नवगीत: ●नापो प्रिये ! गगन की सीमा●
◆संजय कौशिक 'विज्ञात' ◆
मुखड़ा/पूरक पंक्ति~16/14
अंतरा~16/16
नापो प्रिये ! गगन की सीमा,
मैं आकाश सम्हालूँगा।
1
संबल बनकर साथ चलो तुम,
बाकी काम हमारा है।
बनकर रहो हृदय में धड़कन,
जैसी हमें गवारा है।
खोलो प्रिये ! पटल तारों का,
मैं वो चाँद उठा लूँगा।
नापो प्रिये ! गगन की सीमा,
मैं आकाश सम्हालूँगा।
2
होगा मार्ग प्रशस्त भरोसा,
मन में सुदृढ़ बनाना है।
मंजिल तुम बनकर रहना बस,
रिश्ता हमें निभाना है।
बोलो प्रिये ! हृदय की बातें,
मैं अहसास चुरा लूँगा।
नापो प्रिये ! गगन की सीमा,
मैं आकाश सम्हालूँगा।
3
चिंतित सी मुद्रा को त्यागो,
आगे बढ़ते जाना है।
नेक विचार नियति हो निश्छल,
हिम्मत करके आना है।
जागो प्रिये ! हवा को रोको,
मैं तूफान उड़ा लूँगा।
नापो प्रिये ! गगन की सीमा,
मैं आकाश सम्हालूँगा।
4
प्रीत पर्व का साक्षी बनकर,
हर्षोल्लास मनाना है।
संस्कार तथा उत्तम संस्कृति,
नैतिक मूल्य बचाना है।
बनकर प्रिये ! रहो गलमाला,
मैं संसार बसा लूँगा।
नापो प्रिये ! गगन की सीमा,
मैं आकाश सम्हालूँगा।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
@vigyatkikalam
वाह बहुत सुन्दर । क्या अभिव्यक्ति है । नमन आपको ।
ReplyDeleteवाह वाह बहुत सुंदर मैं अहसास चुरा लुंगा
ReplyDeleteक्या कहने
आपकी लेखनी कमाल कर रही है।
ReplyDeleteहार्दिक शुभ कामनाएं
बहुत ही भावपूर्ण रचना ...प्रेम,विश्वास और समर्पण सब कुछ है...अप्रतिम भाव और सटीक शब्द चयन ....बहुत सारी शुभकामनाएं 💐💐💐💐
ReplyDeleteवाह बहुत खूब 👏👏👏👏👍👍👍👍
ReplyDeleteअल्फजौ मेंं भाव भरा हैं
सुन्दर शब्दो का गुन्थन
प्रीत पर्व का साक्षी बन कर
अजर अमर सा हों लेखन ॥
डॉ़ इन्दिरा गुप्ता यथार्थ