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Thursday, July 30, 2020

गजल : संजय कौशिक 'विज्ञात'



गजल 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

बह्र~ 2122 2122 212 

दिल नहीं लगता कहीं पर आज कल।
वक़्त का बदला है तेवर आजकल।

वो वकालत काम किसके आ रही
मारती जो सच यहाँ पर आज कल।।

फूंकती है लू बदन को जेठ की
खो गया बादल कहीं पर आज कल।।

बाग में तितली नहीं अब एक भी
और बिखरे हैं पड़े पर आज कल।।

काम धंधा भी जहाँ पर बंद है
देख कोरोना सभी घर आज कल।।

और फिर फूलों से बनती है कहाँ
बोलते हैं शूल अक्सर आज कल

बिक रहे अखबार देखो हैं सभी
झूठ की बुनियाद जिस पर आज कल।।

वो महल से झांकता नीचे रहा
जो खड़ा ऊँचे पे जाकर आज कल।।

शख्स वो जो ऊंट पे बैठे कभी
भौंकते कुत्ते हैं उस पर आज कल

एक बूढ़ी माँ तड़पती चल बसे
मिल सके बेटा कहाँ पर आज कल।।

वो नजर भी देख कौशिक झुक गई
जो फरेबों से रही तर आज कल।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

15 comments:

  1. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल 👌👌👌
    सभी शेर एक से बढ़कर एक ...लाजवाब 👏👏👏

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  2. बाह क्या बात है गुरु देव जी
    बहुत सुन्दर सृजन

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  3. बाह क्या बात है गुरु देव जी
    बहुत सुन्दर सृजन

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  4. सुन्दर और सराहनीय बेहतरीन प्रस्तुति

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  5. वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह बहुत सुंदर गजल गा कर भी भेजिए कमाल हैं गुरुदेव शानदार

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  6. वाह शानदार अभिव्यक्ति आदरणीय

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  7. बहुत सुंदर ग़ज़ल।नमन लेखनी को।

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  8. बहुत ही बेहतरीन गज़ल....लाजवाब..👌👌👌👌👏👏👏👏

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  9. वाह बहुत सुन्दर ग़ज़ल । बेहतरीन

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  10. बेहद खूबसूरत

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  11. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  12. बिक रहे अखबार देखो हैं सभी
    झूठ की बुनियाद जिस पर आज कल।।👌👌👌👌👌
    वाह आदरणीय एक एक शेर लाजवाब 👏👏👏

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  13. अप्रतिम प्रस्तुति।

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  14. वाह उम्दा/बेहतरीन सृजन।

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  15. बेहतरीन बहुत सुंदर माननीय गुरुदेव

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