■■नवगीत■■
◆◆मौन कलम◆◆
●●संजय कौशिक 'विज्ञात'●●
मुखड़ा/पूरक पंक्ति~16/15
अंतरा~16/15
सम पंक्ति का अंत ... गाल
वर्ण वृत्त मे ऐसी सिमटी,
स्वार्थी-सी मानव की जात।
सरपट दौड़ रहा है जीवन,
सह-सह कर नित कड़वी बात।
स्वर-व्यंजन कुछ रूठे-रूठे,
कलम हुई कष्टों से मौन।
एक खुशी जब लिखी न पाई,
पूछ रही तब तुम हो कौन।
कलम पृष्ठ पर स्याही बिखरी,
अक्षर-अक्षर करता घात।
सरपट दौड़ रहा है जीवन,
सह-सह कर नित कड़वी बात।
जो विशेष परिवार बना था,
खुशियाँ महकी थी घर द्वार।
तूफानों ने उसको तोड़ा,
बिलख रहा अब मानी हार।
घोर उजाला सिमट चुका है,
बनकर अँधियारी सी रात।
सरपट दौड़ रहा है जीवन,
सह-सह कर नित कड़वी बात।
मर्यादा से बंधित मानव,
सच में क्यों रोता है आज।
और समझते कितने उसको,
कितनों ने समझे हैं काज।
भाव कलम से झड़े हुए हैं,
जैसे पतझड़ तरु के पात।
सरपट दौड़ रहा है जीवन,
सह-सह कर नित कड़वी बात।
वृक्ष कटा है बहुत पुराना,
मृदुल कली के स्वर अवरुद्ध।
अंतर मन में टीस उठी है,
और छिड़ा देखा है युद्ध।
लालन पालन करे प्रेम से,
दया सिंधु हैं माता-तात।
सरपट दौड़ रहा है जीवन,
सह-सह कर नित कड़वी बात।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
@vigyatkikalam
बहुत ही मार्मिक रचना 👌👌👌
ReplyDeleteसत्य है कि जीवन की दौड़ धूप में कलम चलाना कठिन है। यथार्थ कड़वा है पर यथार्थ है जिसे स्वीकार करना ही पड़ता है....शानदार भावपूर्ण नवगीत 👌 नमन आपकी लेखनी को जो जब भी चलती है प्रेरणा बन जाती है 🙏🙏🙏
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(28-01-2020 ) को " चालीस लाख कदम "(चर्चा अंक - 3594) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
...
कामिनी सिन्हा
जीवन दौड़ रहा ,सह कर कड़वी बात
ReplyDeleteउत्कृष्ट आ0
बेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteलाजवाब सृजन हमेशा की तरह...
ReplyDeleteवाह!!!