नवगीत
सूखा आँसू
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 16/12
धुआँ व्यथित सा ढूँढे अम्बर
रोता चिता जलाकर
सूखा आँसू दृग पर हँसता
झरना एक बहाकर।।
और लड़े दुर्भिक्ष वहाँ पर
दावानल फैलाता
खड़े असक्षम हाथ बाँध कर
उनको कौन खिलाता
चक्की क्रंदन पाट घिसाता
एक नहीं दाना पाकर।।
ठिठुरन मांगे एक रिजाई
खोल देख चिल्लाता
यत्न सभी फिर कम्पित गरजे
जबड़ा साथ निभाता
रुई कातनी चरखा भूला
क्षण वो श्रेष्ठ गँवाकर।।
निर्मित करती ये हार प्रकृति
फूल सुगंधित तरसे
डरती खुशबू के पर काटे
कलियों पर भी बरसे
पुष्प गए तब फफके उपवन
कण्टक लेख लिखाकर।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
सादर नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteनिष्प्राण बिम्बों में आपकी कलम प्राण फूँक देती है।
व्यंजना का खूबसूरत उदाहरण।
बेहतरीन रचना आदरणीय गुरु जी सादर प्रणाम ।
ReplyDeleteवाह!विरोधाभास अलंकार की सुंदर मिसाल, अप्रतिम उपमाएं मानवीकरण की छटा के साथ सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteलाजबाब ,
ReplyDeleteबिम्ब झलकते भर विरोधाभास
काव्य सृजन उड़ान भर रहा मिली नई सौगत ॥
सादर नमन
ड़ा यथार्थ