नवगीत
मौन
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मुखड़ा/ पूरक पंक्ति ~~ 14/14
अंतरा ~~ 14/14
मौन गह्वर लाँघ कर के,
बोलती हैं नित शिलाएँ।
कान करके साफ सुनलो,
भोगती जो यातनाएँ।
1
ये भँवर बेचैन कितना,
घूम के हारा हुआ है।
मन यहाँ फँसता गया फिर,
हर समय मारा हुआ है।
सोच पाषाणी बनी जब,
डोलती कैसे बताएँ।
मौन गह्वर लाँघ कर के,
बोलती हैं नित शिलाएँ।
2
वो निरन्तर बह रहा है,
आज तक झरना जहाँ पर।
चोट कितनी खा चुका वो,
तुंग रोता है वहाँ पर।
स्वेद फिर से बाजुओं का,
घोलता कैसे दिखाएँ।
मौन गह्वर लाँघ कर के,
बोलती हैं नित शिलाएँ।
3
सर्कसी मानव बना अब,
बाध्य हैं यूँ सब पखेरू।
नाग नागिन नाचते हैं,
रो रहे गइयाँ बछेरू।
वो दहाड़ें शेर जैसी,
तोलती करती छलाएँ।
मौन गह्वर लाँघ कर के,
बोलती हैं नित शिलाएँ।
4
शेष क्या है पूछता ये,
चाँद छूकर आज मानव।
भूमि आतंकित हुई है,
ये भयंकर कौन दानव।
चोटियाँ दिग्भ्रमित मन की,
खोलती अपनी शिखाएँ।
मौन गह्वर लाँघ कर के,
बोलती हैं नित शिलाएँ।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
@vigyatkikalam
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