नवगीत
अंबर को पाती भिजवाई
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~ 16/14
अंतरा ~ 16/14
मुखड़ा
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।
पीर विरह जलती लिखवाई,
तीव्र श्वांस कुछ करती ने।
आन्तरा-1
त्रस्त-पस्त है शुष्क बावड़ी,
ताप दाह से रोती है।
खंड-खंड में आग लगी है,
अपना आपा खोती है।
अकुलाई बातें पुछवाई,
मिलन आस पर मरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।
2
रग-रग में सौंदर्य समाया,
खंड पुष्प अंकित ऐसे।
देख अलंकृत-कृति मनभावन,
छंदबद्ध टंकित जैसे।
स्वर्ण-प्रभा पड़ती दिखलाई,
यौवन रस-सी झरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।
3
उत्सुकता अन्तस् में कितनी,
दृष्टि मात्र स्थिर है दर पर।
एक उपाय यही वह कहती,
मेघा आओ अपने घर।
सजल नयन बूँदें बरसाई,
दुग्ध-पात्र गौ भरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।
4
धर्म बैल है एक पैर पर,
धरा बिलखती क्रंदन से।
भूखी प्यासी लता खनिज है,
लिखे भाव अभिनंदन-से।
बनी उपासक ज्यूँ तरुणाई,
छवियाँ मुखर उभरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
@vigyatkikalam
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-01-2020) को "तान वीणा की माता सुना दीजिए" (चर्चा अंक - 3595) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आत्मीय आभार आदरणीय
Deleteत्रस्त-पस्त है शुष्क बावड़ी
ReplyDeleteताप दाह से रोती है
खंड-खंड में आग लगी है
अपना आपा खोती है
वाह वाह बहुत खूब प्रणाम आप की लेखनी को
आत्मीय आभार चमेली जी
Deleteवाह!
ReplyDelete