नवगीत
ये साँझ सिंदूरी
संजय कौशिक 'विज्ञात
मापनी ~ 11/14
ये साँझ सिंदूरी
हमारे द्वार ठहरी है
धड़कन धड़कती सी
बनी ये श्वास गहरी है।।
कुछ सनसनाहट की
तभी गूँजे पनपती है
दौड़ी कहीं पुरवा
द्रुमों की ताल बजती है
पायल खनकती सी
लटकती आस बहरी है।।
बाती करे बतियाँ
लगे तब रात महकी सी
पूरे पहर नाची
करी फिर झात चहकी सी
बहकी कृपाणी सी
हृदय ने चोट पहरी है।।
कर प्रीत अवगुंठन
निकलती सी मटक जाती
पल्लू सरकता कुछ
कमर से वो झटक जाती
मंदी पवन बहती
करे स्मृति और जहरी है।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही खूबसूरत मनभावन नवगीत 👌
ReplyDeleteहर पंक्ति आकर्षक ....साधारण बात को भी अनोखी शैली में कहने से कथन में चार चाँद लग जाते हैं। यहाँ तो हर बात नई है....नमन आपकी लेखनी को गुरुदेव 🙏
सुंदर 👌 शानदार
ReplyDeleteशानदार नवगीत गुरूदेव । बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह बेहतरीन गीत ।
ReplyDeleteबहुत बहुत खूबसूरत गीत आनंद आ गया नमन वंदन आपको ,🙏🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत नवगीत आदरणीय 👌👌👌👌
ReplyDelete