नवगीत
मौन सन्नाटा
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 11/ 14
रातें अँधेरी सी
कहे कुछ तो अखरता है
यह मौन सन्नाटा
सदा आँचल पसरता है।।
काले हुए तन से
नहीं दिव्यांग कहलाती
रोशन करे जग ये
जहाँ पर भी जले बाती
तन पर रखे छाला
सदा वो फूट भरता है।।
जब व्याधियाँ चीखें
भला चुप कौन करवाता
ये भाग्य की भाषा
सरल कर कौन समझाता
जब शून्य फिर आए
प्रथम कुण अंक धरता है।।
इस रात का आँचल
भला कब जगमगाता है
मण्डल चमक तारा
तिमिर कब चीर पाता है
ये टूट कर बिखरे
सदा विश्वास मरता है।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही शानदार रचना 👌👌👌
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी खूबसूरत बिम्ब 💐💐💐💐
अति उत्तम रचना
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति 👌👌👌👌
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