नवगीत
वेदना अपनो की
संजय कौशिक ' विज्ञात
मापनी ~~ 16/14
लता लता को खाना चाहे,
कहीं कली को निगले।
संस्कृति के उत्तम स्वर फूटे,
जो रागों से निकले।
1
तपती धरणी के कण व्याकुल,
सभी कणों को तपा रहे।
तने शाख से त्रस्त हुए हैं,
वृक्ष दर्द कुछ बोल कहे।
देख कहाँ फल संभावित हैं,
बीज घुणों का त्रास सहे।
ऐसे कीट लगे हैं कितने,
तले देख नूतन उपले।
संस्कृति के उत्तम स्वर फूटे,
जो रागों से निकले।
2
ग्रास बने हैं नेक यहाँ पर,
चन्द्र सूर्य भी कहाँ बचे।
नभ मण्डल में सब लालायित,
चमक दमक जो खास रचे।
किरण किरण पर भारी देखी,
तिमिर तिमिर के उदर पचे।
लोहे को लोहा काटे जब,
चीत्कारें कितनी उगले
संस्कृति के उत्तम स्वर फूटे,
जो रागों से निकले।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही सुंदर नवगीत 👌👌👌 सटीक बिम्बों का उत्तम कथन 👏👏👏 एक और शानदार सृजन 💐💐💐💐💐💐
ReplyDeleteतने शाख से त्रस्त हुए हैं,
ReplyDeleteवृक्ष दर्द कुछ बोल कहे।
वाह वाह बहुत सुन्दर सृजन
वाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब नवगीत।
बहुत सुन्दर नवगीत आदरणीय..वर्तमान परिस्थिति का सटीक चित्रण 👌👌👌👌👌
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