नवगीत
ज्वालामुखी पिघले
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 11/14
ज्वालामुखी पिघले
हृदय पत्थर नहीं पिघला
सावन सुलगता सा
तभी तो बुलबुला उबला।।
सागर टसकता सा
लहर का रोष उलझन में
इक ज्वारभाटे का
चला फिर वेग अनबन में
धड़कन थमी देखें
बना वो चंद्र सा पुतला।।
बादल मचलता सा
सिसकता रो रहा कितना
दिन रात फिर बरसा
घटा सा मान जब इतना
कैसे समझता वो
तड़प जो कर गई पगला।।
उपवन महक डूबी
मिटे सब फूल फिर कलियाँ
हँसती रही मिलके
वहाँ इक व्यंग ले गलियाँ
मारा इन्हीं ने फिर
दिखा मुरझा गया गमला।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही खूबसूरत रचना 👌👌👌👌
ReplyDeleteहॄदय स्पर्शी भाव ....सादर नमन 🙏