नवगीत
मचलती उर्मियाँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 14/14
उर्मियाँ घूँघट हटाकर
फिर मचलती आ रही हैं।
और चिंतन में मनन से
आँख ज्यादा ही बही हैं।।
1
तिलमिलाहट थी अनेकों
वायु में आक्रोश छाया।
वो किनारा छोड़ भागी
प्रीत का अवशेष पाया।
बोलती किससे बता वो
बात बिन बोले कही हैं।।
2
हो समाहित जल समाधी
छोड़ती अस्तित्व अपना।
सीप मोती मणिकों के
थाल छोड़े और सपना।
वो वहीं पर डूबती सी
देख अब जीवित नही हैं।।
3
लाश अपनी सी उठाकर
मध्य सागर वो चली है।
पीर सागर जनता है
जो गई अब फिर छली है।
मेघ आकर जब मिला तो
फिर लगा जीवित सही हैं।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
लाश अपनी सी उठाकर
ReplyDeleteमध्य सागर वो चली है।
पीर सागर जनता है
जो गई अब फिर छली है।
मेघ आकर जब मिला तो
फिर लगा जीवित सही हैं।।
बहुत सुन्दर और सत्य कथन गुरु देव जी
नमन आप को और आप की लेखनी को
सुन्दर नवगीत
ReplyDeleteसादर नमन 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत नवगीत 👌🏻👌🏻👌🏻बिम्ब बहुत ही सुंदर है 💐💐💐💐
बहुत ही सुंदर सृजन सर
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ReplyDeleteअनूठा पन लिए हुए
ReplyDeleteअनूठा लिए हुए एक नवगीत
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत सृजन
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब सृजन।
बहुत ही सुंदर रूप काव्य के
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ReplyDeleteबहुत ही सुंदर नवगीत 👌🏻👌🏻👌🏻
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