copyright

Sunday, April 4, 2021

नवगीत ; मन किन्नर होना चाहि : एसंजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
मन किन्नर होना चाहिए
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 15/15

ज्ञापित होते आनंद का
मन किन्नर होना चाहिए
हर्ष विषादों के मध्य में 
भावों को रोना चाहिए।।

भटकों के खुलते मार्ग सब 
उत्तम शिक्षा पथ ज्ञान दे
दिखता है कौशल बुद्धि का 
जो इस जग में सम्मान दे
देते उपवन खिलती महक
क्यों बंजर बोना चाहिए।।

उपमानों के आभाव को
क्यों अलंकार का नाम हो
भूखे निर्धन को भीख क्यों 
उनके हाथों में काम हो
कांधों पर आए भार जब 
सबको ही ढोना चाहिए।।

तम को दीपक जो पाट दे
जलता हो अब हर नेत्र में 
शशि सूरज से यह बात हो
रक्षित बेटी हर क्षेत्र में 
नीची ओछी हर सोच को 
इक गहरा कोना चाहिए।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

2 comments:

  1. उपमानों के आभाव को
    क्यों अलंकार का नाम हो
    भूखे निर्धन को भीख क्यों
    उनके हाथों में काम हो
    वाह बेहतरीन 👌👌👌👌

    ReplyDelete
  2. हाँ सच ऐसा होना चाहिए.....👌👌

    ReplyDelete