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Wednesday, January 29, 2020

छंद मात्रा भार ज्ञान संजय कौशिक 'विज्ञात'


संजय कौशिक 'विज्ञात' 
छंद के लिए आवश्यक मात्रा ज्ञान 

इसके लिए पुनः प्रथम कक्षा के हिन्दी स्वर व्यंजन दोहराने आवश्यक होंगे और साथ उनका उच्चारण भी तो आइए शुरू करते हैं छंद का मूल आधार ज्ञान वर्णमाला के मात्राभार से ....

सर्व प्रथम उच्चारण देखें क्योंकि हिन्दी ऐसी भाषा है जिसमें जो उच्चारण किया जाता है वही लिखा भी जाता है शुद्ध उच्चारण शुद्ध लेखन अशुद्ध उच्चारण आप समझ सकते हैं ...
1 कण्ठ: अ, आ, क, ख, ग, घ, ड़ , ह, अ: ● 2 तालु:  इ, ई , च, छ, ज, झ, ञ , य, श ● 3 मूर्द्धा , ऋ, ॠ , ट, ठ, ड, ढ, ण, र, ष ● 4 दन्त, लृ , त, थ, द, ध, न, ल, स ● 5 ओष्ठ ●उ, ऊ ● प, फ, ब, भ, म ● 6 नासिका = अं, ड्, ञ, ण, न्, म् ● 7  कण्ठतालु = ए, ऐ ● 8 कण्ठोष्टय = ओ, औ ● 9 दन्तोष्ठ्य = व 

विश्वास है सभी पाठकों का श ष स का उच्चारण भी स्पष्ट हो सकेगा। लेख का मुख्य उद्देश्य उच्चारण स्थान नहीं है इसलिए इस संक्षिप्त जानकारी के पश्चात आइये मात्रा ज्ञान की तरफ बढ़ते हैं ....
हिन्दी वर्णमाला में 11 स्वर तथा 33 व्यंजन गिनाए जाते हैं।

स्वर- जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता है। ये व्यंजनों के उच्चारण में सहायक होते हैं। इन स्वरों की संख्या ग्यारह होती है 

*अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ* 

व्यंजन 
कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्
चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्
टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्)
तवर्ग- त् थ् द् ध् न्
पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्
अंतःस्थ- य् र् ल् व्
ऊष्म- श् ष् स् ह्
संयुक्त व्यंजन- क्ष=क्+ष , त्र=त्+र,  ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान
अनुस्वार- इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिह्न {ं} है।

विसर्ग- इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न {:} है।

चंद्रबिंदु- जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु {ँ} लगा होता है। यह अनुनासिक कहलाता है।  *लेकिन आजकल आधुनिक पत्रकारिता में सुविधा और स्थान की दृष्टि से चंद्रबिन्दु को लगभग हटा दिया गया है। परन्तु भाषा की शुद्धता की दृष्टि से चन्द्र बिन्दु का प्रयोग अवश्य होना चाहिए*

हलंत- स्वर रहित वर्ण के नीचे एक तिरछी रेखा {् } लगी होती है। यह रेखा हलन्त होती है।

मात्राभार:- 
छंद का मुख्य आधार मात्रा ज्ञान कंठस्थ करने के पश्चात छंद की संरचना समझ लेना सरल और सहज हो जाता है। इसके साथ ही हम हमारी जिज्ञासा मात्रा भार में प्रयोग किये जाने वाले {12} अंक और {IS} चिह्न के रहस्य को समझ लेने की... तो आइए समझते हैं इन अंकों और चिह्नों  के पीछे छिपे रहस्य को जो सूचक हैं वर्णों के मात्राभार के ... मात्रा भार दो प्रकार का होता है लघु और दीर्घ इनके न्यून मध्य और अधिक कुछ नहीं होता है। लघु (हृस्व) को लघु और दीर्ध को गुरु के नाम से जाना जाता है जिनके चिह्न इस प्रकार से हैं लघु का 1(I) गुरु का 2(S) वैसे तो इसे सरलता से समझा जा सकता है 

*अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ* ये स्वर ही मात्रा हैं स्वर रहित व्यंजन के नीचे हलन्त लिखा जाता है जो अर्ध वर्ण कहलाता है। जिससे फिर संयुक्त वर्ण बनता है।  
*अ, इ, उ, ऋ* ये चार मात्रा हृस्व, लघु, अंक 1, चिह्न I (ल) होती हैं। शेष आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ये सब मात्रा दीर्घ, गुरु, अंक 2, चिह्न S (गा) होती हैं। वैसे तो यह संक्षिप्त मात्रा ज्ञान ही पर्याप्त है।अब इसे समझने के लिए कुछ अभ्यास करके कंठस्थ किया जा सकता है। आइये शब्द समूह के मात्रा भार की गणना करके देखते हैं 

वर्णों के मात्रा भार की गणना:- 
छंद में प्रयुक्त होने वाले अंक चिन्ह आदि जिन्हें उनके शिल्प विधान के साथ दर्शाया जाता है उनको सरलता से समझते हैं और कण्ठस्थ करते हैं ....
(1) अ का व्यंजन के साथ मात्रा भार हृस्व, लघु, अंक 1, चिह्न I (ल) होता है। ठीक इसी प्रकार इ, उ, ऋ, इनको भी व्यंजन के साथ जोड़ने से इनकी मात्रा भी हृस्व, लघु, अंक 1, चिह्न I (ल) होता है।
(2) आ का व्यंजन के साथ मात्रा भार दीर्घ, गुरु, अंक 2, चिह्न S (गा) होता है। ठीक इसी प्रकार ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः इनको भी व्यंजन के साथ जोड़ने से इनकी मात्रा भी दीर्घ, गुरु, अंक 2, चिह्न S (गा) होता है।

अभ्यास के लिए उदाहरण:-
(1) किसी भी वर्ण में अनुनासिक 'चन्द्र-बिंदी' के आने से  उसके मात्रा भार में कोई अंतर नहीं आता जैसे- सँग 11, ढँग 11, माँद 21, कँगन 111, कँचन 111, 
(2) लघु वर्ण पर अनुस्वार के आने से उसकी मात्रा भार 2 गुरु/दीर्घ हो जाती है जैसे - संग 21, ढंग21, कंगन 211, कंचन 211, मंदिर 211, पतंगा 122, रंगीन 221, अत्यंत221
(3) गुरु वर्ण पर अनुस्वार आने से उसकी मात्रा का भार पूर्व की भांति 2 ही रहती है जैसे- आंगन 211, कौंधा 22, नींद 21, रौंदना 212, बैंगन 211
कुछ विद्वान अनुनासिक को व्यंजन नहीं मानते, मात्र स्वरों का ध्वनि गुण मानते हैं अनुनासिक स्वर के उच्चारण में मुँह और नासिका से हवा निकलती है जैसे आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ आदि में , जहाँ मात्रा शिरोधार्य हो अर्थात शब्द की रेखा के ऊपर होती है वहाँ पर अनुनासिक लिखने में छपाई के समय परेशानी होती है ऐसे में (चन्द्र बिंदु) अनुनासिक लिखने के स्थान पर (बिंदी) अनुस्वार लिखने की छूट दी जाती है जैसे नहीं, मैं, में आदि 
संयुक्ताक्षर मात्रा भार ज्ञान :- 
(4) (क्+ष = क्ष, त्+ र = त्र, ज् +ञ = ज्ञ) सहित अन्य संयुक्ताक्षर यदि अग्रिम वर्ण हो तो उसका मात्रा भार सदैव (लघु)1 ही होता है, जैसे – क्षण 11, क्षणिक 111, क्षय 11, त्रुटि 11, त्रिशूल 121,  व्यसन 111, प्रकार  121, प्रभाव 121, श्रमदान 1121, श्रवण 111, च्यवन 111, त्रय 11 क्रय 11 
(5) संयुक्ताक्षर में लघु 1 मात्रा जुड़ने पर उसका मात्रा भार  (लघु) 1 ही रहता है, जैसे – त्रिवेदी 122, द्विवेदी 122, प्रिय 11, क्रिया 12, च्युत 11, श्रुति 11 
(6) संयुक्ताक्षर में गुरु मात्रा के जुड़ने पर उसका मात्रा भार  (गुरु) 2 होता है, जैसे–  क्षेम 21, क्षेत्र 21, त्राहि 21, ज्ञान 21, श्री 2, श्रेष्ठ 21, श्राद्ध 21, द्वारा 22, श्याम 21, स्नेह 21, स्त्री 2, स्थान 21 
(7) संयुक्ताक्षर से पहले पड़ने वाले लघु 1 मात्रा भार वाले वर्ण का मात्रा भार (गुरु) 2 होता है, जैसे– डिब्बा 22, अज्ञान 221, विज्ञान 221, शत्रुघ्न 221, उद्देश्य 221,  विनम्र 121, सत्य 21, विश्व 21, पत्र 21 
(8) संयुक्ताक्षर से पहले पड़ने वाले गुरु 2 वर्ण के मात्रा भार वाले वर्ण के मात्रा भार में कोई अन्तर नहीं होता है, जैसे-श्राद्ध 21,  ईश्वर 211, नेत्र 21, पाण्डव 211, हास्य 21, आत्मा 22, सौम्य 21, भास्कर 211  
(9) संयुक्ताक्षर के संदर्भ में विशेष नियम लघु गुरु (12) के कुछ अपवाद भी कहे गए हैं, जो मुख्यतया पारम्परिक  उच्चारण पर आधारित होते हैं, जिनकी शर्त यह है कि उच्चारण अशुद्ध नहीं होना चाहिए। 
जैसे–  तुम्हारा/तुम्हारी/तुम्हारे 122, तुम्हें 12, जिन्हें 12, उन्हें 12,  इन्होंने 122, जिन्होंने 122, उन्होंने 122, कुम्हार 121, कन्हैया122, मल्हार 121, कुल्हाड़ी 122 
विवरण सहित: ऊपर बताए गए शब्दो को अपवादों के परिवार में माना जाता है इन संयुक्ताक्षर से पहले पड़ने वाले अक्षर सदैव ऐसा व्यंजन होते हैं जिसकी ‘ह’ वर्ण के साथ युति योग होने पर अन्य नवीन अक्षर का निर्माण हिन्दी वर्ण माला में नहीं हुआ है, अतः ‘ह’ से पहले पड़ने वाले अक्षर के युति योग से जब एक संयुक्ताक्षर बनता हैं तब उसका व्यवहार संयुक्ताक्षर जैसा नहीं होता है बल्कि एक नए वर्ण जैसा दिखने लगता है। (इसीलिए पहले वाले अक्षर पर संयुक्ताक्षर के नियम लागू नहीं होते हैं)।उदाहरणार्थ-( न् म् ल् का ‘ह’ के साथ युति योग करने से बनने वाले संयुक्ताक्षर म्ह न्ह ल्ह ‘एक नए वर्ण’ जैसा व्यवहार करते है) जिससे उनके पहले आने वाले लघु 1 का मात्रा भार गुरु 2 नहीं होता बल्कि लघु 1 ही होता है। पुनः विवेचन- हिन्दी वर्णमाला के कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग में पहले व्यंजन में ‘ह’ का योग करने से दूसरा व्यंजन तथा तीसरे व्यंजन में ‘ह’ का योग करने से चौथा व्यंजन बनता है। उदाहरणार्थ- 
क्+ह=ख, ग्+ह=घ, च्+ह=छ, ज्+ह = झ, ट्+ह=ठ , ड् + ह = ढ, त्+ह=थ, द्+ह=ध, प्+ह=फ, ब्+ह=भ होता है किंतु- न्+ह=न्ह, म्+ह=म्ह, ल्+ह=ल्ह(कोई नया वर्ण नहीं, परन्तु व्यवहार नए वर्ण के समान ही होता है )
कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जिनपर उपर्युक्त व्याख्या लागू नहीं होती है, जैसे नन्हा = 22, कुल्हड़ = 211, अल्हड़ = 211 आदि।

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

लावणी छंद ◆◆सैनिक की अभिलाषा◆◆●●संजय कौशिक 'विज्ञात'●●


लावणी छंद 
◆◆सैनिक की अभिलाषा◆◆
●●संजय कौशिक 'विज्ञात'●●
          लावणी छंद एक सम मात्रिक छंद है। इस छंद में भी कुकुभ और ताटंक छंद की तरह 30 मात्राएं होती हैं। 16,14 पर यति के साथ कुल चार चरण होते हैं । और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत समतुकांत रहते हैं। इसके चरणान्त में वर्णिक मात्रा भार का कोई विशेष सुझाव नहीं है।बस अंत गाल नहीं हो सकता है। रचना के अनेक बन्ध के अंत में 1 गुरु 2 लघु 2 गुरु आ सकते हैं यही लावणी है 
30 मात्रा ,16,14 पर यति,अंत वाचिक {गा} द्वारा करें
चौपाई (16 मात्रा)+ 14 मात्रा
आइये देखते हैं लावणी की एक रचना ..... 

■◆◆सैनिक की अभिलाषा◆◆■
●●●संजय कौशिक 'विज्ञात'●●●

आज हमारे सैनिक हमसे, पूछ रहे वो बातें सुन
सीमा पर रक्षक हैं जब हम, तुम गाते हो कैसी धुन 

घोटालों पर घोटाले हैं, जिसे ला रहे चुनकर तुम 
कैसी जिम्मेवारी है ये, बैठे हो फिर क्यों गुमसुम

एक शीश के बदले सत्तर, या फिर तुम दो सौ चाहो
एक बात पर अड़े हुए हैं, उन नेताओं का क्या हो

सैनिक रक्षक बने हुए हैं, सारी जनता है भक्षक
लोह चने चबवाते अरि से, लोग पालते जब तक्षक

खड़े समर में योद्धा पल-पल, पीठ नहीं दिखलाते हैं
यही हुतात्मा पूछ रही हैं, लाज सुनें जब पाते हैं 

मान बहन बेटी का मिल के, तुम ऐसे लुटवाते हो 
और दृष्टि उठ भी कब पाती, सीना ठोक दिखाते हो

देश भक्ति हम ज्वाला पाले, सँभले ज्योत नहीं छोटी
धिक्कार तुम्हें भारत वासी, काट रहे हो नित चोटी

वीर षड्यंत्र निष्फल करते, सीमा पर घुस पैठ करे 
जनता हँसकर तब क्या करती, जातपात की खैर करे

विधिवत रक्षाकारी सैनिक, पुत्र हिमालय बने खड़े 
लोग भारती के बेटे हैं, दिखलादे व प्रमाण जड़े

सीमा को हम देख रहे हैं,  देखो अंदर आप सभी 
सुंदर हो परिवेश धरा का, स्वच्छ बनालो देश अभी

बहन बेटियां रहें सुरक्षित, यत्न करो सब मिल ऐसे 
गंगा जैसा पावन भारत, बना चलो तुम फिर वैसे

आज कलम सैनिक बन पूछे, कल को सैनिक आएगा 
अगर नहीं जो तुम सब सुधरे, सच में वो पछतायेगा

देश प्रेम का सैनिक पक्का, सैनिक जनता को प्यारा 
बने विश्व गुरु भारत अपना, दिखे तिरंगा ये न्यारा

हर सैनिक के हृदय बीच में, और बहुत सी बाते हैं 
समय मिलेगा फिर कह देंगे, सोते हम कब राते हैं

संजय कौशिक 'विज्ञात'

कुकुभ छंद ✍🏼 एक याचना लिखी कलम ने ✍🏼◆◆ संजय कौशिक 'विज्ञात' ◆◆



कुकुभ छंद 
 एक याचना लिखी कलम ने 
◆◆ संजय कौशिक 'विज्ञात' ◆◆

कुकुभ छंद भी ताटक छंद की तरह 16/14 मात्रा भार में लिखा जाने वाला सम मात्रिक छन्द है। इस छन्द में चार चरण होते हैं।क्रमागत दो-दो चरण तुकांत समतुकांत रहते हैं 
विषम चरण 16 मात्राएँ और सम चरण 14 मात्राओं का नियम निभाना होता है। प्रथम चरण अर्थात विषम चरण का अन्त बिना किसी विशेष आग्रह के लिखा जाता है। परन्तु सम चरण का अंत दो लघु और दो गुरु अनिवार्य होता है। अर्थात ये कुकुभ छन्द के ही प्रारूप में 2 लघु 11 को एक गुरु नहीं माना जाता है 
16,14 पर यति अंत में 2 गुरु अनिवार्य 


कुकुभ छंद 

रचना कहती अपनी बातें, बातों की बात पुरानी।
कलम लिखेगी आज यकीनन, नूतन फिर आज कहानी॥ 
धर्म बाँटता देश कहाँ है, पर हम तो बांट चुके हैं।
अन्यायी फिर कदम बढ़ाता, भारत आन रुके हैं॥ 

एक याचना लिखी कलम ने, रुक कर थोड़ा सुन लेना। 
जो भी हो फिर निर्णय करना, हमें वही तुम कह देना॥ 

धूर्त पडौसी एक हमारा, कितना उसको समझाया। 
उसे समझ में कितना आया, कौन समझ है यह पाया॥

खूब सुनाओ जितनी चाहो, सारे अब मिलकर बोलो।
और ईंट से ईंट बजादो, हाथ पाक पर सब खोलो॥

क्रांति अमर की आँधी जैसी, घोर गर्जना करनी है।
शिव काशी से पहुँच कराची, गंगा धारा भरनी है॥

मत छेड़ो माँ के लालों को, रक्त खौलता हम लावा।
हस्ती तक कर देंगे स्वाहा, तूफानों का पहनावा॥

समझ कपास लिया है कैसे, नहीं दही के हम प्याले।
विषधारी शिव नीलकंठ के, हम कट्टर भक्त निराले॥

अमृत रस बांटा है जग को, मगर जहर पी हम लेते। 
क्षमावान दयालु बन ऐसे, अभय सभी को वर देते॥ 

प्रेम भाव का प्रथम पाठ वो, हमने जग को सिखलाया।
मान चुकी सारी दुनिया ये, गर्वित मन कर दिखलाया॥

हद में रहना भूल गया ये, लातों का भूत बना है।
छल में रहता लिप्त सदा ही, लालच में क्रूर घना है॥

सदा म्यान में हम रखते हैं, सर कलमी सब तलवारे।
आज इसे वो स्थान दिखादो, जीतेंगे हम, वह हारे ॥

कुछ बातों की बात सुनादो, मर्यादा लांघ न पाये।
नानी इसको याद करादो, करने क्यों विचरण आये॥

और गज़ब का क्रंदन होगा, हथियार कलम बन जाये।
मानवता जो तार-तार है, पावनता दर्शन पाये॥

रहता दिल में उत्तम सोचें, वही जगानी इस बारी।
भूल गया वो हर मर्यादा, हमें निभानी पर सारी॥

सीमाओं पर रक्त बहाना, मिलकर अब बन्द करायें। 
सैनिक भी माँओं के बेटे, बढ़ आगे कण्ठ लगायें॥

'कौशिक' तेरी कलम उगलती, बँटवारे का दुख सारा।
फिर भी मर्यादित रहने का, उत्तम आह्वान तुम्हारा॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

ताटंक छंद ◆दिल्ली पुनर्वास की सोचे◆ ■संजय कौशिक 'विज्ञात'■


*ताटंक छंद*  ◆दिल्ली पुनर्वास की सोचे◆
■संजय कौशिक 'विज्ञात'■

ताटंक छन्द अर्द्धमात्रिक छन्द है। ताटंक छंद में भी दोहा की तरह चार चरण होते हैं, इसके विषम पद में 16 मात्राएं होती हैं और सम पद में 14 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों का तुकांत समुकान्त रखा जाता है।  

इसमें विषम पद के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है। परंतु, चरणान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है। यानि सम पद का अंत 3 गुरु से होना आवश्यक है।

16 मात्रिक वाले पद का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक पद की अंतिम 6 मात्रा सदैव 3 गुरु SSS होती है।  

ताटंक छंद 

पुनर्वास का हो प्रयास अब, अब अपनाओ हे दिल्ली।
हत्या ब्रह्म दोष की गुत्थी, कुछ सुलझाओ हे दिल्ली॥

कश्मीरी का विप्र पलायन, दर्द बना कब सीने में।
बाध्य रहे चुप्पी से तेरी, नित मर मर के जीने में॥

टूटी मानवता की धारा, कब-कब जोड़ी जाती है।
कितने घर बर्बाद हुए थे, हृदय पीर थर्राती है॥ 

जातपात के नाम मची है, लूट यहाँ कुछ वोटों की।
आरक्षण की आड़ बनाकर, भ्रष्टाचारी चोटों की॥

कश्मीरी पंडित की वोटें, तुमने खाक मिला डाली।
छाया कैसा नशा अहम् का, ये पहचान हिला डाली॥

द्वापर काल राजधानी की, बात बताई जाती है।
रक्षक कृष्ण विप्र के बनते, सदा सुनाई जाती है॥ 

गिरधारी ने दूर किया था, सब दुख विप्र सुदामा का।
तब से सृष्टि कीर्ति यश गाती, पुनर्वास के जामा का॥

सियाराम ने मुक्ति हेतु तब, महाकाल को पूजा था।
वैसे वो कुछ काल और था, सतयुग कहते दूजा था॥

एक नहीं दो चार नहीं हैं, लाखों बेघर सोते हैं।
दिल्ली तेरी असफलता पर, अश्रु रक्त के रोते हैं॥

शब्द कहा है पंडित हमने, धर्मों से मत तोलो ये।
लज्जावान प्रशासन उत्तम, कलम चला कुछ बोलो ये॥ 

विधि वैधानिक बन सकती है, आगे तुमको आना है।
मानवता भी लज्जित अब तक, उसको हक दिलवाना है॥ 

सत्ता की कुर्सी में दीमक, घुण अच्छा कब होता है। 
वैद्य अगर बीमार पड़ा हो, रोगी दुगना रोता है॥ 

दिल्ली की कुर्सी अब सोचे, सारा देश चलाना है। 
जातपात की ठेकेदारी, भेद धर्म मिटवाना है॥ 

आज पलायन वादी सारे, उनको पुनः बसाना है।
दिल्ली भारत सारे की है, सबको आज बताना है॥ 

इनके आँसूँ पी जाने की, कैसी जिद्द तुम्हारी है।
हत्या ब्रह्म दोष है तुझ पर, रखना मत जो जारी है॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

सरसी छंद / कबीर / समुंदर छंद *◆संजय कौशिक 'विज्ञात'◆*



सरसी छंद / कबीर / समुंदर छंद 
*◆संजय कौशिक 'विज्ञात'◆*

शिल्प एक चरण चौपाई + एक सम चरण दोहा 16+ 11= 27 मात्राओं का सम मात्रिक छंद है 16,11 पर यति का स्थान रहता है। इस प्रकार से इस छंद में दो- दो पंक्ति तुकांत समतुकांत रहते हैं 16 वाले हिस्से को चौपाई की तरह निभाया जाता है जबकि 11 वाले हिस्से का अंत दोहा की तरह गुरु लघु होता है 
27 मात्रा 16/11 अंत गाल गुरु लघु {21} 
4 चरण क्रमागत प्रति 2 चरण समतुकांत 

कर वीणा झंकार ..........

हंसवाहिनी मधुर करो यूँ, वीणा की झंकार।
वेदमयी सुर धार प्रकट हो, होकर हंस सवार॥

वीणा की झंकार हुई जब, प्रथम बजी थी तान।
वीणापाणि कृपा अक्षर पर, बनता छंद विधान॥

लय स्वर से जब होता गायन, ले चहुँ दिश आनंद।
निर्बाधित प्रवाह यति गति का, बने गायकी छंद॥

अदभुत शुद्ध शब्द उच्चारित, करे दया से मूक।
गूढ़ विधा लिखते सब अनपढ़, नहीं बने फिर चूक॥

बने वेद पाठी सब बालक, गूंजे नभ में छंद।
कण्ठ कण्ठ में असर तुम्हारा, कटें जगत के फंद॥

निर्मल स्वच्छ आचरण हो जब, करती मन में वास।
दिव्य ज्योति फिर प्रकट करे माँ, फैले तेज उजास॥

आह्वान करे तेरे साधक, सुनती सबकी टेर।
डिगे नहीं दिल उनका माता, करे न पल की देर॥

शरणागत है कौशिक द्वारे, लो माँ सेवक मान।
 मांग रहा झोली फैला कर, दे दो विद्या दान॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

विधाता छंद ◆गीत◆ ■◆संजय कौशिक 'विज्ञात'◆■


◆गीत◆  विधाता छंद
■◆संजय कौशिक 'विज्ञात'◆■   

छंद - विधाता वाचिक छंद आधारित गीत 
शिल्प: विधाता छंद मात्रिक छंद है इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है और इस छंद में  1, 8, 15, 22 वीं मात्राएँ सदैव लघु 1 होनी अनिवार्य होती है। चार चरण तुकांत समतुकांत रहते हैं इसे मापनी और गण आधार पर इसे सरलता से समझा जा सकता है 
1222 1222 1222 1222 
यगण रगण तगण मगण यगण + गुरु 

हमारे गीत जीवन में हमें कहना सिखाते हैं 
लिखें जिस मौन को ताकत वही अनुपम बनाते हैं 

दिखाई दृश्य पर कहदें निखर के बिम्ब बोलेंगे
सृजन की हर विधा के ये अलग ही भेद खोलेंगे 
मगर नवगीत की सुनलो बिना ये बिम्ब डोलेंगे
अलंकारित छटा बिखरे बनाकर गूंज तोलेंगे

मगर प्रेरित करेंगे ये सदा सोते जगाते हैं 
हमारे गीत जीवन में हमें कहना सिखाते हैं 

प्रकृति की गोद में रख सिर यहाँ से सीख जाते हैं
सभी ऋतुएं दमक उठती मयूरा उर नचाते हैं 
कभी तो सिंधु सा स्वर ले लहर के साथ गाते हैं
उतर के भूमि पर तारे बड़े ही खिलखिलाते हैं 

महकती है तिमिर में जो चमक जुगनू दिखाते हैं 
हमारे गीत जीवन में हमें कहना सिखाते हैं 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

दग्धाक्षर वर्जित ●संजय कौशिक 'विज्ञात'●


*दग्धाक्षर*  

संजय कौशिक 'विज्ञात'

  दग्धाक्षर के छंदशास्त्र के अनुसार गण शुभ अशुभ फल बताए गए हैं। ठीक उसी प्रकार वर्णमाला के कुछ वर्ण भी हैं। जो शुभ अशुभ कारक रहते हैं। जिनके प्रयोग के काव्य का प्रारम्भ निषिद्ध माना जाता है जिनकी संख्या भी निश्चित की गई है। ऐसे वर्ण 19 दग्धाक्षर दोषपूर्ण माने जाते हैं आइये जानते हैं वे कौन कौन से हैं ....
दग्धाक्षर -> कुल उन्नीस हैं ... ट, ठ, ढ, ण, प, फ़, ब, भ, म, ङ्, ञ,  त, थ, झ, र, ल, व, ष,  ह आदि 
 इन उन्नीस वर्णों का प्रयोग काव्य, गीत, छंद आदि के प्रारम्भ में वर्जित है माना जाता है। परन्तु इनमें से भी पंचदग्धाक्षर विशेष आग्रह द्वारा पूर्णतया वर्जित समझने चाहिए -> *झ, ह, र, भ, ष* — ये पंचदग्धाक्षर सर्वदा त्याज्य समझने चाहिए। 
इन दग्धाक्षरों के प्रयोग में कुछ उपाय परिहार स्वरूप भी सुझाए जाते हैं  परिहार सदैव याद रहने वाला सरल है। आइये परिहार के विषय में भी जान लें  
*इन काव्य के प्रारंभ में अशुभ गण तथा दग्धाक्षर के लिखने के संकेत त्याज्य नहीं माने जाते जहाँ मंगल-सूचक अथवा देवतावाचक शब्द से किसी काव्य सृजना की शुरुवात हो रही है वहाँ दग्धाक्षर और अशुभ गण के दोष का परिहार हुआ समझना चाहिए। 

एक आवश्यक जानकारी भी अवश्य सुरक्षित करें ..... 

गण }  देवता }    स्वरूप }  फल } मित्र आदि संज्ञाएँ 
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
यगण } जल }       ISS} वृद्धि या अभ्युदय} भृत्य 
मगण } पृथ्वी}      SSS} लक्ष्मी वृद्धि}          मित्र 
तगण } आकाश}   SSI} धन-नाश}         उदासीन 
रगण } अग्नि}      SIS} विनाश }                शत्रु 
जगण } सूर्य }       ISI} रोग }                उदासीन 
भगण } चंद्रमा }     SII} सुयश }               भृत्य 
नगण } स्वर्ग }       III} आयु }                   मित्र 
सगण } वायु }      IIS} भ्रमण }                  शत्रु


संजय कौशिक 'विज्ञात'

अलंकार प्रयोग ◆◆◆ संजय कौशिक 'विज्ञात'


अलंकार प्रयोग ◆◆◆ संजय कौशिक 'विज्ञात'

विरोधाभास अलंकार/ विरोधीलंकार 

आइये जानते हैं विरोधाभास अलंकार/ विरोधीलंकार की पहचान 
यह अलंकार हिन्दी कविता/छंद में प्रयुक्त होने वाला एक अलंकार का भेद है जिसमें एक ही वाक्य के अंदर आपस में कटाक्ष करते हुए दो या दो से अधिक भावों का मिश्रण किया गया हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है ।

उदाहरण के तौर पर : *'मधुर जहर, मीठा झगड़ा,सौम्य अंगार'*

दोहे के इस चरण में ज़हर को मधुर  बताया गया है जबकि सर्वत्र विदित है कि ज़हर मधुर कदापि नहीं समझा जाता और न ही मधुर होता है। अतः इस प्रकार इस दोहे में  विरोधाभास अलंकार की आवृति स्पष्ट प्रदर्शित है।

मधुर जहर करता असर, मीठा झगड़ा मान। 
सौम्य आग अंगार वे, जलती रिपु पहचान॥
संजय कौशिक 'विज्ञात'  

व्याख्या:- 
जहर के खाने से मृत्यु निश्चित है पर यह मीठा असर कारक बताया गया है यह पहली बात हुई। दूसरी बात में झगड़ा भी मीठा लगता है। तीसरी बात यह है कि अंगारे आग ये सब शीतल से प्रतीत होते हैं ये सब विरोधाभास वाली उक्ति यदि दुश्मन के साथ घट रही है तो उस समय माना जाता है कि दुश्मन तो जितना परेशान रहेगा उतना पल प्रतिपल खून बढ़ता है। और यदि स्वयं के साथ घटती है तो आदमी कराह उठाता है। अतः विरोधाभास तर्क संगत है। 
 यहाँ विरोधाभास अलंकार ने दोहे के तर्क को चार चांद लगा दिए हैं *'मधुर जहर, मीठा झगड़ा,सौम्य अंगार'*





■ *वृत्यानुप्रासी अलंकार*

जहाँ चरण/पंक्ति में एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार होती है वहाँ वृत्यनुप्रास अलंकार होता है


चिन्ता चतुराई चरे, चरे चिता कचकन्द 
चतुर चमक को चाखता, चटक चढ़े चल चंद 
चटक चढ़े चल चंद, चकोरी चंचल चितवन
मंच प्रपंच अचूक, चित्र संचित कर बचपन 
कौशिक सोच विचार, उच्च कह चपल विचिन्ता 
चर्चित विचलित चोंच, कीचमय सचमुच चिन्ता 

संजय कौशिक 'विज्ञात'




*सिंहावलोकन* 

पद्य विधा में सृजन की गई रचना जिसके एक चरण के अंत में प्रयुक्त शब्द  अग्रिम चरण के प्रारम्भ में पुनः प्रयोग किया जाये  जैसे—किसी रचना के अंतिम चरण में ‘पारिजात’ शब्द आ गया है तो अग्रिम पंक्ति का प्रथम शब्द ‘पारिजात’ ही होने से यह चमत्कृत प्रयोग सिंहावलोकन कहलाता है। दूसरे शब्दों में साहित्य में 'सिंहावलोकन' की संज्ञा 'यमक अलंकार' के एक प्रकार अथवा भेद को ही दी गई है। प्रायः देखने में आता है कि सिंहावलोकन चमत्कार छंद के प्रथम चरण के अंत में आये शब्द को अग्रिम चरण के प्रारम्भ में प्रयोग किया जाता है। जो सिंह की तरह मुड़ कर अवलोकन करता हुआ सा प्रतीत होता है यही सिंहावलोकन कहलाता है

अपने प्रिय जनों को समर्पित---
*अपने* सब मिलकर रहें, पूर्ण करें सब *काम*।
*काम* विकारों से परे, *धाम* वही सुख *धाम*
*धाम* वही सुख *धाम*, पुष्प सा होता *विकसित*
*विकसित* हो परिवार, नहीं वे होते *व्यवसित*
*व्यवसित* कवि के भाव, लगे हों मानो *तपने*
*तपने* लगते गैर, शांति पाते हैं *अपने*

*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

*शब्दार्थ:-*
काम - कार्य, काम विकार
धाम - घर , तीर्थ
विकसित - खिला हुआ , विकास
व्यवसित संस्कृत शब्द विशेषण  से अर्थ क्रमानुसार  - धैर्यवान , तत्पर बनते हैं संज्ञा से क्रमानुसार - छल, निर्धारण बनते हैं
तपने - तपस्या, तप्त/ गर्म  होना

*श्लेष अलंकार:-*
एक प्रयोग और देखें (सफल/निष्फल के निर्णायक आप) 

*दृश्य और चिंतनीय विषय* 
अलंकार कैसे लिखा गया, साथियों ने अवगत कराया श्लेष, मानवीकरण और विप्सा। 
एक विवाह के कुछ दृश्य देखे तो उन्हें इस प्रकार जोड़ा, सर्वप्रथम भिक्षुक के पात्र काँसा को देखा जो भरा हुआ था, काँसा दान देखा, काँसा को बहन के साथ जाते देखा तब प्रश्न उठा आज ये सब ऐसे कैसे ? अब सृजन शील मन की प्रारम्भ होती ही सृजनात्मक यात्रा .... जो व्यथा से शुरू है, भिक्षुक का पात्र वो अपनी व्यथा में रो रहा है, छोटे भाई पर सभी समान भाव नहीं रखते इसलिए वो रो रहा है, धातु से बनी मूरत रो रही है ये सामान्य दृश्य हैं जो प्रतिदिन देखे जा सकते हैं। इस प्रकार ये तीनों बिना भाव के पिछड़ जाते हैं, अपने दर्द को किसको कहें और कौन सुनता है आज कल कष्ट भोगी के प्रति हेयता की दृष्टि  अचानक लौकिकता प्राप्त करती हैं। भिखारी का पात्र भर जाता है कनिष्ठ को जिम्मेदारी का अनुभव करा कर बड़ा बनाया जाता है बहन के साथ भेजकर और काँसा का बर्तन खरीदा जाता है दान के उद्देश्य से ...... अब निर्णय आप करें रचना वो सब कह पाने में सक्षम हुई या नहीं जो कवि मन ने देखा और कहना चाहता है 


*श्लेष अलंकार:-*
*एक शब्द में एक से अधिक अर्थ जुड़े हों (जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त हो किंतु प्रसंग भेद में उसके अर्थ अलग-अलग निकलते हों वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।*
*1 काँसा* 
*2 भाव*

*मानवीयकरण अलंकार:-* 
*अमानव ( प्रकृति, पशु-पक्षी व निर्जीव पदार्थ में मानवीय गुणों का आरोपण करना मानवीयकरण अलंकार कहलाता है* जैसे:- 
*काँसा मूरत रो रही*

*विप्सा अलंकार;-* 
*मनोभावों को प्रकट करने के लिए शब्द को दुहराना (विप्सा-दुहराना)* जैसे 
*छि: छि: -- तिरस्कृत , घृणा योग्य*

'कौशिक' काँसा हिय व्यथा, रोया काँसा जातु।
काँसा मूरत रो रही, भिक्षु-पात्र, लघु, धातु ।
भिक्षु-पात्र, लघु, धातु, भाव बिन पीछे रहते।
कौन समझता दर्द, सुनाकर किसको कहते॥
छि: छि: उठता प्रश्न, बने फिर कैसे लौकिक। 
भिक्षु-दान, लघु, धातु, विवाहों में क्यों 'कौशिक' ॥ 
*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

शब्द- अर्थ 
*'जातु' अवयव* (कदाचित्) कभी 
काँसा - कनिष्ठ, भिक्षुक पात्र, धातु 
भाव- भावना/ मूल्य/ भाव (गूढ़ विचार) 
भिक्षु - भिखारी 
कनिष्ठ- लघु

चरण 11, लघु के बाद यति लघु का अर्थ कनिष्ठ: 
बहन के फेरों के बाद जब बहन पहली बार दुल्हन बन ससुराल जाती है तब कनिष्ठ महत्वपूर्ण हो जाता है उसे साथ भेजा जाता है।

*धातु-काँसा* लड़की के विवाह के समय दान दिया जाने वाला काँसा का बर्तन खाण्ड कटोरा कहलाता है। (इसके पीछे की परंपरा का अर्थ भिन्न भिन्न स्थान पर भिन्न हो सकता है और कुछ स्थान पर यह परंपरा हो ही ना ऐसा भी हो सकता है) उत्तर भारत में ऐसा बहुतायात देखने में आता है। जिसका अर्थ यह माना जाता है कि आज से हम दोनों परिवार इस कटोरे की तरह एक हुए और हमारे संबंध इतने ही मधुर रहेंगे जितनी इसमें देसी घी और खण्ड हैं 
प्रश्न यही कि काँसा प्रयोग मृत प्रायः हो चुका है ऐसे में इसकी शुद्धता और आवश्यकता परम्पराओं में जीवित है जहाँ काँसा का प्रयोग अनिवार्य माना जाता है।

*2 भाव* 
धातु ... भाव मूल्य (सोने सी महंगी न हो)
लघु .... भाव विचार (समानता का भाव न हो)
भिक्षु .... भाव दान का (दानवीर के दान करने के  भाव न हों) इनके बिना पीछे रहते हैं  

*मैंने इस रचना को वरिष्ठ साहित्यकारों के समक्ष प्रस्तुत किया समीक्षा उद्देश्य से तो समीक्षा में आई टिप्पणी भी प्रेषित हैं।* 

*समीक्षा-1*
यहाँ कवि कासाँ (कनिष्ठ, भिक्षुक पात्र, धातु) की व्यथा बताते हुए कहते हैं शायद रोया होगा (श्र्लेश) क्यों:-कासाँ धातु की बनी मूर्तियों की,अब कोई आदर नहीं, क्योंकि कासाँ सस्ती धातु है , कनिष्ठ यहां तीन अर्थ मान सकते हैं छोटा, अधीनस्थ,या साधारण , तीनों ही अवहेलना के शिकार हैं,और पात्र बर्तन में सबसे हेय दृष्टि से भीक्षा का पात्र माना जाता है।
तीसरी पंक्ति तक यही बता रहे हैं कवि की तीनों का मूल्य नगण्य है,और तीनों अपनी व्यथा किस्से कहे क्योंकि कोई सुनने वाला नही।
फिर कवि वितृष्णा में भर कह उठता है कि इन्हे व्यवहार में कैसे ले कोई क्योंकि इन्हे निकृष्ट मान लिया गया है,
तो फिर विरोधाभास कैसा,जहाँ जरूरी हो वहां कनिष्ठ ही काम आता है,और लौकिक भीक्षा के लिए दाता को भिक्षार्थी का पात्र ही दिखता है और पूजा के लिए मूर्ति की जरूरत होती है।
यानि,"काज पड़े कछु और है ,काज सारे कछु और"।।

बहुत क्लिष्ट भाव है रचना में गूढ़ अर्थ समेटे ,तो लगता है पुरा भावार्थ कर सकूं मेरे वश में नही है ।
क्योंकि कवि वर्तमान में उपस्थित हैं तो स्वयं अपने भाव प्रकट करें तो आगे अर्थ में भ्रातियां न पैदा हो जैसा कि हो रहा है भूतकाल के कवियों के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अलग रूप दिया जा रहा है।
इस पर विशेष दृष्टि चाहूंगी ।
काव्य उत्कृष्ट है,
*अलंकारों का सांगोपांग उपयोग ,*
*मानवीकरण, श्र्लेश,अन्योक्ति विरोधाभास,और भी हो शायद ।*
धारा प्रवाह उत्तम, शिल्प पर संदेह करूं ऐसी मेरी विज्ञता नहीं 
कुसुम कोठारी
बाराणसी घोष स्ट्रीट, कोलकाता

*समीक्षा-2*
जी सर , काँसा शब्स के आपने जंगल मे खिली कांस , कांस धातु   के अर्थ में प्रयोग किया है ।।मूरत भी कांस धातु  की है जिसे आपने सजीव माना है । भिक्षु का पात्र भी कांस धातु का है ।। 
   इस प्रकार काँसा शब्द दो अर्थो में प्रयुक्त हुआ एक जंगल मे खिली कांस और दूसरी धातु । 
    काँसा धातु कई धातुओं के मेल से बनी है ।इसमें चाँदी और जस्ते जैसी धातुओं का अंश भी रहता है ।इसलिए  इसे  शुद्ध   और पवित्र मानते है ।काँसे का दान चाँदी के दान के समान है इसलिए बहन की विवाह में दिया जाता है । खांड़ कटोरे की रस्म भी काँसे के पात्र से की जाती है ।

   आपकी रचना में सायास अलंकार नही है ।।काँसे धातु की प्रधानता अवश्य है ।।
🙏🌹
काँसा धातु मृत प्रायः इसलिए है क्योंकि स्टील  कें  पात्रों की तुलना में बहुत महंगी है । दूसरा काँसा केवल राख से ही मांज कर शुद्ध  माना  जाता है और चमक भी उसी से आती है । 
    मेरे मायके में हर मर्द काँसे के पात्रों में ही खाना खाता था और दाल सब्जी काँसे के पात्रों में पलट कर रखी जाती थी । पर आज काँच ,चीनी। मिट्टी ,स्टील।
,प्लास्टिक ,बोन चायना के पात्र प्रयोग किये जाते है ।

सुशीला जोशी मुज्जफरनगर (यू.के.)

●शोकहर/सुभंगी छंद● ◆संजय कौशिक 'विज्ञात'◆



●शोकहर/सुभंगी छंद●
◆संजय कौशिक 'विज्ञात'◆

शोकहर/ सुभंगी छंद दोनों छंद में 30 मात्राएं होती हैं ये मात्रिक छंद है इसके प्रत्येक चरण में 8,8,8,6 की यति से (अंत गुरु, गुरु अनिवार्य सहित) 30 मात्राएं होती हैं। जगण चौकल प्रयोग वर्जित है। 
पहली-दूसरी यति तुकांत, चार चरण समतुकांत, 
चरणांत गुरु गुरु 

नशा रोग ये, रहे भोग ये,
रोज  झगड़ते, नर-नारी।

घर-घर झगड़े, फूटें जबड़े,
सहती नारी, बेचारी॥

बना नरक घर, नहीं फरक पर, 
जिनको बोतल, है प्यारी।

छूटे यह लत, पीयें अब मत,
हो न लड़ाई, फिर भारी॥

मिटा होश दे, घटा जोश दे, 
करे तिजौरी, को खाली।

कर बदहाली, रोता माली,
गई मुखों की, सब लाली॥

मिटे नाम भी, पिटे काम भी,
मिले सभी से, बस गाली।

लत छुड़वायें, रोग मिटायें, 
अभियान चले, खुशहाली॥

रिश्ते सारे, बनें सहारे,
अच्छी आदत, तब जानो।

सब कुछ खोया, जैसा बोया
अब तो इसको, पहचानो॥

मित्रो आओ, नशा मिटाओ, 
सभी मनों से, अब ठानो।

नशा मुक्त हो, ख़ुशी युक्त हो, 
मिलती खुशियाँ, फिर मानो॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

◆वर्ष छंद◆ ◆●संजय कौशिक 'विज्ञात'●◆

◆वर्ष छंद◆ ◆●संजय कौशिक 'विज्ञात'●◆

वर्ष छंद यह एक वर्णिक छंद है इसमें 9 वर्ण प्रति चरण रखे जाते हैं तुकांत समनान्त प्रति दो चरण कहा जाता है इस छंद की मापनी और गण निम्न लिखित हैं जिन्हें आसानी से समझा जा सकता है 
मापनी- 222 221 121 
(मगण तगण जगण)

लेना है ऐसा प्रतिकार 
मारे वो पापी किलकार 
आ जाओ आगे ललकार 
देनी है ऐसी फटकार 

लोहा मानें देख पुराण 
थाती ऊंची साक्ष्य प्रमाण 
मापो आओ ये परिमाण 
जागो हो जाओ क्रियमाण

देखो आँखों में प्रतिशोध 
होगा कैसे ये फिर बोध 
बोलो क्या क्या हैं अवरोध 
मेटेंगे सारे कर शोध 

झूठे होंगे वो षडयंत्र 
क्यों हों दोबारा परतंत्र 
पीढ़ी को दो देश स्वतंत्र 
बोलो सारे ये मिल मंत्र 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

कुण्डलियाँ छंद ●विधान उदाहरण सहित● .... ◆संजय कौशिक 'विज्ञात'◆



कुण्डलियाँ  शिल्प विधान .... *संजय कौशिक 'विज्ञात'*
 
सर्वप्रथम विषम मात्रिक छंद कुण्डलियाँ लिखने के लिए दोहा+ रोला = कुण्डलियाँ के सूत्र को समझते हैं ...
दोहा चार चरणों में लिखा जाने वाला अर्धसम मात्रिक छंद है जिसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 13-13 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं दोहे के सम चरणों का अंत 'गाल' अर्थात गुरु लघु से होता है और इसके विषम चरणों के आदि में जगण अर्थात 121 मात्रा भार का प्रयोग  सदैव वर्जित कहा जाता है। साथ ही ध्यान रहे कि दोहे में उत्तम लय प्रावह बना रहे इस उद्देश्य से इसके विषम चरणों के अंत में रगण (राजभा 212) या नगण(नसल 111) का प्रयोग ध्यान पूर्वक किया जाना चाहिए। 

एक बात का और विशेष ध्यान रहे कि दोहा केवल 13,11 और 13,11 मात्रा भार नही समझना चाहिए। बल्कि निम्नलिखित साधारण सी बातों से दोहा विशेष गेयता के साथ उत्तम दिखाई देगी इनका अनुकरण अवश्य करना चाहिए । 
1 दोहे के विषम चरण अर्थात प्रथम एवं तृतीय चरण में शब्द संयोजन त्रिकल से प्रारम्भ किया जाए तो संयोजन 3, 3, 2, 3, 2 के क्रमानुसार होने चाहिए तीसरा त्रिकल गाल अनिवार्य रहेगा जिससे चरणांत रगण (ऽ।ऽ) या नगण (।।।) आ सके।
2 दोहे के विषम चरण अर्थात प्रथम एवं तृतीय चरण में शब्द संयोजन द्विकल या चौकल से प्रारम्भ किये जायें तो संयोजन 4, 4, 3, 2 के अनुसार होगा। ध्यान रहे इसमें भी 8 मात्रा के बाद त्रिकल गाल का प्रयोग अनिवार्य रहेगा। जिससे चरणांत पुनः रगण (ऽ।ऽ)  या नगण (।।।) ही आ सकेंगे।
अब सारणी न. 1 के पाँच कलों के विन्यास में चौथा कल त्रिकल दिख रहा है और सारणी-2 के चार कलों के विन्यास का तीसरा कल भी त्रिकल दिख रहा है इन दोनों का रूप गुरु लघु ही रहेगा जो सारणी में पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है। 
 एक बात और सरल है जिसे दोहा लेखन के समय सदैव कंठस्थ रखना चाहिए हृदय 111, पवन 111,  जैसे शब्द का वाचिक कलन 12 के प्रवाह में लघु गुरु ही रहेगा। तो इस प्रकार का त्रिकल, त्रिकल के बताए स्थान पर त्याज्य रहेगा   यदि भावों के अनुरूप 111 मात्रा भार का त्रिकल चरण में आ रहा है तो वो चरणांत में प्रयोग किया जाएगा जिससे चरणान्त रगण या नगण बन कर गेयता की उत्तम लय प्राप्त कर सके  
3 दोहे के सम चरण का शब्द संयोजन 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3  के अनुसार होता है. मात्रिक रूप से दोहों के सम चरण का अंत यानि चरणांत  गुरु लघु या ऽ। या 2 1 से ही होना चाहिए। 

*एक दोहा देखें* ******

*अनुपम* मुझको लिख रही, लिखे पत्र में मित्र। 
खुशबू कहे गुलाब की, कभी कहे वो इत्र॥ 

*संजय कौशिक 'विज्ञात'*


*रोला* *****
*रोला एक सम-मात्रिक छंद होता है इसमें भी दोहा की तरह 24 मात्राएँ होती हैं, अर्थात विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं 11वीं व 13 वीं मात्राओं पर यति अर्थात विराम होता है। यति से पूर्व (SI 21) अर्थात् गुरु लघु तथा अंत में वर्जित जगण को छोड़ कर चौकल अर्थात् 112, 22, 211 रखने से लय सुन्दर और सधी हुई मिलती है।* 

*एक रोला देखें* ******

कभी कहे वो इत्र, पृष्ठ की स्याही महकी। 
अक्षर स्वर्णी वर्ण, कहीं मात्राएं बहकी॥ 
कह कौशिक कविराय, परे हैं विवाद से हम।
कहती है वो मित्र, तुम्हीं हो जग में *अनुपम*॥

*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

*कुण्डलियाँ*
अब आते हैं मूल कुण्डलियाँ के स्वरूप पर आइये इसे भी समझते हैं। कुण्डलिया एक विशिष्ट विषम मात्रिक छंद है जो दो छंदों के मेल से निर्मित हुआ कुण्डलियाँ का अपना मनोहारी स्वरूप है। जिसके प्रथम भाग में दोहा लिखा जाता है और द्वितीय भाग में रोला लिखा जाता है अर्थात दोहा की दो पंक्ति के पश्चात रोला की चार पंक्तियाँ से नया छंद कुण्डलियाँ छः पक्तियों में लिखी जाती है 

दोहा और रोला के विशिष्ट नियम साझा हो चुके हैं. इसके आगे, इनके संयुक्त को प्रारूप को कुण्डलिया छंद बनने के लिए थोड़ी और विशिष्टता अपनानी पड़ती है :.

1 दोहा के पहले चरण (विषम चरण) का पहला शब्द या पहला शब्दांश या पहला शब्द-समूह रोला के आखिरी चरण (सम चरण) का शब्द या शब्दांश या शब्द-समूह क्रमशः समान होता है।

2 दोहा का चतुर्थ चरण अर्थात द्वितीय सम चरण रोला का प्रथम विषम चरण बनता है। पुनः समझें दोहा का द्वितीय सम चरण रोला के प्रथम विषम चरण में ज्यों का त्यों उठा कर पुनः प्रयोग किया जाता है 

3 शेष सभी नियमों में दोहा अपने मूल नियमों से लिखा जाता है और रोला के भी अपने मूल नियमों को निभाना आवश्यक होता है।

पोस्ट को अधिक लंबी न करते हुए सरलता के उद्देश्य से कुण्डलियाँ की मापनी प्रत्येक पंक्ति की प्रेषित कर रहा हूँ जिसका अनुकरण कर पाना नवोदित के लिए सहज और सरल रहेगा। और हर सम्भव प्रयास करे कि चौकल शब्द से ही कुण्डलियाँ के दोहे को शुरू करे। अंत तक उत्तम लय प्राप्त होगी आइये आते हैं अब अपने मुख्य छंद कुण्डलियाँ को देखें और समझें 

जो मापनी अथवा मीटर पर लिख सकते हैं उनके लिए

*22* 22 212, 22 22 21
22 22 212, *22 22 21*
*22 22 21*,12 2 22 22 
22 22 21,12 2 22 22 
22 22 21,12 2 22 22 
22 22 21,12 2 22 *22*

अब दोहा और रोला को एक साथ जोड़ कर समझते हैं 

एक शरारत भरे पत्र के माध्यम से आप सभी को समर्पित है
🙏🙏🙏😃😀😀

कुण्डलियाँ देखें 
(1)
*अनुपम* मुझको लिख रही, लिखे पत्र में मित्र। 
खुशबू कहे गुलाब की, कभी कहे वो इत्र॥ 
कभी कहे वो इत्र, पृष्ठ की स्याही महकी। 
अक्षर स्वर्णी वर्ण, कहीं मात्राएं बहकी॥ 
कह कौशिक कविराय, परे हैं विवाद से हम।
कहती है वो मित्र, तुम्हीं हो जग में *अनुपम*॥

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

(2)
*कविता* कल्पित क्यों कहूँ, मेरा यही यथार्थ 
सोच सको तो सोचलो, क्या है इसमें स्वार्थ 
क्या है इसमें स्वार्थ, साधना साधक किसका
जो कुछ भी हूँ आज, सभी फल यश है इसका 
कह कौशिक कविराय, योग्य को वरती भविता
करे कृपा बुध योग, *कुंडली* में है *कविता* 

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

एक और प्रयोग देखें, कुण्डलियाँ में सर्प 
(3)
*बचपन* सरगम मय कथन, वचन शहद मय करम।
अनबन तब अटपट समझ, अटक-अटक कह मरम॥
अटक-अटक कह मरम, अचल रह सच वह भगवन।
हवन परक सब धरम, अटल पथ पर पय अचवन॥
सकल चलन मन भरम, शतक सम अब यह पचपन।
सबक रबक लय शरम, सरल भय रखकर *बचपन*॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'


एक प्रयास और देखें कुण्डलियाँ में सर्प 
(4)
*हरपल* मन-मन कर मनन, चरण शरण हर करम। 
हर-हर हरदम हर वरण, अटल अचल कर धरम॥
अटल अचल कर धरम, भजन मय रटकर सरगम। 
जगत भगत कह भरम, तपन कर जमकर हरदम॥ 
समझ भवनमय अरथ, समय पर बस सरवर चल।
चटक मटक लय खरज, सफल तब वह लय *हरपल*॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

एक प्रयोग और देखें कुण्डलियाँ में सर्प 
(5)
*अनपढ़* रह कर मत ठहर, चल बढ़कर  कर करम। 
सब सत जन कह लह डगर, चल मन रख अब नरम॥ 
चल मन रख अब नरम, सतत रहकर तज अनबन। 
सरजन कर नव सरग, सनक कम मत कर तनमन॥ 
अवसर पर कर धरम, सकल जग गढ़ यह अनगढ़।
छलन हरण यह मरम, समझ सच दरपण *अनपढ़*॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

अब पत्र नहीं मित्र 📞 करती है और हुई चर्चा का कुछ अंश 😃😍😀😀😀

कुण्डलियाँ 

(6)
*लगते* हो अनुपम मुझे, कहे सपेरा मित्र 
कुण्डलियाँ से सर्प के, छाप रहे हो चित्र 
छाप रहे हो चित्र, महारत कैसे पाई 
कैसे बजती बीन, कला किसने सिखलाई 
कह कौशिक कविराज, कलम से मात्रा ठगते 
स्वर ले एक 'अ' बीन, उसी को लिखने *लगते*

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

विशेष:- सम्भव है कहीं शिल्प बताने में या निभाने में कोई त्रुटि रह गई हो तो निवेदन है सूचित करके शुद्ध करने में सहयोग अवश्य करें.....

●असंबधा छंद● ■संजय कौशिक 'विज्ञात'■


असंबधा छंद●  ■संजय कौशिक 'विज्ञात'■
◆शिल्प विधान ◆
यह एक वार्णिक छंद है, जिसमें 14 वर्ण लिखे जाते हैं। जिसकी मापनी और गण क्रम निम्नलिखित हैं  
तुकांत 2 चरण प्रति समनान्त 
{222 221 111 112  22}
मगण तगण नगण सगण गुरु गुरु 
गीत****

रोते क्यों वो भेज प्रणय वर बेटी को।
मानें हैं जो दीप किरण घर बेटी को॥

बेटे-सा दामाद अगर मिलता देखा।
तो ही लेते निर्णय जब खिलता देखा॥
सोने जैसा पीतल जब चलता देखा।
रोते क्यों ? क्या? सोच समझ कर बेटी को .....

रिश्ता तो माँ बाप चयन करते देखो ।
होता जो संजोग वरण वरते देखो॥ 
देते बेटी दान सदन भरते देखो ।
देखें रिश्ते लाल नयन भर बेटी को .....

रोती आँखें और सिसक उठती बेटी ।
कैसे हों ये शांत सुबक उठती बेटी॥ 
शीशे जैसी टूट चटक उठती बेटी ।
मारे क्यों ये मार बहन पर बेटी को ........

छोड़ो लेने यौतुक अब बदहाली के।
खोलो आँखें द्वार परम हरियाली के॥ 
होंगे ये साकार सपन बलशाली के।
सोचें ऐसे योग्य सफल हर बेटी को .......

संजय कौशिक 'विज्ञात'

●अनंद छंद● ●बेटियाँ पढ़ाइये बेटियाँ बचाइये● ◆संजय कौशिक “विज्ञात”◆


*●अनंद छंद●   *संजय कौशिक “विज्ञात”
आधारित गीत
अनंद छंद वार्णिक छंद है इसमें 14 वर्ण होते हैं लघु गुरु की क्रमानुसार 7 बार आवर्ति होती है। गण और मापनी के द्वारा इसे निम्न तरीके से समझा जा सकता है प्रति 2 पंक्तियों का तुकांत समनान्त लिखा जाता है 
गण:- [जगण, रगण, जगण, रगण + लघु गुरु]
 मापनी:-  {121 212 121 212 12}

करो प्रचार खूब बेटियाँ पढ़ाइये।
विचार नेक आज बेटियाँ बचाइये॥

जगे प्रभाव ज्ञान से समाज ये अभी।
मशाल थाम के चलो रुको नहीं कभी॥
सुझाव मानते हुऐ यहाँ बढ़ो सभी।
बनो प्रतीक तेज आज प्रेरणा तभी॥
स्वभाव से मुदा हिये सुता बसाइये …….

बने प्रकाश लोग मार्ग देख के चलें।
न अन्धकार कालिमा कहीं नहीं पलें॥
थके नहीं डटे नहीं कभी अड़ान पे।
रुके नहीं उड़े चले सदा उड़ान पे॥
सँवार दे जहान को इन्हें उड़ाइये ……..

बने मकान यूँ विशाल आसमान में।
दिखा चुकी उड़ान कल्पना जहान में॥
तमाम कल्पना नवीन बेटियाँ बनें।
सधी हुई पढ़ी प्रवीण बेटियाँ बनें॥
बिना पढ़ी यहाँ न बेटियाँ बनाइये ……

करे पिता व मात कर्म गाँव गाँव में।
प्रधान पंच लें कमान धूप छाँव में॥
बचाव बेटियाँ प्रयास तेज आज हों।
विकास देश का बने प्रभाव काज हों॥
उदारता महान संजु रोज गाइये ……..

संजय कौशिक “विज्ञात”

ताटंक छंद ◆राष्ट्र भाषा हिन्दी हो घोषित◆ ■संजय कौशिक 'विज्ञात'■


*ताटंक छंद*  ◆राष्ट्र भाषा हिन्दी हो घोषित◆
■संजय कौशिक 'विज्ञात'■

शिल्प विधान: 
ताटंक छन्द अर्द्धमात्रिक छन्द है। ताटंक छंद में भी दोहा की तरह चार चरण होते हैं, इसके विषम पद में 16 मात्राएं होती हैं और सम पद में 14 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों का तुकांत समुकान्त रखा जाता है।  
इसमें विषम पद के अन्त को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं है। परंतु, चरणान्त तीन गुरुओं से होना अनिवार्य है। यानि सम पद का अंत 3 गुरु से होना आवश्यक है।
16 मात्रिक वाले पद का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक पद की अंतिम 6 मात्रा सदैव 3 गुरु SSS होती है।  
ताटंक 

भारत के माथे की बिन्दी, हिन्दी हमें सजानी है। 
यही राष्ट्रभाषा हो घोषित, अब आवाज उठानी है॥

सजी धजी मनमोहक लगती, सबकी यह पहचानी है। 
बच्चा बोले प्यारी बोली, इसकी चूनर धानी है॥

संसद सारी गूंज उठे अब, प्यारी हिन्दी बोली से। 
लड़े लड़ाई जनता सारी, राजनीति की टोली से॥

भारत की भाषा हो हिन्दी, मिलके आगे लानी है। 
तब विकास होगा भारत का, ये गंगा का पानी है॥

धर्म-अर्थ की राजनीति में, हिन्दी को अपनाना है।
सरल, सरस, मीठी बोली ये, सबको यह समझाना है॥

अनुच्छेद शत विंशति से अब, अंग्रेजी हटवाना है।
संसद में अपमानित हिन्दी, उसको हक दिलवाना है॥

देवनागरी हिन्दी लिपि से, विश्व पटल को आशा है।
शासकीय उपयोगों मे क्यों, अंग्रेजी ही भाषा है॥

विनिर्दिष्ट संशोधन हो अब, जन-जन की अभिलाषा है।
नही राष्ट्रभाषा बनती है, तब तक घोर निराशा है॥

दिल्ली अब क्या सोच रही है, कथनी क्यों अब बाँकी है। 
कुर्सी से चिपकी जिह्वा है, या कुर्सी में टाँकी है॥

सदियों तक तेरे साहस के, किस्से गाये जायेंगे।
संसद के अभिभाषण सारे, जब हिन्दी मे पायेंगे॥

शुभ अवसर 'कौशिक' आया है, लिखनी नई कहानी है।
यही राष्ट्रभाषा हो घोषित, यह आवाज उठानी है॥

संजय कौशिक 'विज्ञात'

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ .. संजय कौशिक 'विज्ञात'


*बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ* 

भारत देश के लिए भ्रूण हत्या एक अभिशाप से कम नहीं देश के विभिन्न राज्यों में लड़को की अपेक्षा लड़कियों का लिंगानुपात देखा तो शर्मनाक स्थति है।यधपि परिवार की धुरी बेटा और बेटी दोनों पर टिकी है यथा.. 

"पुत्र सुता दोनों भले, सूर्य चन्द्र दो नैन।
दोनों की गरिमा अलग, होते कब दिन रैन॥"

तथापि यह एक मूर्खतापूर्ण मानसिकता से अधिक कुछ नहीं कही जा सकती है। भ्रूण हत्याओं के कारण लिंगानुपात तेजी से घटता जा रहा है । देश व समाज को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।प्रमुख है अविवाहित वर्ग की निरन्तर वृद्धि, परिणाम नशाखोंरि ,नारी हिंसा, उत्पीड़न और अनेक दण्डनीय अपराधों की संलिप्तता में  वृद्धि  ; यदि ऐसा ही रहा तो बहुपतित्व प्रथा आने में देरी नहीं है ।
समाज के कुछ हितैषी लोग चिंता ग्रस्त रहते हैं  किन्तु आँखों के सामने अन्धकार छाया रहता है ।
 भारतीय केंद्रीय सरकार ने गहन अध्य्यन किया । गहरे शोध से यह तथ्य उभर कर सामने आया कि अशिक्षित वर्ग किसी विशेष पीड़ित मानसिकता के कारण भ्रूण हत्याएं करवाता आ रहा है;और भ्रूण हत्याओं का मुख्य कारण पीड़क वर्ग की तुच्छ मानसिकता है जो विवश करती है जघन्य अपराध करने को विशेषकर दहेज़ प्रथा, छेड़छाड़,कुकृत्य बेटी को आने से पहले ही मौत के घाट उतारना  ;इस प्रकार  रहस्यमयी दर्दनाक रोग से पीड़ित समाज के अशिक्षित वर्ग का इलाज करने हेतु वर्तमान भाजपा केंद्रीय सरकार दृढ़ संकल्पित हुई औषधी खोजी गई और इलाज के लिए जुट गई। वर्तमान प्राधान मंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में प्रारम्भ हुए इलाज का नाम रखा गया *बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ* अभियान। देखा और समझा जाए तो इस अभियान के आगाज की आवश्यकता आज से बहुत पहले थी। पर तात्कालीन सरकारें इस विषय को न तो गंभीरता से ले पाई और न समझ ही पाई, फिर निदान दे पाना और समाज को जागरूक करने के विषय में कुछ भी सोच पाना असंभव ही कहा जा सकता था। फिर इस प्रकार के दूरगामी परिणाम की सोच के अभियान चला पाना अति दुष्कर कार्य की कल्पना करना भी बेमानी कही जाए तो गलत न होगा।और इस गलत काम की शुरुवात गलत तरीके से हुई तो परिणाम भी गलत ही होंगे इसमें भी कोई संदेह नहीं। विज्ञान के लाभ अपने पर इसके प्रयोग गलत तरीके से किये गए चिकित्सकों को अपनी दुकानें चमकाने के लिए गलत तरीकों से प्रचार करने की छूट प्राप्त थी कोई अंकुश नहीं था,

ऐसे में वर्तमान माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में बनी केंद्रीय भाजपा सरकार ने इस समस्या को बखूबी गम्भीरता से लिया, समझा और इसके कारणों पर भी गिद्ध जैसी पैनी दृष्टि लगा कर इसका समाधान रूपी रामबाण इलाज भी खोज निकाला। *बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ*।डूबती हुई आँखों ने नए युग के नए सूरज को सलाम किया।22जनवरी 2015 को ऐतिहासिक स्थल पानीपत हरियाणा प्रान्त के शंखनाद को वैश्विक पटल पर सुना गया।

"खानदान वृत बन सुता, उत्तम ले संस्कार।
जाती है ससुराल में, कुशल करे व्यवहार॥"

बेटियों के आगमन से समाज फलेगा-फूलेगा पढ़ने से स्वतः ही शिक्षित हो जायेगा किसी को कहना नहीं पड़ेगा 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'। 

सभी विभाग यथा संभव सहयोग प्रदान कर रहे हैं स्वास्थ्य विभाग ने लिंग जांच कर्ता की सूचना प्रेषित करने वालों को 10 लाख तक इनाम वितरित किये हैं। ताकि इस नेक कार्य को पूर्ण तथा सफल  रूप प्रदान किया जा सके। शिक्षा विभाग गणतंत्र दिवस तथा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर नवजात बालिकाओं एवं उनकी माताओं को सम्मानित कर प्रोत्साहित करता है ।सरकार ने अनेक योजनाओं के तहत जैसे अनमोल बेटी है, रक्षक योजना, मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना, गर्ल चाइल्ड प्रोटेक्शन योजना तथा मुख्यमंत्री कन्यादान योजना से बेटियों को सम्बल प्रदान किया है।मुख्य मंत्री शुभ लक्ष्मी, धन लक्ष्मी, सुकन्या समृद्धि, लाडली लक्ष्मी योजनाओं ने बेटी को धरती पर लाने का प्रोत्साहित रूप अदा किया है। सरकार के साथ-साथ विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाली छात्राओं को टेलेंट अवार्ड, तथा आंगनबाड़ी केंद्रों में गुड्डा-गुड्डी बोर्ड लगा कर सम्मान दिया जा रहा है;जिनमें 6 वर्ष तक कि बालिकाओं को सम्मिलित किया जाता है। प्रशासन पूरी तरह से लोगों की मानसिकता परिवर्तित करने के लिए प्रयासरत है।  

*हरियाणा के पानीपत से हुए चतुर्थ युद्ध के आगाज़ ने* हरियाणा की ही नहीं बल्कि देश भर की बेटियों को नए दृष्टिकोण से देखने पर विवश किया है।विशेष उपलब्धि प्राप्त आदरणीया सुषमा स्वराज, कल्पना चावला, संतोष यादव, साक्षी मलिक, गीता-बबिता, विनेश फौगाट, मानसी छिल्लर, सपना ने बेटियों के इतिहास को स्वर्णिम आकार प्रदान किया है। यह राष्ट्र के लिए गर्व की बात है। सबसे अधिक गर्वमय के क्षण तो तब सामने आए जब आँकड़ों की बात हुई इस युद्ध के आगाज़ से पूर्व अकेले हरियाणा में ही 1000 लड़कों पर 930 लड़कियां रह गई थी। किंतु नवम्बर 2018 के सर्वे में हरियाणा में बेटियों का स्तर चमत्कारिक रूप से बढ़ा है यह संख्या 930 से बढ़ कर 1034 हो गई है यह तो अकेले करनाल का आंकड़ा है। हरियाणा के अन्य जिलों में भी स्थिति सुधार पर है।


समाज में पनप रही संकीर्ण मानसिकता भ्रांतियों के मध्य दीमक है जिसने समाज को खोखला कर दिया बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ अभियान सफल और कारगर सिद्ध हुआ ।देखते ही देखते बेटियां युद्ध भूमि की शूरवीर यौद्धा बन गयी  ।युद्ध के समय शत्रु से लड़ते समय संधान किया जाने वाला ब्रह्मास्त्र विजय दिलाने के लिए वचन बद्ध होता है।यह ब्रह्मास्त्र विजय पताका फहराएगा इस विश्वास के साथ सरकार जन-मन को ले आगे बढ़ी ।क्योंकि इससे सामाज कीअनेक बुराइयों का समूल नाश किया जा सकता है। एक तो बेटियों की भ्रूण हत्याओं पर आज पूर्णतया रोकथाम लग चुकी है। और दूसरा अशिक्षित वर्ग शिक्षित हो चला है जिससे भविष्य में इस प्रकार की सुरसाभिमुख सामाजिक लिंगानुपात की समस्या से देश के समक्ष विकट परिस्थितियों में कमी आई है।कुछ राज्यों में बेटियो की स्थिति अभी भी शोचनीय है वहां अभी प्रयास अधुरे लग रहें हैं। मन में विश्वास है भारत ही नही विश्वभर में बेटियों को उनका अधिकार प्राप्त होगा । समाज कृत कृत्य हो उठेगा। अंततः यह स्वप्न बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ सफल साकार सिद्ध होगा । जीससे बेटियों के स्वाभिमान के अन्य चमत्कार भी विश्वमंच अवश्य देख सकेगा। 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

शराब के विनाश से .... संजय कौशिक विज्ञात

 
पञ्च-चामर छंद 
यह छंद वार्णिक छंद है, चार चरण के इस छंद में 8 लघु 8 गुरु क्रमानुसार (लघु गुरु) एक-एक करके कुल 16 वर्ण होते हैं कम से कम दो चरणों के युग्म में चरणान्त समनान्त रहेगा।
मात्रा भार- 1212121212121212 
का अनुकरण करके सृजन किया जा सकता है, पुनः दोहराता हूँ कि इस छंद में मात्र वर्ण विन्यास (लघु गुरु) सावधानी पूर्वक रखना होगा क्योंकि यह वार्णिक छंद है।
जगण रगण जगण रगण जगण गुरु (1) गण विधान से इसे ऐसे समझा जाता है। शौर्य भाव भरी रचना के लिए कवि इस छंद का प्रयोग करते हैं । इस छंद में रावण द्वारा विरचित ताण्डव स्त्रोत बहुत प्रसिद्ध है देखिये:- 

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले।
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌॥
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं।
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम॥

इसी शिल्प विधान का अनुकरण करती हुई एक रचना :- 

शराब के विनाश से .... संजय कौशिक विज्ञात
शराब के विनाश से समाज को बचा चलो। 
उठो प्रबुद्ध शुद्ध हो विचार से नहीं टलो॥ 

नशा बुरा समाज में विपक्ष में मिलो खड़े।
निगाह लक्ष्य भेद दे विराट भीड़ से अड़े॥ 

जड़ें उखाड़ दो अभी समाज स्वस्थ हो सके।
शराब बंद हो सके अशुद्ध बोल से पके॥

विभाग साथ दे तभी प्रयास जो हमीं करें। 
प्रधान भी विकास की उमंग ये सभी भरें॥ 

पिता करे न जुल्म यूँ शराब के प्रभाव से।
सहे न जुल्म बेटियाँ विशेष हों सुझाव से॥

नशा मिटे प्रहार से विरुद्ध युद्ध जो बनें।
विचार धार के यही समृद्ध हों सभी जनें॥ 

पिटें न नारियाँ कभी शराब का विनाश हो। 
उतार दो वहीं नशा न द्वेष का प्रकाश हो॥ 

पढ़ी न बेटियाँ जहाँ शराब के प्रताप से।
प्रकोप झेलते वहाँ लगे महान पाप से॥ 

पुकार जिन्दगी करे विलास भाव छोड़ दो। 
दिखें शराब बोतलें तुरन्त आप फोड़ दो॥ 

विवेकशीलता दिखे प्रहार रोग पे करो।
समाज ये नशे बिना बना चलो नहीं डरो॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

ठिठुरती ठण्ड

*कलम की सुगंध*
*मनहरण घनाक्षरी*
*विषय: ठिठुरती ठण्ड* 

दीन तन ढाँपता है, अंग-अंग काँपता है,
ठण्ड हद पार हुई, पारा तीन चार है।

रिजाई में छिद्र दिखें, मित्र हैं चूहे सरीखे, 
रोता चीखे सारी रात, बहुत लाचार है॥

आधी रात सोया नहीं, युक्ति नहीं मिली कहीं,
सहता बेचारा ठण्ड, ऐसा रोजगार है।

पन्नी सारी जोड़ लाया, जिन्हें नहीं बेच पाया,
उनको ही आग देदी, ढूंढा उपचार है॥

*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

Saturday, January 25, 2020

पञ्चचामर छंद ●दहाड़ सिंह तुल्य● ■संजय कौशिक 'विज्ञात'■


पञ्चचामर छंद 
दहाड़ सिंह तुल्य 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 
पञ्चचामर छंद वार्णिक छंद है, चार चरण के इस छंद में 8 लघु 8 गुरु क्रमानुसार (लघु गुरु) एक-एक करके कुल 16 वर्ण होते हैं कम से कम दो चरणों के युग्म में चरणान्त समनान्त रहेगा।
मात्रा भार- 1212121212121212 
का अनुकरण करके सृजन किया जा सकता है, पुनः दोहराता हूँ कि इस छंद में मात्र वर्ण विन्यास (लघु गुरु) सावधानी पूर्वक रखना होगा क्योंकि यह वार्णिक छंद है।
जगण रगण जगण रगण जगण गुरु (1) गण विधान से इसे ऐसे समझा जाता है। शौर्य भाव भरी रचना के लिए कवि इस छंद का प्रयोग करते हैं । इस छंद में रावण द्वारा विरचित ताण्डव स्त्रोत बहुत प्रसिद्ध है देखिये:- 

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले।
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌॥
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं।
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम॥

इसी शिल्प विधान का अनुकरण करती हुई एक रचना :- 


पञ्चचामर छंद 
दहाड़ सिंह तुल्य 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

दहाड़ सिंह तुल्य है तिरंग प्रेम आग है।
प्रसंग वीरता भरे कहे विशाल भाग है॥

अनंत काल देखता प्रभाव ज्ञान शून्य का। 
समस्त भूमि को दिया विचार सत्य पुण्य का॥

अजेय शौर्य की कथा बखान वीरता भरी।
विराट देश शूर की परम्परा करे हरी॥

विराग राग देख के प्रभाव ज्ञान के सुनो।
बहाव रंग ढंग के समान भाव को चुनो॥ 

प्रबुद्ध शुद्ध बोल हैं प्रवाह टेक एक है।
हुतात्म वीर देश के कहें यहाँ हरेक है॥
हुतात्म= शहीद

कमान हाथ हिन्द की विशेष रूप नाम के।
पहाड़ रेत अम्बु में हितार्थ देश काम के॥ 

विराट युद्ध भेदते विशाल शत्रु खेलते।
सपूत देखलो यही प्रहार नित्य झेलते॥

समक्ष कौन है टिका महान शूरवीर ये।
जवान जोश से भरे समर्थ आज धीर ये॥ 

सुहाग, पुत्र रूप में कहीं पिता व भ्रात है।
जवान खण्ड खण्ड के धरा अखण्ड मात है॥

सपूत शीश रोपते निहारते पुकारते 
स्वतंत्रता मिली हमें कठोर रूप धारते

विधान देख लो भले महान ये पुराण से।
सदैव कर्म-धर्म से पवित्र ये प्रमाण से॥

अनादि रोशनी करें वही प्रकाश व्याप्त है।
दिखा रहे सुपंथ जो विकास आज प्राप्त है॥ 

प्रतीक वीर विश्व में महान सत्य भारती।
उतारते सपूत हैं प्रभात-सांझ आरती॥ 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, January 24, 2020

कह मुकरी संजय कौशिक 'विज्ञात'



कह मुकरी विधान 
संजय कौशिक 'विज्ञात'
कह मुकरी एक लोक छंद है।यह छंद काव्य की एक पुरानी मगर बहुत खूबसूरत विधा है। यह चार पंक्तियों की संरचना है। यह विधा दो सखियों के परस्पर वार्तालाप पर आधारित है। जिसकी प्रथम 3 पंक्तियों में एक सखी अपनी दूसरी अंतरंग सखी से अपने साजन (पति अथवा प्रेमी) के बारे में अपने मन की कोई बात कहती है। परन्तु यह बात कुछ इस प्रकार कही जाती है कि अन्य किसी बिम्ब पर भी सटीक बैठ सकती है। जब दूसरी सखी पहली से यह पूछती है कि क्या वह अपने साजन के बारे में बतला रही है, तब पहली सखी लजा कर चौथी पंक्ति में अपनी बात से मुकरते हुए कहती है कि नहीं वह तो किसी दूसरी वस्तु के बारे में कह रही थी ! यही "कह मुकरी" के सृजन का आधार है।

इस विधा में योगदान देने में अमीर खुसरो एवम् भारतेंदु हरिश्चन्द्र जैसे साहित्यकारों के नाम प्रमुख हैं ।

यह ठीक 16 मात्रिक चौपाई वाले विधान की रचना है। 16 मात्राओं की लय, तुकांतता और संरचना बिल्कुल चौपाई जैसी होती है। पहली एवम् दूसरी पंक्ति में सखी अपने साजन के लक्षणों से मिलती जुलती बात कहती है। तीसरी पंक्ति में स्थिति लगभग साफ़ पर फिर भी सन्देह जैसे कि कोई पहेली हो। चतुर्थ पंक्ति में पहला भाग 8 मात्रिक जिसमें सखी अपना सन्देह पूछती है यानि कि प्रश्नवाचक होता है और दुसरे भाग में (यह भी 8 मात्रिक) में स्थिति को स्पष्ट करते हुए पहली सखी द्वारा उत्तर दिया जाता है ।

हर पंक्ति 16 मात्रा, अंत में 1111 या 211 या 112 या 22 होना चाहिए। इसमें कहीं कहीं 15 या 17 मात्रा का प्रयोग भी देखने में आता है। न की जगह ना शब्द इस्तेमाल किया जाता है या नहिं भी लिख सकते हैं। सखी को सखि लिखा जाता है।

चमक दमक कर वो इठलाये। 
मन की बातें वो बतियाये। 
रूप लगे जिसका मनभावन।
हे सखि साजन? ना सखि सावन॥ 

प्रेम प्रीत है उसकी माया
दो परियों सी जिसकी काया 
बातें मीठी मन में उकरी 
हे सखि कोयल? ना सखि मुकरी 

देख अचानक आहट सुनकर 
सखियाँ बातें करती उसपर 
किसके कारण तू है पिचकी
हे सखि साजन? ना सखि हिचकी 

जिसका आना है मन भावन 
और लगे गंगा सम पावन
बातें उसकी होती मिठ्ठी 
हे सखि साजन? ना सखि चिट्ठी 

इधर-उधर जो दिखता उत्तम 
शांत स्वभावी लगता अनुपम 
दृष्टि पटल सम्मोहित कजरा 
हे सखि साजन? ना सखि गजरा

संजय कौशिक 'विज्ञात'