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Wednesday, September 1, 2021

नवगीत : रात्रि अब हँसने लगी है : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
रात्रि अब हँसने लगी है 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~ स्थाई और पूरक पंक्ति 14/12
              अन्तरा 14/14 

रात्रि अब हँसने लगी है
फिर विरह पर ले दिया
चातकी का नेह रोये
चाँदनी फूँके हिया।।

खेद करती व्यंजना के 
कुछ विकल से भाव रूठे
पृष्ठ पर ले झनझनाहट
गीत स्वर को बोल झूठे
गल अँगूठे राग सिसके 
घाव वीणा ने लिया।।

रागिनी की चोट चीखे
घात सरगम खा रही है
अश्रु वंचित मोरनी से
यूँ व्यथा चिल्ला बही है
कुछ सही है नभ गलत सा
शोर गर्जन से किया।।

और पाती सिसकियाँ ले
शब्द पीटे भाव पढ़कर
यूँ विरह की आग भड़के
स्वप्न की सी बात कहकर
पास रहकर दूर चंदा
बन गए परदेसिया।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

12 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना💐💐

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  2. बहुत ही शानदार नवगीत गुरुदेव सादर प्रणाम नये बिंम्ब से सुसज्जित क्या कहने पढ़कर मन खुश हो जाता है 🙏🙏🙏👌👌👌👌👌

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  3. वाह वाह बेहतरीन बधाइयाँ सर

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  4. शानदार सृजन आदरणीय

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  5. बहुत ही सुंदर सृजन। नमन गुरूदेव।

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  6. अद्भुत, आपकी लेखनी से निकला हर सृजन मन के तार झनझना जाता है। हृदयस्पर्शी नवगीत 🙏🙏🙏

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  7. अभिनव व्यंजनाएं, गहन हृदय स्पर्शी भाव, अतुलनीय लेखन
    सुंदर नवगीत।।

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  8. अति उत्तम सृजन धर्मिता मर्मस्पर्शी भाव आपकी लेखनी को नमन आदरणीय बहुत बहुत बधाई

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  9. अद्वितीय सृजन आ.गुरुदेव 🙏🏻
    शुभकामनाएं 🙏🏻🙏🏻

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  10. बेहद हृदयस्पर्शी सृजन।

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