नवगीत
द्रोपदी सी व्यंजनाएँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 14/14
द्रोपदी सी व्यंजनाएँ
वर्जनाएं तोड़ सहमी
साक्ष्य मिथकों से खड़े जो
वो समर्पण जोड़ सहमी।।
केश कोमल पर्श उलझे
स्वप्न नींदों से जगाते
और वो अपनत्व लूटे
नित्य कुणबा जो लुभाते
वेदनाएं मर मिटी फिर
जो भरोसे छोड़ सहमी।।
प्राप्य दुष्कर साथ छूटे
जंगलों की खाक पाई
भूख की व्याकुल तड़पना
तब उदर ने भूख खाई
व्यंजनों को रोष ये था
दिव्य भोजन मोड़ सहमी।
पंच रत्नों को लुटाया
कोख रोती तिलमिलाई
जब गया अभिमन्यु प्यारा
आँख मरुथल ढूँढ लाई
भीम की सौगंध भी तो
खप्परों को फोड़ सहमी।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
द्रोपदी सी व्यंजनाएं ...लाजवाब बिम्ब 👌
ReplyDeleteअनोखी शैली और सौंदर्य लिए अनुपम रचना ...बहुत ही आकर्षक 🙏🙏🙏
उत्तम अति उत्तम ....
ReplyDeleteशब्द चरित्र से झांक रहे है
भर के नव नव संगीत
धन्य लेखनी विज्ञात ज़ी
खूब लिखा नव गीत ॥
ड़ा यथार्थ
सुंन्दर अभिब्यक्ति
ReplyDeleteसुंन्दर अभिब्यक्ति
ReplyDeleteअद्भुत सृजन 👌👌👌👌
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