ बही पर, 
ये धरा प्यासी रही फिर।
बंध टूटे उन नदी के, 
बाढ़ भी सूखी बही फिर।
चींटियाँ अंडे उठाती,
बोझ के नीचे गड़ी थी।
रह गया सूखा प्रलय भी, 
झाड़ पर लाशें पड़ी थी। 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

7 comments:

  1. बाढ़ भी सूखी बही थी ,गजब आ0

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  2. बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना

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  3. क्या बात हैविज्ञात जी!!! मनभावन गीत पढ़ कर 'जड़ाऊ' ,शब्द याद आ गया । वही टटकी भाषा सजीव बिम्ब और असाधारण कथ्य के साथ सधी हुई शैली । अनन्त बधाई ।

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  4. सुन्दर प्रस्तुति

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  5. आग की बरसात देखी,
    और जलती वो घड़ी थी।
    रह गया सूखा प्रलय भी,
    झाड़ पर लाशें पड़ी थी।
    वाह!!!!
    अद्भुत , अविस्मरणीय लाजवाब सृजन
    🙏🙏🙏🙏🙏

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