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Monday, March 22, 2021

नवगीत : काँच की चूड़ी : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
काँच की चूड़ी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/12 

एक विद्युत सी कड़कती
सब प्रथाएँ ढह गई
काँच की चूड़ी चटकती 
आह भरके रह गई।।

कंगनों का साथ छूटा
खनखनाहट मर गई
सोच फिर एकांत खाता
वो अचानक डर गई
मूक स्वर अवरुद्ध घट से 
पीर हिय से कह गई।।

काट दे वैधव्यता को
प्रेरणा सौभाग्य दे
बिन खनक जीवन सजीला 
और फिर वैराग्य दे
सादगी भी सीख दे यूँ 
फिर दृगों से बह गई।।

हस्त का शृंगार अनुपम 
चूड़ियाँ इतना बिलखती
खण्ड खण्डित सी दशा पर 
खिन्न हिय से वो किलकती
घाव पर ले एक आहट 
घाट बन कर सह गई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

4 comments:

  1. भले ही सब बदलता जाता है धीरे-धीरे, लेकिन उसमें छुपी भावनाएं नहीं बदलती

    बहुत सुन्दर

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  2. उत्कृष्ट भाव आ0

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  3. शानदार व भावपूर्ण रचना

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  4. सादर नमन🙏बेहद शानदार आपके नवगीत बहुत ही सुन्दर

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