नवगीत
उज्ज्वल नेत्र
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 14/14
साँवरे से नेत्र उज्ज्वल
गा रहे हैं गीत अनुपम
उन पलक की धुन निराली
नित बजे संगीत अनुपम।।
योग निद्राशील वीणा
लालिमा दे श्वेत अम्बर
कुछ धूमिल से राग छेड़े
यूँ उड़ाकर रेत अम्बर
थम पलक आलाप गुंजित
सरगमों की रीत अनुपम।।
ज्योति की लौ व्याप्त जग में
सप्त सुरमय ज्ञान बनकर
पुतलियों की छलनियों से
प्राप्त है ये गान छनकर
इंद्र धनुषी सी छटामय
चित्र बतियाँ चीत अनुपम।।
ये नयन जल बूंद से ही
सागरों को भी लजाते
पाश आकर्षण मयी ले
कोर को अंजन सजाते
कथ्य सम्मोहित मधुर से
सुन कहें सब जीत अनुपम।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
नैनों को बहुत ही सुंदर बिम्बों के माध्यम से दर्शया गया है। आपका दृष्टिकोण पाठक को अचंभित कर देता है। गागर में सागर सुना था परंतु रचना में प्रयोग हुआ अतिश्योक्ति अलंकार नव्यता लिए हुए हैं।
ReplyDeleteवाह , अनुपम गीत
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब.....
उत्कृष्ट सृजन।