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Tuesday, May 5, 2020

नवगीत : खिलखिलाई रात : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
खिलखिलाई रात
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 14/12 

पाश आलिंगन बँधा फिर
स्पर्श चुम्बन जड़ गया
रात हँस कर खिलखिलाई
स्वप्न कोई अड़ गया।।

लौहबानी सी पिघलती 
दे महक गूगल पृथक
आस चिंगारी दहकती
जो निरंतर सी अथक
और धड़कन तीव्र थी कुछ
नेक बनता धड़ गया।।

मोम सा बन तन बहा कुछ
ले तपिश कुछ श्वास की
बाँह लोहे सी कठोरी 
भूख पहली ग्रास की 
वो महक पाटल बना फिर 
गंध बनकर झड़ गया।।

शशि चकोरी बावले से
हाल उससे थे अधिक
प्रेम की मूरत बने वो
थे नहीं विचलित तनिक
पा समर्पण चांदनी का
वो अचानक पड़ गया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

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