copyright

Thursday, May 7, 2020

नवगीत : चतुरंगिणी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
चतुरंगिणी 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~16/14


मौन गूँजते मन आँगन में
कंपित से भयभीत हुये
चतुरंगिणी पड़ी है सेना
अश्रु नेत्र के रीत हुये।।

1
ढेर अठारह लगे पड़े हैं
लाखों की यह बात करे
दिवस सूर्य को लेकर डूबा
अँधियारी सी रात डरे
उल्लू बोल रहे महलों में
कैसे काज पुनीत हुये।।

2
सुबक द्रौपदी ठहरे. सुबके
दसों दिशायें थी काली
चिता जले. चिंघाड़े हाथी
उनकी भी खुशियाँ खाली
काल बली से करें याचना
अंतिम क्षण नवनीत हुये।।

3
एक युगी वे रातें कटती
दिन के तो क्षण कब दिखते
व्यास प्रभो की अनुकम्पा सब
नित्य निरन्तर जो लिखते
छंद यथार्थ खड़े से टसकें
और बंध सब गीत हुये।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

2 comments:

  1. शानदार सुंदर अनोखे बिम्ब 👌🏻👌🏻लाजवाब भाव 👌🏻👌🏻👌🏻 ढेर सारी बधाई शानदार सृजन की 💐💐💐💐

    ReplyDelete