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Tuesday, March 16, 2021

नवगीत : पत्थरों के पुष्प : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
पत्थरों के पुष्प 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/14

पुष्प बनकर पत्थरों ने
घाव पैरों को दिये हैं
रक्त सूखा पीर उगले
दाँव ही उल्टे जिये हैं।।

हर घड़ी ले सिसकियाँ अब
मोम जैसी हैं पिघलती
पाश नागिन से जकड़ कर
हर खुशी को हैं निगलती
विष नहीं तन पर चढ़ा है
पर सदा मूर्छित किये हैं।।

आंसुओं ने कष्ट रोये
पथ गले अवरुद्ध करके
वेग वो ठहरा नहीं यूँ 
बुध्दि तन को शुद्ध करके
पूर्ण थे संकल्प उसके
और ताजा भी लिये हैं।।

पुतलियों की तीव्र इच्छा
नेत्र अपने दोष पूछें
कोर किसने की प्रभावित 
और किसका रोष पूछें
आज मन को मारते से
पेय आँखों ने पिये हैं।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

11 comments:

  1. बहुत ही सुंदर नवगीत गुरुदेव 💐💐💐
    बिम्बों की नव्यता ने व्यंजनाओं को और भी निखार दिया है। बहुत दिनों बाद आपकी रचना ब्लॉग पर पढ़ने का मौका मिला ...इसी प्रकार अपनी रचनाओं से हमारा मार्गदर्शन करते रहें 🙏

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  2. बहुत ही बेहतरीन नवगीत आदरणीय। 👌 👌👌👌

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  3. बहुत बहुत सुंदर सृजन ,नव व्यंजनाएं नवगीत को सार्थकता दे रही हैं।
    अभिनव अभिराम।

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  4. एक एक शब्द ऐसे जैसे कष्टों ने जिया हो गीत को । बेहतरीन बिंब से सुसज्जित । प्रणाम गुरूदेव ।

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  5. बहुत ही सुन्दर नवगीत इतने प्रभावित बिंम्ब बेहतरीन गीत क्या कहने नमन आपकी लेखनी को सादर नमन🙏🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌

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  6. सुंदर मन को द्रवित करने वाला गीत.

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  7. नव्य बिंबों से सुसज्जित, सुंदर नवगीत👏👏👏👌👌👌🌹🌹🌹

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  8. बहुत सराहनीय गुरु जी

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  9. बहुत सुन्दर सृजन नमन है आपकी लेखनी को।

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