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Thursday, November 12, 2020

नवगीत : देश की बिगड़ी दशा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
देश की बिगड़ी दशा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी  14/14 

व्यंजना भी रो रही है 
देश की बिगड़ी दशा पर
लेखनी फिर लिख रही है
मसि सुबकती सी कुशा पर।।

ये चलन कैसा हवा का 
गर्म झोंके फेंकती है
लू जलाती दिख रही है 
शाख पत्ते झोंकती है 
चांद की ये चाँदनी भी
शुष्क सी है आज ठहरी
हिय व्यथित से पीर सिसके 
टीस अन्तस् देख गहरी 
इक सुनामी दौड़ती है 
फोड़ती सी फिर दृशा पर।।

ये लहर कैसी उठी है
नित सुता चीत्कार गूँजी
ब्याज के लोभी सभी हैं
खो रहे अनमोल पूँजी
बेटियों को नोंचते हैं 
फेंकते है नालियों में 
निम्न पूजित सी दिखें अब
बेटियाँ नित गालियों में 
यूँ हृदय की वेदना भी 
बस सिसकती दुर्दशा पर।।

३ 
पल रहे कुत्ते घरों में 
धेनु आवारा पड़ी ये
और मैली देख गङ्गा
सोच चिंतन की घड़ी ये 
पर प्रशासन मौन धारे
मुख रहा कुछ फेर ऐसे 
जब करे मतदान जनता
फिर मरे क्यों कीट जैसे 
देख कर ये दृश्य जर्जर 
ज्योत भी रोती निशा पर।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

8 comments:

  1. व्यंजना भी रो रही है 👌👌👌
    यथार्थ दिखाता हॄदयस्पर्शी नवगीत 👌👌👌
    नमन आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏

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  2. आपका यह नवगीत,विसंगतियों का मानचित्र है।संप्रेषित होना बनाया गया है।सर्वग्राह्य है-अनूठी शैली के प्रयोग के कारण। आपके कथ्य भर्ती नहीं, पूरी कसावट के साथ प्रस्तुत किए गए हैं।नवगीत में नवगीत खोजना पड़ता है।लेकिन इस सृजन में नवगीत अपने असली रूप में उजागर हुआ है।बधाई।

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  3. बहुत ही सुदंर आदरणीय मार्मिक व्यजंना भी रो पड़ी 🙏🙏🙏

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  4. बहुत सुन्दर और मार्मिक।
    रूप-चतुर्दशी और धन्वन्तरि जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  5. सुन्दर और सार्थकता लिए हुए सृजन ।प्रणाम स्वीकार करें

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  6. बहुत सुंदर यथार्थ सृजन 🙏🙏

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  7. नव्य बिंबों के साथ एक सुन्दर नवगीत आदरणीय!👌👌👌👌👏👏👏👏👏💐💐💐💐💐

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