नवगीत
डोर की आहें
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 14/14
श्रावणी का हर्ष खिलता
तो कहीं राखी पिघलती
दूर बहना से कलाई
डोर की आहें निकलती।।
चुप पड़ी एकांत में वो
थाल उसको मौन देखे
और टीका रोलियों का
चावलों में कौन देखे
दिख न पाया भाल उनको
वो घड़ी विष ही उगलती।।
दीप का अन्तस् सिसकता
व्याधि करती परिकलित तब
बातियाँ बहना बनी नित
और दीपक प्रज्वलित तब
एक दावानल बना सा
प्रीत बहना रीत जलती।।
दृष्टि रक्तिम चीख कहती
पर पलक हैं शांत बैठी
कुछ प्रतीक्षा झूठ की है
मार मन को क्लांत बैठी
बिन कलाई डोरियों की
हिय व्यथा किनसे सँभलती।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
वाह वाह वाह अति उत्कृष्ट सृजन गुरुदेव जी
ReplyDeleteनमन आप को और आप की लेखनी को।
चुप पड़ी एकांत में वो
ReplyDeleteथाल उसको मौन देखे
बहन के हृदय के पीड़ा को व्यक्त करती सृजन
जय हो गुरुदेव जी
मार्मिक नवगीत । शानदार सृजन ।
ReplyDeleteमन अंतस के भाव उतरे लेखनी से ।
बहुत। ई शानदार नवगीत मार्मिक सृजन भाव खूबसूरत चुप पड़ी एकांत में वो.......बहुत सुन्दर🙏🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी मार्मिक नवगीत
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर 👌🙏
ReplyDeleteदीप का अन्तस् सिसकता
व्याधि करती परिकलित तब
बातियाँ बहना बनी नित
और दीपक प्रज्वलित तब
हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय,मार्मिक सृजन , बहुत सुंदर
सादर नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteबहुत ही हृदय स्पर्शी नवगीत 👌👌👌
प्रत्येक बिम्ब नवीनता लिए हुए ...शानदार 👌
सचमुच बहुत ही भावपूर्ण गीत👍👍👌👌
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी रचना सचमुच डोर आहें भर रही है बहन के साथ साथ ।
ReplyDeleteअप्रतिम।