नवगीत
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~ 14/14
अन्तरा ~~14/14
कल्पना के गाँव में भी,
कब बना है घर हमारा॥
और जीवन नाव भटकी,
ढूंढती अब तक किनारा॥
1
चांदनी की बात सुनकर,
चाँद भी कुछ मौन ठहरा।
जानता है वो तमस को,
कष्ट कारक खूब गहरा।
वो खड़े तारे यहाँ पर,
दे रहे है सख्त पहरा।
क्यों भटकती फिर रही है,
चाँदनी को ओट लहरा।
क्यों मुड़ नभ ताकती है,
कौन देता है सहारा।
कल्पना के गाँव में भी,
कब बना है घर हमारा॥
2
उर्मि सागर की मचल कर,
धड़कनों सी जो धड़कती।
सीपियाँ मोती उगलती,
पूछती सी कुछ फड़कती।
शंख जितने गूंजते हैं,
और ज्यादा ही भड़कती।
सह रहे हैं व्याधियाँ सब,
टूटती कितनी कड़कती
यूँ समय की उर्मियाँ कुछ,
कर लहर को फिर इशारा।
कल्पना के गाँव में भी,
कब बना है घर हमारा।
3
भाव नदिया से बहें जब,
वो मचल के उल्लास भरते।
बोलती वो व्यंग धारें,
उर जगा आक्रोश करते।
वो नदी तट रेत पसरा,
हर्ष देता पाँव धरते।
सूर्य नभ से फिर चमक कर,
कष्ट तम के नित्य हरते।
तप रहे हैं आज कण-कण,
उन कणों ने भी पुकारा।
कल्पना के गाँव में भी,
कब बना है घर हमारा।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही शानदार नवगीत 👌👌👌
ReplyDeleteआपकी अनोखी लेखन शैली बहुत ही आकर्षक और प्रेरणादायक है ....नमन आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏 लाजवाब भाव 👏👏👏
बहुत सुंदर
ReplyDeleteकल्पना के गांव में भी बहुत सुन्दर आपकी लेखनी को शत् शत् नमन बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर गीत । भाव नदिया से बसें जब... बहुत खूब। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteBhaut sunder
ReplyDeleteवाह वाह उम्दा सृजन, आपको व आपकी कलम को सादर नमन।
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteक्यों भटकती फिर रही है, चाँदनी क्या सोच सहरा....
ReplyDeleteप्रकृति का सुंदर मानवीयकरण👌👌👌👌👌अद्भुत भावों से सजा खूबसूरत नवगीत👏👏👏👏👏💐💐💐💐
बहुत सुंदर रचना ।आखरी की चार पंक्तियाँ अद्वैत। वाह
ReplyDeleteशानदार गीत
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही शानदार नवगीत सूर्य नभ का यूँ चमकता
ReplyDeleteरेत में कुछ रोष भरते गजब का भाव
वाह अद्भुत लेखन, बहुत सुंदर नवगीत 👌👌
ReplyDeleteगाँव के प्रति सुन्दर कल्पना सराहनीय है।बधाई हो।
ReplyDeleteअति सुन्दर सर जी
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर सृजन
ReplyDeleteवाह बहुत खुबसूरत
ReplyDeleteसुंदर गीत
ReplyDelete३ की दूसरी पंक्ति से 'के'को हटाने से मात्रा दोष नहीं रहेगा।
ReplyDeleteविचार कर के देखें।