नवगीत: जीवन पखेरू ... संजय कौशिक 'विज्ञात'
मुखड़ा/पूरक पंक्ति~16/14
अंतरा(पदबंध)~16/16
आ बैठे उस पगडंडी पर,
जीवन जहाँ पखेरू था।
1
सुस्मृति अंतः पटल खड़ी थी,
आवरणों का शोर हुआ था।
मन व्याकुलता के घेरे में,
हृदय-त्रास का जोर हुआ था।
गिरा चुका था पंख सभी वो,
शोषित नृप सा मोर हुआ था।
मर्यादा के पथ से विचलित,
मन विषयों का चेरू था।
आ बैठे उस पगडंडी पर,
जीवन जहाँ पखेरू था।
2
सूर्य सप्त अश्वारोहित-से,
बढ़े प्रतिज्ञाबद्ध निरंतर।
ऊर्जा लेकर जब हम चलते,
शेष रहा मध्यांतर अंतर।
सहनशील तमहर सहिष्णु मन,
शांत स्वभाव क्रोध तदनंतर।
नयन क्रोध रक्तिम आभा से,
देह-गेह-रँग गेरू था।
आ बैठे उस पगडंडी पर,
जीवन जहाँ पखेरू था।
3
नीति ध्वस्त आडम्बर कलुषित,
कुंदन शोभा मंद पड़ी थी।
लाल मिला फिर रेत भाव में,
पंक्ति जौहरी द्वार खड़ी थी।
अंतस् विचलित होने आतुर,
उससे भी ये क्षुद्र घड़ी थी।
शुद्ध-अशुद्ध उचित या अनुचित,
मन अविवेक चरेरू था।
आ बैठे उस पगडंडी पर,
जीवन जहाँ पखेरू था।
4
आवश्यकता मात-पिता से,
एक समय पूरी होती थी।
बाल पराश्रित जीवन सबका,
संचय से दूरी होती थी।
पर गुल्लक कच्ची मिट्टी की,
फोड़ें मजबूरी होती थी।
पाप स्वप्न ये देख वृद्ध के,
चिंतन-मनन सुमेरू था।
आ बैठे उस पगडंडी पर,
जीवन जहाँ पखेरू था।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
@vigyatkikalam
बहुत खूबसूरत हृदयस्पर्शी नवगीत 👌👌👌 बार बार पढ़ने का मन करे ऐसे शानदार सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय 💐💐💐💐
ReplyDeleteशानदार शब्द चयन प्रभावी सृजन ।
ReplyDeleteबहुत ही हृदय स्पर्शी रचना
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर नवगीत 👌👌👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना /गीत, उम्दा शब्द संयोजन 'आ बैठे उस पगडंडी पर जीवन जहाँ पखेरू था' । रचना आशावादी है। कवि को पता है कि जो पैदा हुआ उसे इस स्थिति से गुजरना है। सत्य अटल है उसे शटल कॉक जैसे उछाल नहीं सकते। विश्वकर्मा के बहीखाते को झुटलाना मुमकिन नहीं। फिर क्यों विलाप करें। उस स्थिति को मन माफिक मानकर क्यों नहीं जिया जाए।
ReplyDeleteप्रकाश कांबले
०३-०१-२०२०
आ.सर जी बहुत सुन्दर नवगीत 🙏🏻🙏🏻
ReplyDeleteबहुत बहुत मन को छू लिया आपकी इस रचना ने बहुत सुंदर शब्दों का चयन भी उत्कृष्ट बहुत जोरदार
ReplyDeleteअति सुन्दर सर जी बधाई हो
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर नवगीत
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर अति उत्तम लाजवाब बहुत मार्मिक मन को छू गया
ReplyDeleteनीति ध्वस्त आडम्बर कलुषित
ReplyDeleteकुंदन शोभा मंद पड़ी थी
लाल मिला फिर रेत भाव में
पंक्ति जौहरी द्वार खड़ी थी
अंतस् विचलित होने आतुर
उससे भी ये क्षुद्र घड़ी थी
सचमुच गीत का ह्रदय है
प्रौढ़ सृजन के लिए साधुवाद