copyright

Monday, March 30, 2020

नवगीत : हँसता पाटल : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
हँसता पाटल 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/14


कंटक के आंचल से निकला, 
खिलता सा पाटल हँसता।
तूने क्या उपहार समेटा,
जो दो धेले सा सस्ता।

फिर जीवन के इस पड़ाव में, 
एक खुशी महकाई है।
हर्ष पूर्ण यौवन सी खिलकर,  
एक कली चहकाई है।
भ्रमित हुई या भ्रमर गान पर, 
किसने वो बहकाई है।
मादक मारक खिली हुई सी, 
चिर अद्भुत तरुणाई है।
आकर्षण का केंद्र पूर्ण वो, 
क्षण क्षण उसमें है बसता .....

2
कल्पित कहूँ अप्सरा उसको, 
मनभावन सा रूप कहूँ।
खिली शरद की रात चांदनी, 
या दिनकर की धूप कहूँ।
स्वर्ण चिड़ी सी चहके जब वो, 
कोयल चहक अनूप कहूँ।
शीतल पुंज भरा भावों का, 
गहरा सुंदर कूप कहूँ।
दिखती रात तीसवीं तिथि पर, 
दीप्त दीप भीतर चसता ...

संजय कौशिक 'विज्ञात'

11 comments:

  1. वाह !बेहतरीन सृजन सर

    ReplyDelete
  2. अति सुन्दर सृजन आदरणीय 👌👌👌

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर आदरणीय आपकी रचना अति मनभावन

    ReplyDelete
  4. श्रृंगार रस से भरपूर लाजवाब नवगीत आदरणीय 👌
    आप हर विधा हर रस को जिस खूबसूरती से लिखते है पढ़ने वाला प्रेरित हुए बिना नही रह सकता। बिम्ब के माध्यम से अभिव्यक्ति आसान नही पर रचना को विशेष जरूर बना देती है। इस सुरीले नवगीत के लिए बहुत बहुत बधाई 💐💐💐💐

    ReplyDelete
  5. वाह!!!
    अद्भुत एवं लाजवाब सृजन।

    ReplyDelete
  6. बिलकुल अनूठे बिंबों के माध्यम से अपनी हर बात को आप कितने सहज सरल तरीके से कह जाते हैं 👏👏👏👏👏👏👏👏एक अनुकरणीय नवगीत 👌👌👌👌👌👌

    ReplyDelete
  7. अप्रतिम, अद्भुत रचना 👌

    ReplyDelete