भजन
साँवरे की चिट्ठियों में
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 14/14
साँवरे की चिट्ठियों में
इक पता मेरा लिखादे
आज लीले बात सुनले
शाम से मुझको मिला दे।।
बोलना सेवक प्रतीक्षित
भावना के ज्वार उठते
सागरों की ये लहर से
देख सौ सौ बार उठते
आज पतझड़ एक जीवन
इक कमल इसमें खिला दे।।
अब विकट छाई समस्या
खोजना क्या हल यहाँ पर
भक्त है बेहाल व्याकुल
पूछता वे है कहाँ पर
लग नहीं पाता कहीं मन
ये पिपासा तू मिटा दे।।
वेदना की शूल से यूँ
छुट चलें कब प्राण जानें
चोट कितनी सह चुका है
मूर्ति का पाषाण जानें
शक्ति स्वाहा आत्म बल की
अब मिटा या तू बढ़ा दे।।
आज संजय है भँवर में
कष्ट का भूचाल आया
बंध तन के काटने हैं
काल का सिर देख साया
चार कांधों से गिराकर
मोक्ष की पदवी चढ़ा दे।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
अद्भुत प्रस्तुति 👌👌👏👏👏👏
ReplyDeleteबहुत ही शानदार आपकी यह रचना भजन के रूप मे साँवरे से चिट्टियो.....क्या बात है बहुत सुदंर🙏🙏🙏🙏👌👌👌
ReplyDeleteभक्ति रस में डूबा बहुत ही सुंदर भाव पूर्ण गीत। इसे पढ़कर यह आभास होता है जैसे पाठक स्वयं ईश्वर से अपने मन की बात कह रहा है। नमन आपकी लेखनी को 🙏
ReplyDeleteवाह!अद्भुत 👌मानो भक्ति रस का सागर उमड पडा हो 👌👌
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भजन ।
ReplyDeleteहृदय से निकला प्रतीत होता है एक एक शब्द👌👌👌आकंठ भक्ति से सराबोर बेहतरीन नवगीत👌👌👌👌💐💐💐👏👏👏👏👏
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