उल्लाला छंद / चंद्रमणि छंद - उल्लाला छंद के प्रायः दो भेद होते हैं 2 पंक्ति 4 चरणों में दोहे की तरह दूह कर लिखा जाने वाला यह छंद अपने आकर्षण के चलते सर्वत्र विख्यात है इस छंद का प्रथम भेद
दोहे के विषम चरण की 13 मात्राओं के मात्रा भार और शिल्प का अनुकरण करते हुए इसी एक चरण के शिल्प को लगातार 4 चरणों में लिखने से उल्लाला छंद का प्रथम भेद निर्मित होता है जो कवियों द्वारा लेखन में अत्याधिक प्रचलित रहा है।
इसी प्रकार इसका द्वितीय भेद प्रचलन में कम रहा है तदापि इसकी उत्तम लय आकर्षण का केंद्र रही है इसका शिल्प भी दोहे के विषम चरण की 13 मात्राओं के शिल्प में 2 मात्राएं और जोड़ देने के पश्चात विषम चरण 15 मात्राओं का तथा सम चरण दोहे के विषम चरण 13 मात्राओं में दोहे के विषम चरण के शिल्प का अनुकरण करना होता है। इस प्रकार से उल्लाला के द्वितीय भेद के शिल्प में 4 चरणों का मात्रा भार 15-13 और 15-13 रहता है।
उल्लाला छंद का द्वितीय भेद जिसका मात्रा भार 15,13 और 15,13 रहता इस छंद के शिल्प में विशेष ध्यान में रखने वाली बात ये है कि इसके प्रारम्भ में चौकल अनिवार्य है परन्तु जगण वर्जित है। इस छंद की लय गाल-लगा के प्रयोग सी गुथी हुई होती है। अपनी उत्तम लय के कारण इसकी गेयता का आनंद चरम पर होता है। श्रोता भी इसकी उत्तम लय के विशेष आकर्षण के चलते आनंद प्राप्त कर झूम उठते हैं। तुकबंदी सम चरण द्वितीय और चतुर्थ चरण की मिलाई जाती है। आइये उदाहरण के माध्यम से समझते हैं ।
कलन के माध्यम से समझते है विशेष सुधार शतकवीर कार्यक्रम में 4 अप्रैल को .....
चौकल से प्रारम्भ
जैसे आपने अंतिम रचना
उड़ना (4 मात्रा के शब्द समूह का चयन किया है)
इसी चरण की अंतिम 5 मात्रा 212 👈 ऐसे लिखनी हैं
15 मात्रा में से 4 और अंत की 5 मात्रा निर्धारित है कुल मात्रा 9 हो गई
अब इन 9 मात्रा के मध्य बची 6 मात्रा इनमें यदि 3+3 के जोड़े गाल+लगा अर्थात 21+12 अर्थात गुरुलघु और गुरु लघु लिखेंगे तो भाव अवश्य बिखर जाएंगे । कई बार शिल्प में वो सब कथन छूट जाता जो हम अतुकांत में कह देते हैं
ऐसे में बची हुई इन मात्राओं को भी चौकल और द्विकल के अर्थात 4+2 या 2+4 के माध्यम से सरलता से कह सकते हैं।
ये एक चरण हुआ।
सभी चरणों की अंत की 5 मात्रा पहले ही निर्धारित है 212 अर्थात गुरु लघु गुरु ( इसमें गुरु को 2 लघु के माध्यम से लिख सकते हैं जबकि लघु को लघु लिखना अनिवार्य है।
उल्लाला छन्द का एक और नाम 'चंद्रमणि' भी कहा जाता है। प्रस्तुत पदों को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि प्रत्येक विषम चरण के प्रारम्भ में एक 'गुरु' या दो 'लघु' को ध्यान से उच्चारण करेंगे तो, इसके बाद का शाब्दिक विन्यास दोहे की तेरह मात्राओं की तरह ही रहता है। उसी अनुरूप पाठ का प्रवाह भी रहता है। इस कारण विषम चरण में पहले दो मात्राओं के बाद स्वयं एक यति सी बन जाती है जिसके बाद आगे का चरण दोहा के विषम चरण की तरह ही लय में बंधता चला जाता है।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
उदाहरण:
1
गणपति गिरजा के नंद पर, मोहित सारी रिद्धियाँ।
शंकर के आशीर्वाद से, नत रहती नित सिद्धियां।।
2
वंदन माँ वीणापाणि का, जिन कंठो से गान हो।
विद्या के भण्डारे भरे, उत्तम सी पहचान हो।।
3
उपवन की है उत्तम महक, अब उत्तम खुशबू सुनो।
ये खुशबू दे साहित्य नित, सब इसके गुण को गुनो।।
4
पहली गुरुवर की वंदना, दूजी गणपति ईश की।
पांचों की सब पूजा करें, ब्रह्मा हरि जगदीश की।।
5
परिचय की जब चर्चा उठे, क्या बोले विज्ञात कुछ।
खालीपन के इस शून्य की, कौन सुनेगा बात कुछ।।
6
मानव जितना इतिहास है, उतना ही विज्ञान है।
कष्टों की है अपनी परख, देती वह पहचान है।।
7
बंधन हिय के जो मानते, वे मानव सबके बने।
सुख-दुख में मिलते हैं सदा, हर्षित रहते सब जने।।
8
होली पर जलती होलिका, फूँके सारा देश ये।
अपनेपन के षड्यंत्र से, दम्भित थे परिवेश ये।।
9
पावन निर्मल गङ्गा बहे, ब्रह्मा का अभिशाप ले।
व्याकुल अन्तस् की वेदना, पूर्ण धरा का पाप ले।।
10
करुणा के आभूषण सदा, रखती हैं भण्डार में।
भारत की उत्तम नारियाँ, शिक्षित हैं संस्कार में।।
11
अनुपम कविता की कल्पना, अनुपम धारा धारती।
फिर भारत की जय बोलती, करती वंदन आरती।।
12
बाबुल की प्यारी बेटियाँ, पावन इनके कार्य हैं।
हर आँगन में इनकी चहक, खुशियाँ सी अनिवार्य हैं।।
13
बाती करती निश्चित सदा, इन रातों की आयु को।
दीपक से जलती झाँकती, चलती शीतल वायु को।।
14
कलकल से बहते राग में, नदिया का संदेश ये।
मत ठहरो अब चलते चलो, लहरों के परिवेश ये।।
15
उड़ना सोचे मछली मगर, सर्पों के भी पंख हों।
सागर अम्बर की सैर पर, मंखों से कुछ शंख हों।।
मंख का अर्थ - राजाओं आदि के यश और कीर्ति का वर्णन करनेवाला व्यक्ति या (भाट)
16
भारत का ये गौरव अडिग, जग का झुकता भाल है।
हिन्दी की तूती बोलती, संस्कृत जिसकी ढाल है।।
17
राहें वैज्ञानिक खोजते, सारी जनता जानती।
इसरो के नित डंके बजे, सत्ता अपने मानती।।
18
त्रुटि बनकर कण्टक सी चुभे, आहत रहते पग सदा।
चालें बदली दुख दे बहुत, बोझा भी जब तन लदा।।
19
चलना वे सिक्के जानते, खोटा कहते सब जिन्हें।
कड़की में रत्नों से बड़े, कहते ज्ञानी जन इन्हें।।
20
बोली अपनी ही बोलिये, जो तुमको पहचान दे।
चालों में बगुले हंस की, भूले निज नित ज्ञान दे।।
21
आशा अभिलाषा कब मिटे, मिट जाता ये गात है।
संकट तनकर सिर पर खड़ा, करता दिन को रात है।।
22
कहते पूजन की विधि सरल, श्रद्धा उत्तम भाव हों।
भावों की नित हो साधना, भूलें सब हिय घाव हो।।
23
बीमारी तन की देखते, मन की देखे कौन है।
वैद्यों का लालच मारता, ये बीमारी मौन है।।
24
मिलकर रहते वो एकता, सब जन ही ये जानते।
आपस के झगड़े मेट कर, सबको अपना मानते।।
25
सपने आभूषण रात के, कब पहनें दिन में भला।
जिसने दिन में पहने कभी, उसका ही सिक्का चला।।
26
शीतल को जो मैं गुण कहूँ, तो मटके को जानता।
अन्तस् में है ज्वालामुखी, इसको कब पहचानता।।
27
आपस की बातें फूटती, तब लगते आघात है।
आघातों की इस घात में, झूठों की ही जात है।।
28
तुलसी औषधि है जानिए, समझो मत बिरवा कभी।
बीमारी ज्वर में तीव्र से, राहत देती ये तभी।।
29
परिभाषा चाहे व्याकरण, इसके ढेरों भेद हैं।
नौका तो वो ही डूबती, जिसके तल में छेद है।।
30
धरती के अन्तस् वेदना, नित तड़पे क्रंदन करे।
नभ में मेघों का मौन ये, व्याकुलता नित हिय भरे।।
31
ये नदिया बहती पूछती, लहरों के क्या काम हैं।
नौका ये बहती बोलती, लहरें मेरे धाम हैं।।
32
निर्धनता ये अभिशाप है, भोगें निर्धन लोग हैं।
सरकारों की यह चाल या, विधना के संयोग हैं।।
33
ये नदिया बहती बोलती, लहरों ठहरो आप मत।
तिर पाएगी फिर नाव ये, करलो श्रम हो आज नत।।
34
बातों बातों में लेखनी, भावों को आकार दे।
सुंदर गढ़ना हो शिल्प को, छंदों की बौछार दे।।
35
उल्लाला का लेखन सदा, मन पुलकित हर्षित करे।
पाठक श्रोता को बाँधता, भावों की नौका भरे।।
36
लोहे का सरिया डूबता, पुख्ता कवि के भाव हों
लकड़ी नौका ज्यूँ तैरती, यूँ कविता की नाव हों।।
37
कंचन वर्णी सी लेखनी, कुंदन जैसे भाव हैं।
कविता सुंदर सी अप्सरा, व्यंग्यात्मक से घाव हैं।।
38
ईश्वर भी बच पाते कहाँ, हिय के इस संताप से।
सम्भव हो तो बचिए सदा, पश्चातापी भाप से।।
39
कितनों की है ये प्रेरणा, कितनों का विश्वास है।
इस जीवन में कविता बनी, टूटे हिय की आस है।।
40
काँटे बाँटे किसने यहाँ, खुशियों की इस राह पर।
सब हँसते ही रहते सदा, औरों की हिय आह पर।।
41
चूड़ी चातक की चातकी, चंद्र चिकित्सक एक है।
छनके-खनके खद्योत सी, प्रीतम पाना टेक है।।
42
पहनी पायल पुलकित प्रिये, पावन सा आभास दे।
प्रीतम पोषक परदेस प्रिय, बैठे हिय विश्वास दे।।
43
वेणी केणी सी साजती, महकी कटि शृंगार से।
अस्त्रों शस्त्रों सा तेज ले, धनुषी बाण प्रहार से।।
44
माला के आभूषण कहें, अंतिम यात्रा की चमक।
जन जमघट ये विज्ञात का, बोले अपनी ही रमक।।
45
काजल के डोरे खींचती, नेत्रों के इस द्वार पर।
अति मन मोहक सी अप्सरा, मोहक छवि विस्तार पर।।
46
सुनकर हरियाली तीज पर, लिखता कविता भाव से।
पिछले वर्षों में जब लिखा, क्यों बौराये चाव से।।
47
कविवर तेरा ये धर्म है, करना अब स्वीकार यूँ।
इन बातों पर तुम मत लिखो, काव्य कभी हर बार यूँ।।
48
अबके करवा यूँ बोलता, देता है संदेश ये।
मत करना अब नूतन सृजन, छोड़ो हिय आवेश ये।।
49
भावी पीढ़ी शिक्षित बने, शिक्षामय संस्कार से।
लाये उत्तम सी योजना, विनती ये सरकार से।।
50
गढ़ना रचना का शिल्प अब, शिल्पी सा यह कार्य हो।
छंदों को उत्तम गति मिले, हर कवि को अनिवार्य हो।।
51
थाती ऐसी हो छंद की, गर्व करे साहित्य भी।
रचना जब उज्ज्वल सी दिखे, वंदन दे आदित्य भी।।
52
माणिक रत्नों की लालसा, कब आती किस कार्य है।
भूखों के कब घर को भरें, वश लालच के आर्य है।।
53
पारस खोता निज रूप कब, लोहा भी सोना बने।
चंदन सर्पों के मध्य में, बिन विष के वो नित तने।।
54
लिखकर चिट्ठी भेजे धरा, प्रिय मेघों के नाम पर।
शब्दों में जलती वेदना, करुणा कर निज धाम पर।।
55
अब पाठक मन उलझा हुआ, नूतन कुछ दिखता नहीं।
पढ़ना चाहे जिस गीत को, पुस्तक खोई वो कहीं।।
56
पाठक पल-पल पढ़ प्रीत पय, पावन पारस पीत का।
पुलकित पाठक प्रिय पंक्ति पर, पाचक पय पानीत का।।
57
वैदिक विद्या विस्तृत विनय, वाणी वर्षा ज्ञान से।
वादनवत वीणापाणि वर, वैदिक व्याख्या ध्यान से।।
58
गुरुकुल सी शिक्षा नीतियाँ, गुरुजन के गुणगान की।
पाए भारत सर्वोच्च पद, इच्छा यूँ विज्ञान की।।
59
रिमझिम रिमझिम बूंदे पड़े, बूंदों से हर्षित धरा।
सावन भादों सी ये झड़ी, अनुपम सा पानी झरा।।
60
नदिया बहती लहरें लिए, अद्भुत सा संगीत दे।
सागर से मिलने जा रही, उत्तम संस्कृति रीत दे।।
61
नदिया जीवन संदेश सी, उत्तम सा व्यवहार है।
प्रीतम से मिलने दूर तक, जाना यूँ स्वीकार है।।
62
छालों का भी अपना कथन, अपने ही कुछ भाव हैं।
उठते दुख के आभास ले, कहती दुनिया ताव हैं।।
63
पाहन के अपने भाग्य हैं, ठोकर दर-दर की मिले।
पैनी छेनी की चोट से, बनकर वो मूरत खिले।।
64
रक्षक कांटो सा चाहिए, फूलों को हरबार यूँ ।
जो कोमलता को चीर दे, उस पर मारे मार यूँ।।
65
बातों की जब खिचड़ी बने, बिगड़े तब उद्गार हैं।
प्रश्नों के फिर उत्तर कहाँ, देती ये सरकार हैं।।
66
काटो तब है कटता कहाँ, इस नदिया का नीर ये।
वीरों के आभूषण सदा, खिलते रहते धीर ये।।
67
बातें बनती रहती सदा, बातों का ये रूप हैं।
नदिया सागर में जा गिरे, जल के गहरे कूप हैं।।
68
नित पढ़ कर जब पाठक बने, कविता पाती मान है।
फिर लेखन रमता कंठ में, वो कविता का ज्ञान है।।
69
जब कोयल कूके बाग में, पंचम सुर की टेर वो।
आकर्षक सी प्यारी लगे, हिय उतरे बिन देर वो।।
70
संकट झंझट मति चाटते, ले जाते 'भ्रम' देश में।
छिड़ती फिर ढेरों व्याधियाँ, संशय के परिवेश में।।
71
मकड़ी का जाला तोड़ दें, मच्छर ये बलवान कब।
उलझी गुत्थी सुलझे नहीं, सुलझन की पहचान कब।।
72
काँटो को लेकर ये सुमन, इठलाते नित जोर पर।
साहस के फिर बजते बिगुल, देखो आँखें कोर पर।।
73
चंचल हिरणी के राज में, केशी घोड़े तुल्य है।
इस कलयुग में सँभले चलो, कुतिया का बाहुल्य है।।
74
विपदा का दुष्कर काल ये, कोरोना के नाम का।
पूछे सबसे फिर आज ये, मानव तू किस काम का।।
75
कंजल या फिर अंजन कहो, आँखे नित सुंदर बने।
नेत्रों के रोगों को हरे, औषधि ये उत्तम बने।।
76
गोदी प्यारी ममता भरी, लगती सुखमय हर्ष सा।
माँ के चरणों की वंदना, खींचे अद्भुत कर्ष सा।।
77
दोनों ही सम से चाहिए, तुलना के व्यवहार में।
डूबे या तैरे पूछलो, मतलब के संसार में।।
78
कीचड़ में पत्थर फेंकते, अपने पर ही छींट हो।
उत्तर पत्थर के तब भले, सम्मुख कोई ईंट हो।।
79
लीला रचते काले सदा, नित ज्योत्स्ना के साथ में।
यमुना तट पर लिपटे लता, फिर तरुवर के हाथ मे।।
80
बचपन कह अड़चन मत अटक, पल-पल कर अनबन झटक।
अटकन पर पटकन तक लटक, उभरन तक रख उर चटक।।
81
भरती सैनिक होते रहे, चाही जब स्वाधीनता।
आजादी दूँगा खून दो, नारों में थी भिन्नता।।
82
चाकर आकर छाकर करे, अपने सारे कार्य जब।
उनका भत्ता अतिरिक्त हो, मालिक को अनिवार्य तब।।
83
निर्झर स्वर में वह दौड़ता, और उनींदा सा चले।
झरना बहता कहता यही, चलने से अब क्यों टले।।
84
कहता जिसको संसार ये, उत्तम पालन हार वो।
इस जगती पर सब पल रहे, देती है आहार वो।।
85
चाकर करता सेवा सदा, रखकर हिय आनंद सा।
सेठों के परमानंद का, चाकर शीतल चंद सा।।
86
उपवन में नित जो कूकती, मोहित करती राग से।
गुंजन करते आते वहाँ, जाँचो अलि सुर भाग से।।
87
औषधि कहते कुछ वैद्य हैं, संस्कारों में लिख रहे।
अब पालक के कुछ भाव यूँ, उत्तम होते दिख रहे।
88
चाकर चाहे बस चाकरी, कब राज्यों की लालसा।
उसकी रोटी फँसती दिखे, फेंके सत्ता जाल सा।।
89
सरकारी बिल्ली छींकती, अब भरती के नाम पर।
संचित सी थाती जा चुकी, कोरोना के काम पर।।
90
बचपन अपना अनभिज्ञ था, माया के हर शोर से।
माया ने अब बाँधा यहाँ, कसके रस्सी जोर से।।
91
जगती हरियाली चाहती, रोपो तरुवर मिल सभी।
चमकेगा ये पर्यावरण, खुशियाँ छाएगी तभी।।
92
झरना बहता संदेश दे, ऊँचे से भी जब गिरे।
शीतलता का गुण धारलो, क्रोधी जो होते फिरे।।
93
पानी जीवन में बहुमूल्य है, पानी बिन कैसा नमक।
पानी आभूषण कंठ का, जिससे निखरे नित चमक।।
94
वाणी मीठी कड़वी कही, सबके अपने कर्म से।
कड़वी लोगों को काटती, मीठी जोड़े धर्म से।।
95
माया खिलती बन चाँदनी, जो रातों को जागती।
तम से भटकों को मार्ग दे, नित परहित में लागती।।
96
अन्तस् धधके ज्वालामुखी, ज्वाला का अवतार है।
जलता रहता जिससे हृदय, ये ही पालनहार है।।
97
पनपे नित बहकी व्यंजना, कब जाने किस छंद को।
मात्रा गिनते जाता दिवस, क्या कहने मति मंद को।।
98
कण्टक कहता है नित समय, कण्टक ढूँढे छंद में।
ये कविता का कण्टक बना, कण्टक दिखता चंद में।।
कण्टक - घड़ियाल, काँटा, दोष
99
कंकण से भरके हाथ को, कंकण हिय पर धारती।
प्रीतम के हिय बसती वधू, यह शादी की आरती।।
कंकण - कंगन और मंगलसूत्र
100
ढोंगों के बजते ढोल नित, उत्तम ये व्यवहार से।
कितनों को कितने सीख दें, छोटे जो आकार से।।
101
कड़वी बोली नित घाव दे, दुर्जन का व्यवहार ये।
खीरा के जैसे काट दो, उत्तम है उपचार ये।।
102
कलियुग द्वापर त्रेता सभी, तीनों युग का कष्ट है।
गंगा की समझे वेदना, अपने वे सब नष्ट है।।
103
कलियुग से पाकर कष्ट हिय, गङ्गा नित क्रंदन करे।
गङ्गा तन अम्लों से जला, कैसे फिर धीरज धरे।।
104
मारक सा एकादश दिवस, खिचड़ी क्रंदन में बनी।
पीहर वाले जब थे दुखी, उनकी इस सुख से ठनी।।
105
ये औषधि है हर रोग की, मीठी वाणी बोल नित।
सब अपने से बनकर रहें, देखें सब अचरज चकित।।
106
संकट का झंझट दिख रहा, ज्योतिष जब व्याख्यान दे।
जेष्ठा घातक नक्षत्र की, पूजा को सम्मान दे।।
107
कंकड़ नित ठोकर में रहे, रस्ते सहलाते कहाँ।
इनका दुख रोता सा दिखे, चोटों में दब कर यहाँ।।
108
साबुन जैसे ये झाग दे, करता तन को शुद्ध है।
ऐसे ही कर रगड़े सहन, जन जीते निज युद्ध है।।
109
मुखिया घर में नित एक हो, ज्यों जंगल नृप शेर हैं।
सब के सब जो मुखिया बनें, कदली झड़ते बेर हैं।।
110
तरुवर ये ओछा कब भला, ऊँचे के फल दूर हों।
फल नीचे तरुवर पर लदे, गुण उत्तम भरपूर हों।।
111
कविता की चुनरी छंद की, लगती मोहक सी दिखे।
अनुपम सरिता बनकर बहे, भावों को उत्तम लिखे।।
112
मारुति भगवन हनुमान के, जन्मोत्सव का हर्ष है।
भक्तों की ये आराधना, मिलता हिय उत्कर्ष है।।
113
काँसा भिक्षा ले जब चला, चमके काँसा रूप है।
काँसा बीहड़ में ही खिला, सहकर जलती धूप है।।
114
पनघट उजड़े से दिख रहे, व्याकुल पक्षी शोर से।
क्रंदन पूछे फिर मौन की, प्यासी सी इस भोर से।।
115
आँचल ये आकर्षक लगे, ममता का है सार ये।
सबके हिय को मोहित करे, माँ का उत्तम प्यार ये।।
116
मधुबन की हरियाली महक, जो देती फल फूल है।
चलती है फिर आरी सदा, ये मानव की भूल है।।
117
सविता के भीतर अग्नि जो, वो उज्ज्वल संसार है।
संध्या का ये विश्राम स्थल, देता तम का सार है।।
118
कविता कहने से बन गई, भावों का आकार ले।
हिय स्पंदन की हर टीस में, कविता इक आधार ले।।
119
सरिता की लहरें यूँ खड़ी, झूलें नभ की झूल पर।
अम्बर का दिखता बिम्ब है, इठलाती वो भूल पर।।
120
सागर के आँगन में पले, रत्नों का संसार ये।
सबके भाग्यों को ले परख, उनका है आधार ये।।
121
जननी माता सबसे बड़ी, धरणी सा व्यवहार है।
दोनों माता को कर नमन, इनसे ही संसार है।।
122
शुभदा पग दुल्हन के पड़े, बढ़ता वैभव यश दिखा।
हाथों की रेखा जब पढ़ी, ज्योतिष कहता सुख लिखा।।
123
गहरी सी अपनी पीर है, कहते अपने घाव ये।
अपनो से ही आहत हुए, अपनो के ही दाव ये।।
124
भाषा उत्तम है मौन की, लाखों हल रखती सदा।
सम्भव हो तो सब बोलिये, ये सुर गूँजे सर्वदा।।
125
मंगल शुभ मंगलसूत्र ये, बाँधे प्रीतम नेह से।
सातों जन्मों के ये वचन, निभते गंगा मेह से।।
126
साबुन महके विश्वास का, रखते जन उपवास है
उनका ओरा नित दे चमक, ज्यूँ रवि का आभास है।।
127
काँटे की टक्कर हो रही, तीनों दल तैयार हैं।
शोधन उल्लाला छंद का, करते बन परिवार हैं।।
128
उत्तम से उत्तम लिख रहे, अब ये रचनाकार हैं।
सबके लेखन सुंदर लगें, छंदों के आधार हैं।।
129
जैसे सोना कुंदन बने, पाकर हिय में ताप को।
वैसे लेखन सुंदर बने, सहयोगी पा आप को।।
130
सबको हार्दिक शुभकामना, करते जो सहयोग हो।
उत्तम लिख उत्तम कवि बनो, पावनता उद्योग हो।।
131
यमुना के तट पर चातकी, देखे शशि की ओर है।
लहरें दर्पण सी गा रही, रागों जैसा शोर है।।
132
रोचक सी अनुपम ये कथा, सुनते हरि अवतार की।
मंगल कारी चौबीस की, जन-जन के आधार की।।
133
अम्बर है धरती के तले, या अम्बर तल ये धरा।
पूछा ये किसने यत्न से, सोचें क्यों उत्तर खरा।।
134
रेखा ये सबके भाग्य की, होती है इन हाथ में।
कर्मों से आती है चमक, धर्मों के रह साथ में।।
135
तीर्थो का जल पावन अमृत, रोगों की औषधि यही।
वेदों की वाणी गूँजती, श्लोकों के माध्यम कही।।
136
मुखिया अपने घर ग्राम के, होते लाखों लोग हैं।
पर बनते कुछ ही मुख्य हैं, हिय बसते संयोग हैं।।
137
कविता कवियों की कल्पना, कल्पित कोरे भाव हैं।
सागर अम्बर में नित उड़ें, बादल में भी नाव हैं।।
138
रचना रचते में शिल्प फिर, तोड़े इच्छित भाव जब
झुँझलाहट तड़पे काव्य की, फँसता शिल्पी पाव जब।।
139
जननी माता तो जन्म दे, पाले धरणी माँ सदा।
दोनों में हो आस्था जहाँ, ईश्वर रहते सर्वदा।।
140
गुड़िया सी बासंती लगे, लगता प्यारा रूप है।
मनहारी सा वातावरण, मनहारी सी धूप है।।
141
सविता नित आये पूर्व से, दक्षिण करता स्पर्श है।
उत्तर तो केवल कल्पना, जीवन ऊँचा अर्श है।।
142
शोणित के पौधे रोपकर, उपवन के निर्माण हों।
सीखें उनसे सब वीरता, लड़ना जब तक प्राण हों।।
143
साधक उल्लाला छंद के, लिखने को तैयार हैं।
नूतन रचना रचते रहें, उत्तम छंदाकार हैं।।
144
नीलम की जब ज्योतिष कहे, धारण करना ध्यान से।
इसके भी दुष्परिणाम हैं, पहनो निज पहचान से।।
145
सीखो गुण नवधा भक्ति से, विनयी बनते लोग हैं।
ईश्वर के आशीर्वाद से, बनते शुभ संयोग हैं।।
146
काली पुतली मसि रूप में, शृंगारी मसिपात्र है।
आँखों की बनती लेखनी, पढ़ते लिखते छात्र हैं।।
147
नूतन रचना की कल्पना, अल्पित लगता छंद है।
लिखना-पढ़ना आता नहीं, मेरी मति भी मंद है।।
148
पीपल के तरुवर काट कर, रोपे जन तरु नाश के।
हरियाली नित मिटती रही, बंधन लालच पाश के।।
149
मंदिर का घण्टा गूँजता, गूँजे उत्तम शंख हैं।
चहके पक्षी नित भोर में, खोले उड़ते पंख हैं।।
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काली से भी काली लगे, क्यों पूनम की रात ये।
विश्वासों की है घातिनी, क्या सच्ची है बात ये।।
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बातों की भी क्या बात है, बातें तो हैं लाख ये
शोलों से तो ऊर्जा मिले, क्या करती है राख ये।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ उत्कृष्ट उदाहरण 👌
ReplyDeleteअच्छी जानकारी 👌👌 उत्कृष्ट लेख नये सीखने वालों के लिए।
ReplyDeleteआपकी विद्वता को प्रणाम है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteउत्कृष्ट सृजन आ0
ReplyDeleteवाह्ह, बेहद खूबसूरत रचना 👌 आ.
ReplyDeleteअनुपम,अद्वितीय उल्लाला छंद आ.सर जी शुभकामनाएं 🙏🏻🙏🏻
ReplyDeleteअनंत बधाइयाँ सुंदर शैली सटीक शिल्प विधान
ReplyDeleteअभिनव सृजन।
बहुत सुंदर आदरणीय.. सृजन के लिए बधाई
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteवाह!अनुपम,अतुलनीय,लाजवाब सृजन🙇🙇💐💐🙏🙏
ReplyDeleteअनंत बधाइयां गुरु देव 🙏🙏🙏
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक ।
अनंत बधाईयाँ आदरणीय भावपरकता
ReplyDeleteसे समृद्ध रचना ।