नवगीत
प्रीत अवगुंठन पिपासित
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी स्थाई ~ 14/12
प्रीत अवगुंठन पिपासित
कुछ विरह की है तड़प
दर्पणों के बिम्ब चीखें
देख मुख लेती दड़प।।
युग जटिल बैसाख बीता
एक आह्वा घाम का
पक गया भट्ठा सिसकता
ईंट के था नाम का
भावना सारी व्यथित सी
नेह भटके काम का
भ्रष्ट मर्यादा प्रताड़ित
घाव उधड़े चाम का
याम का ये हर्ष सारा
कर रहा है नित हड़प।।
जेष्ठ की तपती दुपहरी
जल उठी जिस ताप से
मौन धरणी की तपस्या
कर रही नित जाप से
और इच्छाएं मरी कुछ
देख चिंतित पाप से
ढोल बजते शोक जैसे
मेघ गर्जन थाप से
छाप से विस्तृत धरा के
इंद्रधनुषी कण गड़प।।
और सावन की प्रतीक्षा
भार है आषाढ का
दृश्य नेत्रों ने दिखाया
फिर प्रलय सी बाढ़ का
रंग पतझड़ सा नुकीला
टीस देता गाढ़ का
दूर दिव्यांगी क्षणों में
ये हिमालय ठाढ़ का
दाढ़ का दुख रो पड़े जब
वेदना सहती झड़प।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
लाजवाब।
ReplyDeleteनिशब्द।
सांगोपांग।
वाह बेहद खूबसूरत सृजन 👌👌
ReplyDeleteअंतरे के अंतिम शब्द का तुकांत
ReplyDeleteपूरक के पहले शब्द से मिलाने से बहुत सुंदर गेयता आई है
जो अभिनव प्रयोग है और बहुत सुंदर भी ,ऐसा प्रयोग मैंने पहले भी आपकी कुछ रचनाओं में देखा है, ये बहुत ही आकर्षक और मंजुल है🌹🌹🌹
बहुत सुन्दर, वाह वाह 👌👌
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर गुरुदेव वाह वाह शानदार नौवगीत ढेरो बधाईयां🙏🙏🙏👌👌👌
ReplyDeleteलाजवाब सृजन 👌 आ.👏
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर 👌👌👌
ReplyDeleteतुकांत बहुत कठिन था पर आपने आकर्षक बना दिया। अवगुंठन में व्यंजना का तड़का इसे अलग ही स्वाद दे रहा है 👌👌👌
आपकी रचनाएँ बेहद प्रेरणादायक है गुरुदेव ... पढ़कर बस यही लगता है की काश हम भी ऐसा लिख पाते 🙏🙏🙏
बहुत सुन्दर रचना गुरु जी
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