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Thursday, April 16, 2020

नवगीत : सृष्टि का विस्तार : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सृष्टि का विस्तार 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14 

सृष्टि का विस्तार होगा
रिक्तपन अब फिर जरूरी।
काल नदिया चीखती सी
बात कहती सब अधूरी।।
1
और भावी फिर करेगी
मौन से संवाद कितने
नाद देखी चुप खड़ी सी
गूँजते है शब्द इतने
शंख ध्वनि अब चीर देगी
दूर तक की शांति पूरी।
उर्मि भी अब कुछ ठहर कर
सिंधु को आभास देती
नीर ये सोखा गया सा
सोच जब हलचल न लेती
ये प्रवाहित सी हवा भी
छोड़ती सी आज धूरी
3
तत्व सारे शोधने हैं
आज जीवन सोच ले जो
और खालीपन सजाकर
कष्ट तन से नोच ले जो
आत्म मंथन आज नियमित
बुद्धि सोचे ये विदूरी
4
शुद्ध हो वातावरण ये
हवि हवन में दें अगर सब
फिर धुँआ पावन उड़ेगा
गाँव बस्ती से नगर सब
आरती की घण्टियाँ भी 
श्वास गुंजित बन कपूरी

संजय कौशिक 'विज्ञात'

7 comments:

  1. तत्व सारे शोधने हैं
    आज जीवन सोच ले जो
    और खालीपन सजाकर
    कष्ट तन से नोच ले जो
    आत्म मंथन आज नियमित
    बुद्धि सोचे ये विदूरी

    वाह बहुत खूब बेहतरीन सृजन गुरु देव जी

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  2. बहुत सुंदर आदरणीय आपकी यह नवगीत

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  3. वाह अप्रतिम रचना

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  4. उत्कृष्ट रचना

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  5. लाजवाब नवगीत...
    वाह!!!

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