नवगीत
पाषाणी मन
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 16/14
सारंगी सी गूंज स्वरों में
मौन कहे पाषाणी मन।
अन्तस् में लावा सा धधका
और बहाये पाणी मन।
1
शान्त स्वरों ने पीर सुनाई
मचल रागिनी कुछ बोली।
लहराई टूटी सी सरगम
गूंज गई रिसती खोली।
भेज रही घाटी आवाजें
कह चीत्कार प्रमाणी मन।।
2
रुला रहे हैं राग हृदय को
अधरों पर छाया स्पंदन।
धार अश्रु की बहती सूखी
और लहर करती क्रंदन।
कंठ पिपासित द्रवित रुद्ध सा
बोल कहे निर्वाणी मन।।
3
एक हँसी का टपका आँसू
देता हिय को घात बड़ी।
समय चक्र के गीत चीखते
कलियाँ व्याकुल देख खड़ी।
मुखड़ा पूरक पर आते ही
सहता कष्ट कृपाणी मन।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत सुन्दर नवगीत
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन आदरणीय 👌
ReplyDeleteरुला रहे हैं राग हृदय को
ReplyDeleteअधरों पर छाया स्पंदन।
धार अश्रु की बहती सूखी
और लहर करती क्रंदन।
कंठ पिपासित द्रवित रुद्ध सा
बोल कहे निर्वाणी मन।।
बहुत सुन्दर सृजन
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब...,🙏🙏🙏
बहुत ही लाजवाब
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