नवगीत
चिट्ठी लिखी कितनी
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~11/14
चिट्ठी लिखी कितनी
मगर आई नहीं पाती
फिर लेखनी पूछे
विरह की आग झुलसाती
ये काव्य पुतली से
लिखाती लेखनी आँखें
फिर शब्द चिह्नों से
उकेरे मोर सी पाँखें
मसि तिलमिलाई सी
पुरानी रीत झुठलाती।।
अद्भुत भृकुटि अनुपम
कहानी गीत में लिखती
दबती कहीं पर तो
कहीं उठ भाव में दिखती
ये प्रीत के नखरे
सुना है आज इठलाती।।
इक टीस दुख देती
लिखा ये भाव चिट्ठी में
सौगंध चुप्पी की
दिलाती ताव चिट्ठी में
संकल्प नूतन से
लिए प्राचीन धुन गाती।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
वो भी क्या वक़्त सुहाना था
ReplyDeleteअपनों की चिट्ठी आती थी
वर्णों में स्मृतियाँ बसती थी
स्याही भी नयन रुलाती थी
बहुत ही हृदयस्पर्शी चिट्ठी...यादों को ताजा कर गई 👌
बेहद हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय👌👌👌
ReplyDeleteबहुत ही सुदंर पोस्टमैन से बाते और चिट्टियो का जमाना था बहुत प्यारी रचना आपकी सारे वो पल याद आ गये सादर नमन आपको🙏🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteअद्भुत भृकुटि अनुपम
ReplyDeleteकहानी गीत में लिखती
दबती कहीं पर तो
कहीं उठ भाव में दिखती
ये प्रीत के नखरे
सुना है आज इठलाती
वाह!!!
लाजवाब नवगीत हमेशा की तरह।