नवगीत
आक्रोशित हिय
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 16/14
देकर पाषाणों सी ठोकर
प्रेम कहाँ पर ले आया।
ढलती साँझे साँसे फूली
आक्रोशित हिय घबराया।।
1
स्पर्श एक से चरखा चलता
बात हवा सी बतियाता।
ताकू जैसे मुख से उगले
स्नेह प्रभावी दिखलाता।
धुरी प्रेम सी टूट गई जब
सृष्टि चक्र सा थम जाता।
तड़प उठा जब बहक हवा ने
अंग छुवन सा सहलाया।।
2
खण्डित दर्पण करता क्रंदन
रूप शतक लेकर अंदर।
लहरें करती ताण्डव नर्तन
शांत हृदय की ये कंदर।
और पीर का बुझता दीपक
हाँफ रहा जैसे बन्दर।
कष्ट अडिग चट्टानों जैसे
इन्हें व्यर्थ ही समझाया।।
3
कच्चा घर दीवारें कच्ची
पूछ उठी हैं बात वही।
बोल रहे हैं कच्चे रिश्ते
टूट गये क्या खाक सही।
आहत कब करती दीवारें
पक्की सी यूँ बात कही।
सुनकर उनकी बात अचानक
हृदय द्रवित सा चिल्लाया।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
उत्कृष्ट सृजन आदरणीय🌷🙏🌷
ReplyDeleteदेकर पाषाणों सी ठोकर
ReplyDeleteप्रेम कहाँ पर ले आया।
वाह बहुत खूब
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट, लाजवाब...
Uttam rachana
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी सार्थक सृजन ।
ReplyDeleteलाजवाब सृजन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावप्रवण गीत।
ReplyDeleteसादर नमन आदरणीय 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण नवगीत 👌👌👌 शानदार अनोखे बिम्ब आपके सृजन की खासियत है। हर नवगीत बहुत ही प्रेरणादायक....बहुत बहुत बधाई शानदार सृजन की 💐💐💐💐
शानदार समसामायिक रचना।
ReplyDeleteउत्कृष्ट
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब सृजन।