नवगीत
महुआ तड़पता
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 14/12
अधखिली कलियाँ बिलखती
छोड़ उपवन बाग को।
देख कर महुआ तड़पता
मूक गुंजित राग को।।
वो कली ये सोचती है
जो भ्रमर आया यहाँ
देख अनुपस्थित मुझे फिर
दौड़ जाएगा कहाँ
ये व्यथा हिय को रुलाती
पोंछती मुख झाग को।।
तोड़ बंधन प्रीत पागल
यूँ मचलती रात दिन
फिर मिलन की आस झूठी
नित्य मरती बात बिन
भस्म करने देह अपनी
ढूँढती जो आग को।।
हिय पलायन मानता कब
पीर कलियों को अधिक
सब विफल क्षमता जली सी
श्वास पर अटकी तनिक
भूल डाली रीत जाने
बोलती उस काग को।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत सुन्दर बिंबो से सजा हुआ । शानदार
ReplyDeleteसुदंर गुरुदेव आपकी रचना नवगीत बिंबों से सुसज्जित🙏🙏🙏👌👌👌
ReplyDeleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteरंग भरी होली की शुभकामनाएँ।
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति 👌👌👏👏
ReplyDeleteमहुआ और कली के माध्यम से उभरती खूबसूरत व्यंजना जो सार्थक भी है और शाश्वत भी। बिम्बों का सटीक चित्रण कथन को और बल देता है जो उत्कृष्ठ सृजन का परिचय देती है। आपकी रचना को पढ़ना एक अध्याय पढ़ने जैसा है। सादर नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDelete👌👌👌
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