नवगीत
हँसती व्याधियाँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 14/14
व्याधियाँ हँसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।
वो गगन से ताकता है
चंद्रमा भी और आगे
1
नभ सितारे जल रहे हैं
चन्द्र अंगारा बना क्यों।
टूटता सा गिर रहा है
ये शिखर इतना घना क्यों
मार्ग सीधा मोड़ लेकर
संकरी वो आज लागे
2
रो रही सी चांदनी है
कौन क्रंदन सुन सकेगा।
ये बयारें तिलमिलाई
कौन इनको टोक लेगा।
सागरों की उर्मियों को
बाँधते हैं देख धागे
3
स्वेद से किरणें पृथक हो
आज आभा खो चुकी हैं
धड़कनें बाधित हुई सी
भागती सी कुछ रुकी हैं
ये हृदय की बांसुरी के
कोकिला स्वर आज त्यागे
संजय कौशिक 'विज्ञात'
नये बिम्बों के साथ सुन्दर गीत।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भावपूर्ण नवगीत 👌🏻👌🏻👌🏻
ReplyDeleteहमेशा की तरह अनोखे खूबसूरत बिम्ब 🙏🙏🙏